सफलतारूपी लक्ष्मी पुरुषार्थी का ही वरण करती है – पूज्य बापू जी

सफलतारूपी लक्ष्मी पुरुषार्थी का ही वरण करती है – पूज्य बापू जी


सदाचार और शास्त्र-सम्मत पुरुषार्थ से अपनी सफलता का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए । सफलतारूपी लक्ष्मी हमेशा पुरुषार्थी व्यक्ति का ही वरण करती है । आलस्य, प्रमाद या पलायनवादिता को झाड़ फेंके । पुरुषार्थ परम देव हैं । बीते हुए कल का पुरुषार्थ आज का प्रारब्ध है । सफलता मिलने पर उसका गर्व नहीं करना चाहिए और विफलता में विषादयुक्त न होकर समता व धैर्य से पुनः सावधानीपूर्वक विकट प्रयत्न करना चाहिए । कई बार प्रयत्न करने पर भी असफलता मिले, फिर भी अपना पुरुषार्थ न छोड़े ऐसा कृतनिश्चयी अपने जीवन में अवश्य सफलता पाता है ।

जीवन में कभी ऐसा भी अवसर आता है कि अपने चारों और निराशा का गहन अंधकार छाया हुआ दिखाई देता है । दिल की बात कहकर अपना दिल खाली कर सकें ऐसा मौका नहीं मिलता है । फिर भी यदि पुरुषार्थ शुभ के लिए होता है तो प्रकृति की कोई घटना जीवन में पुनः आशा एवं उत्साह का संचार कर देती है ।

कभी विफलता मिले तो निराश न हों

ईश्वरप्राप्ति के लिए सिद्धार्थ ने पत्नी, पुत्र, राजपाट तक का त्याग करके जंगल का रास्ता पकड़ा था किंतु लक्ष्य हासिल नहीं हो रहा था । सिद्धार्थ निराश हो रहे थे, इतने में एकाएक उनकी दृष्टि पेड़ पर चढ़ते हुए एक कीड़े पर पड़ी । उन्होंने देखा कि वह कीड़ा दस बार चढ़ा और गिरा किंतु फिर भी उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा और आखिरकार ग्यारहवीं बार में चढ़ गया ।

यह दृश्य देख के सिद्धार्थ को लगा कि ‘एक छोटा सा कीड़ा दस-दस बार प्रयत्न करने पर भी नहीं हारता है और सफलता प्राप्त करके ही दम लेता है तो मैं क्यों अपना लक्ष्य छोड़कर कायरों की नाईं भाग के नश्वर राज्य सँभालूँ ?’

सिद्धार्थ पुनः दृढ़ता से लग गये तो लक्ष्य को पाकर ही रहे । वे ही सिद्धार्थ आज भी महात्मा बुद्ध के नाम से लाखों-करोड़ों हृदयों द्वारा पूजे जा रहे हैं ।

यदि तुम्हारा पुरुषार्थ शास्त्र-सम्मत हो, सद्गुरु द्वारा अनुमोदित हो, लक्ष्य के अनुरूप हो तो सफलता अवश्य मिलती है । पुरुषार्थ तो कई लोग करते हैं ।

ऐसे पुरुषार्थ से क्या लाभ ?

सुनी है एक कहानी । एक बार चूहों की सभी हुई चूहों के अगुआ ने कहाः “पुरुषार्थ से ही सफलताएँ मिलती है । अतः अब हमें निराश होने की कोई जरूरत नहीं है । जाओ, तुम सब पुरुषार्थ करके कुछ ले आओ । कोई भी खाली हाथ न आये ।”

सब चूहे सहमत हो गये और दोड़ पड़े । एक चूहा सपेरे के घर में घुस गया और बाँस की एक सख्त पिटारी को कुतरना आरम्भ किया । कुतरते-कुतरते चूहे के मुँह से खून बह निकला, फिर भी उसने पुरुषार्थ नहीं छोड़ा । प्रभात होने तक वह बड़ी मुश्किल से एक छेद कर पाया । जैसे ही चूहा पिटारी में घुसा तो रातभर के भूखे सर्प ने उसको अपना ग्रास बना लिया ।

ठीक इसी तरह मूर्ख, अज्ञानी मनुष्य भी सारा जीवन नश्वर वस्तुओं को पाने के पुरुषार्थ में लगा देते हैं किंतु अंत में क्या होता है ? कालरुपी सर्प आकर चूहेरूपी जीव को निगल जाता है । ऐसे पुरुषार्थ से क्या लाभ ?

शास्त्र कहता हैः पुरुषस्य अर्थः इति पुरुषार्थः । परम पुरुष परब्रह्म-परमात्मा के लिए जो यत्न किया जाता है वही पुरुषार्थ है । फिर चाहे जप-तप करो, चाहे कमाओ-खाओ और चाहे बच्चों का पालन-पोषण करो… यह सब करते हुए भी तुम्हारा लक्ष्य, तुम्हारा ध्यान यदि अखंड चैतन्य की ओर है तो समझो की पुरुषार्थ सही है । किंतु यदि अखंड को भूलकर तुम खंड-खंड में, अलग-अलग दिखने वाले शरीरों में उलझ जाते हो तो समझो कि तुम्हारा पुरुषार्थ करना व्यर्थ है ।

आज तक सभी पुरुषार्थ करते ही आये हैं । ईश्वर ने आपको बुद्धिशक्ति दी है किंतु उसका उपयोग आपने जगत के संबंधों को बढ़ाने में किया । ईश्वर ने आपको संकल्पशक्ति दी है किंतु उसका उपयोग अपने जगत के व्यर्थ संकल्पों-विकल्पों को बढ़ाने में किया । ईश्वर ने आपको क्रियाशक्ति दी है किंतु उसका उपयोग भी आपने जगत की नश्वर वस्तुओं को पाने में ही किया है ।

किसी से पूछो कि “ऐसे पुरुषार्थ से क्या पाया ?” तो वह कहेगाः “परीक्षा के दिनों में सुबह चार बजे उठकर पढ़ता था । मैं बी.ए. हो गया, एम.ए. हो गया… बढ़िया नौकरी मिल गयी । फिर नौकरी छोड़ के चुनाव लड़ा तो उसमें भी  सफल हो गया और आज एक साधारण परिवार का लड़का पुरुषार्थ करके मंत्री बन गया ।”

फिर आप पूछो कि “भाई ! अब आप सुखी तो हो ?” तो जवाब मिलेगा कि “और सब तो ठीक है लेकिन लड़का कहने में नहीं चलता है तो चिंता होती है, रात को नींद नहीं आती है…”

यह क्या पुरुषार्थ का वास्तविक फल है ?

तो सच्चा पुरुषार्थ क्या है ?

बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी, करने की, चुनाव लड़ने की मनाही नहीं है किंतु यह सब करने के साथ आप एक ऐसे पद को पाने का भी पुरुषार्थ कर लो कि जिसे पाकर यदि सब  आपकी धारणाओं, मान्यताओं के विपरीत हो जाय, सारी खुदाई (दुनिया, प्रकृति) आपके विरोध में खड़ी हो जाय फिर भी आपके हृदय का चैन न लूटा जा सके, आपका आनंद रत्तीभर भी कम न हो सके । …और वह पद है आत्मपद, जिसे पाकर मानव सदा के लिए सब दुःखों से निवृत्त हो जाता है ।

परमात्मा के लिए किया गया हर कार्य पुरुषार्थ हो सकता है किंतु सांसारिक इच्छा को लेकर की गयी परमात्मा की पूजा भी वास्तविक पुरुषार्थ नहीं हो सकती है ।

बेटे-बेटी को जन्म देना, पाल-पोसकर बड़ा करना, पढ़ाना-लिखाना एवं अपने पैरों पर खड़ा कर देना…. बस, केवल यही पुरुषार्थ नहीं है । इतना तो चूहा, बिल्ली आदि प्राणी भी कर लेते हैं । किंतु बेटे-बेटी को उत्तम संस्कार देकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर करना और खुद भी अग्रसर होना – यही सच्चा पुरुषार्थ है ।

वेदांत की दृष्टि से, शास्त्रों की दृष्टि से देखा जाय तो पुरुषार्थ का वास्तविक फल यही है कि पूरी त्रिलोकी का राज्य तुम्हें मिल जाय फिर भी तुम्हारे चित्त में हर्ष न हो और पड़ोसी तुम्हें नमक की एक डली तक देने के लिए तैयार न हो इतने तुम समाज में ठुकराये जाओ, फिर भी तुम्हारे चित्त में विषाद न हो ऐसे एकरस आत्मानंद में तुम्हारा चित्त लीन रहे । यही सच्चा पुरुषार्थ है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021 पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 339

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