संत कबीर जी ने कहा हैः
जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिन प्रान ।।
गुरु गोविंदसिंह जी कहते हैं-
साचु कहौ सुन लेहु सभै
जिन प्रेम किओ तिन ही प्रभु पायो ।।
जिसने प्रेम किया उसी ने पिया को, प्रभु को पाया । अकड़ या कायदे-कानून से नहीं कि ‘मैं इतनी माला घुमाऊँगा तो तू आयेगा…. मैं इतने यज्ञ करूँगा तो तू मिलेगा….’ नहीं । ‘मुझमें कुछ करने का सामर्थ्य है ही कहाँ ? जो भी तू करवाता है, वह तेरी ही कृपा है । बस, मैं तेरा हूँ – तू मेरा है और मैंने तुझे कहीं देखा है !’ ऐसा करते-करते उसके साथ दिल मिलाते जाओ, बस… संसार के तनाव छू हो जायेंगे, रोग-चिंता-मोह का प्रभाव क्षीण होता जायेगा, मुसीबतें भागना शुरु हो जायेगा ।
प्रेम जब इष्टदेव से होता है तो उस देव के दैवी गुण प्रेमी में आने लगते हैं । आप किसी दुष्ट व्यक्ति से प्रेम करते हैं तो उसके अवगुण आपमें आने लगते हैं, सज्जन से प्रेम करते हैं तो उसके सद्गुण आने लगते हैं । वही प्रेम जब आप परमात्मा से करोगे तो आपमें कितने उच्च सद्गुणों का समावेश होगा यह आप ही सोचो भैया !… और वही प्रेम यदि परमात्मा को पाये हुए किन्हीं ब्रह्मवेत्ता महापुरुष से होगा तो आपका जीवन निहाल हो जायेगा ।
प्रेम का आशय आप कहीं फिल्मों वाले प्रेमी प्रेमिका का प्रेम न समझ लेना । फिल्मों वाले तो प्रेम को बदनाम करते हैं, काम विकार है वह । सच्चा प्रेम तो सद्गुरु के चरणों में सत्शिष्य का होता है, भक्त का भगवान में होता है ।
महापुरुषों के प्रति हृदयपूर्वक प्रेम हो जाता है तो हृदय पवित्र होने लगता है, उनके सदगुण हममें आने लगते हैं व हमारे दोष मिटने लगते हैं । अतः आप गुणनिधि ईश्वर और ईश्वरप्राप्त महापुरुषों से प्रेम किया करें । श्रीमद्भागवत (3.25.20) में कपिल मुनि माता देवहूति से कहते हैं-
प्रसङ्गमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ।।
‘विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बंधन मानते हैं किंतु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है तो मोक्ष का खुल द्वार बन जाती है ।’
पाश्चात्य जगत में बड़ा व्यक्ति उसे मानते हैं जिसके पास जहाज हैं, बंगले हैं, गाड़ियाँ हैं, करोड़ों डॉलर हैं किंतु भारत में उसे बड़ा मानते हैं जिसके हृदय में परमात्म-प्रेम है । जो लेता तो बहुत कम अथवा कुछ भी नहीं लेकिन देता बहुत है । राजा जनक अष्टावक्र जी को बड़ा मानते हैं और श्रीरामचन्द्र जी वसिष्ठ जी को गुरु मानते हैं, बड़ा मानते हैं । जिसके भी हृदय में आत्मिक प्रेम है उसको भारत ने बड़ा माना है । राजा परीक्षित ने शुकदेव जी के चरणों में बैठकर परमात्म-प्रेम का ऐसा प्रसाद एवं परम निर्भयता प्राप्त की कि तक्षक काटने आ रहा है फिर भी मौत का भय नहीं । परीक्षित कहते हैं- “मौत तो मरने वाले शरीर को मारती है, मुझ अमर आत्मा का क्या बिगड़ता है ?”
सच्ची सेवा क्या है ? केवल दुःख मिटाना सच्ची सेवा नहीं है, सुख बाँटना, प्रेम बाँटना ही सच्ची सेवा है । तुमने किसी दुःखी व्यक्ति का फोड़ा ठीक कर दुःख मिटाया तो यह सेवा तो है परंतु पक्की सेवा नहीं क्योंकि फोड़ा ठीक होते हो वह शराब पियेगा या नश्वर संसार से सुख लेने के लिए और कुछ करेगा लेकिन उसके जीवन में तुमने सत्संग का प्रेम दे दिया तो शराब वाले की शराब छूट जायेगी, रोगी को रोग में राहत में मिलेगी… उसे परमात्मा का प्रेम जो दान कर दिया है ! जो लोग ऐसी सेवा करते हैं अथवा ऐसी सेवा के दैवी कार्य में भागीदार बनते हैं, वे हजारों-हजारों यज्ञों से भी बड़ा काम करते हैं ।
हरि सम जग कछु वस्तु नहीं, प्रेम पंथ सम पंथ ।
सद्गुरु सम सज्जन नहीं, गीता सम नहीं ग्रंथ ।।
…तो आज से ही पक्का कर लो कि हम उस प्यार से प्यार करेंगे, मुहब्बत करेंगे ।
मुहब्बत के जो बंदे होते हैं वो कब फरियाद करते हैं ।
लबों पर मोहर खामोशी की और दिलों में उसे याद करते हैं ।।
प्रेम के बिना तपस्या रूखी, प्रेम के बिना धन रूखा, प्रेम के बिना तन और जीवन भी रूखा होता है । प्रेम जब शरीर में फँसता है तो ‘काम’ बनता है, प्रेम जब धन में उलझता है तो ‘लोभ’ बनता है, प्रेम जब परिवार में मँडराता है तो ‘मोह’ बनता है और प्रेम जब ईश्वर में या ईश्वरप्राप्त महापुरुषों में लगता है तो मुक्तिदायी बनता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2021, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 340
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