त्रिलोकी में ऐसी कोई चीज नहीं जो अभ्यास से न मिले लेकिन नश्वर के लिए अभ्यास करते हो तो नश्वर चीज मिलेगी और छूट जायेगी और शाश्वत के लिए अभ्यास किया तो शाश्वत वस्तु मिलेगी, छूटेगी नहीं । शाश्वत के लिए अभ्यास करना बुद्धिमत्ता है ।
‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में आता हैः ‘मनुष्य को देह-इन्द्रियों का अभ्यास दृढ़ हो रहा
है, उससे फिर-फिर देह और इन्द्रियाँ ही पाता है ।’
देह और इन्द्रियों का अभ्यास दृढ़ हो गया न, इसलिए मनुष्य फिर-फिर से उसी जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता है । आत्मा का अभ्यास नहीं हुआ है इसलिए आत्मप्रकाश नहीं होता, नहीं तो इन्द्रियों और शरीर का जो भी काम होता है वह आत्मसत्ता से ही होता है ।
स्टील की कटोरी दिखाकर किसी को पूछाः ″यह क्या है ?″ बोलेः ″कटोरी है ।″
″पहले क्या दिखता है ?″
बोलेः ”कटोरी ।”
नहीं…. पहले स्टील दिखता है, बाद में कटोरी । ऐसे ही पहले ब्रह्म है, चैतन्य है, सुखरूप है, बाद में देह, इन्द्रियाँ, मन किंतु अभ्यास इनका हो गया तो वह ढक गया । व्यक्ति को तरंगे दिखती हैं और पानी की पहचान भूल गया !
भगवान कहते हैं
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
अपना चित्त अन्यगामी न करो, अभ्यासरूप योग से युक्त होकर अनन्यगामी करो, ईश्वरगामी करो ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।। (गीताः 8.8)
शास्त्र और ब्रह्मवेत्ता सद्गुरु के उपदेशानुसार चिंतन-ध्यान करते हुए परम पुरुष ब्रह्म-परमात्मा को प्राप्त हो जाय ऐसा अपना चित्त बनाओ ।
महर्षि वसिष्ठजी कहते हैं- ″हे राम जी ! जिनको भोगों की सदा इच्छा रहती है वे नीच पशु हैं, उनका संसार से उबरना कठिन है क्योंकि उनके हृदय में सदा तृष्णा रहती है ।″
इन्दियाँ क्षुद्र हैं और उनसे भी क्षुद्र विषय हैं । जिनको भोगों की इच्छा है…. जो कुछ देख के, सुन के, सूँघ के, खा के, पहन के सुखी होना चाहते हैं वे नीच बुद्धि के हैं । वे दुःख प्राप्त करते हैं, तुच्छ प्राणी हैं ।
वसिष्ठजी बोलेः ″हे राम जी ! जिनका चित्त सदा स्त्री-पुत्र और धन में आसक्त है और इनकी जो इच्छा करते हैं, वे महामूर्ख और नीच हैं । उनको धिक्कार है !″
स्त्री, पुत्र, धन, शत्रु के चिंतन में जिनका चित्त डाँवाडोल हो रहा है वे अपना कीमती आयुष्य नाश की तरफ ले जा रहे हैं और नाश को प्राप्त होंगे, बार-बार जन्मेंगे मरेंगे । और जिनका चित्त अविनाशी ईश्वर की तरफ चलता है, वे सेवाकार्य में लगते हैं तो निष्काम कर्मयोग हो जाता है, सत्संग सुनते विचारते हैं तो ज्ञानयोग हो जाता है, ध्यान-भजन करते हैं तो भक्तियोग हो जाता है । इस प्रकार त्रय योग हो जाता है उनका । जो ईश्वर की तरफ नहीं चलते वे काम धंधा करते हैं तो बंधन हो जाता है उनका वह कर्म । ऐसे तो सेवा भी कर्म है और बाजार में काम-धंधा भी कर्म है परंतु वह ममता और आसक्ति युक्त काम-धंधेवाला कर्म बंधन करता है । काम-धंधेवाला भी रोटी खाता है, सेवावाला भी रोटी खाता है पर सेवा के कर्म की कर्मयोग में गिनती हो जाती है और पहला बेचारा बंधन में चला जाता है ।
आत्मसाक्षात्कार या परम पद से बड़ा कोई पद नहीं । जिसको आत्मसुख, आत्मवैभव, परम पद की इच्छा हो उसको सदा संतों का संग करना चाहिए ।
नाटक कम्पनी का प्रबंधक अभिनेता को बोलता हैः ″देख, सेठजी ने तो आज तेरे को राजा का किरदार दिया !″
वह बोलाः ″अरे राजा का किरदार दिया तो क्या हुआ ! मेरी पगार बढ़ाओ, नहीं तो मैं जाता हूँ ।″
तो नाटक में राजा बन गया, इससे उसको कुछ नहीं । उसको तो पगार बढ़नी चाहिए । नाटक को नाटक समझता है न वह ! नाटक का राजा क्या मायना रखता है ! नाटक का भिखारी क्या मायना रखता है ! ऐसे ही इस संसार का हाल है । संसार की सफलता-विफलता कोई मायना नहीं रखती आत्मवैभव के आगे ।
एक के पीछे शून्य रखो तो कितने होते हैं ? 10. जितने ज्यादा शून्य रखो उतना आँकड़ा बढ़ता जायेगा । अच्छा, तो कितना भी बड़ा आँकड़ा हुआ, अब ‘1’ हटा दो फिर शून्यों की क्या कीमत है ? कोई कीमत नहीं । ऐसी ही है यह माया । एक चैतन्य है चिद्घन, बाकी सब शून्य माया के हैं । चैतन्य के ही सहारे सब दिखता है ।
इक्के ते सब होत है, सब ते एक न होई ।
उस एक से सब हो सकता है लेकिन सब मिलकर भी उस एक को नहीं बना सकते ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 336
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