कर्म होते हैं, उनका उपादान (उपादान यानी वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार होती है, जैसे – घड़े का उपादान मिट्टी है ।) क्या है – प्रकृति, तीन गुण, ईश्वर, अनेक वस्तुओं का मिश्रण अथवा और कुछ ? इस विषय में बहुत मतभेद हैं । काल, पूर्वकर्म, स्वभाव, आकस्मिकता – अनेक प्रकार के विचार हैं कर्मों के निमित्त और उपादान के संबंध में । मुख्य बात यह नहीं है कि कर्म हो रहे हैं या नहीं, यह भी मुख्य नहीं है कि वे सकाम हो रहे हैं या निष्काम – मुख्य बात यह है कि आप अपने को उनका कर्ता मानते हैं कि नहीं ? अनिर्वचनीय कारण से हुए कर्म का अपने को कर्ता बताना आकाश में चमकते हुए तारों को अपनी रचना बताने के समान है । अभिमान कर लीजिये, प्रारब्ध को दोष दे लीजिये, वासनाओं के नचाये नाच लीजिये, समाज की उठती बहती, बदलती, छलकती, इठलाती, इतराती लहर में बह जाइये, ठीक है परंतु आप यथार्थ को पहचानते हैं कि नहीं ? अपने को कर्म का कर्ता मानना अज्ञान है । कर्म के फल का भोक्ता मानना भी अज्ञान है । वह भोक्ता चाहे इस लोक में बने चाहे परलोक में – कर्ता-भोक्ता भ्रम है । नरक स्वर्ग अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार मिलते हैं । आत्मा की परिच्छिन्नता (सीमितता, अलगाव) भी दृश्य है, वह आत्मा का स्वरूप नहीं हो सकती । दृश्य से द्रष्टा अनोखा, अनूठा, विलक्षण होता है । अपनी अद्वितीयता, पूर्णता के बोध से परिच्छिन्नता का भ्रम मिटता है । अतः अपने को जानिये । भ्रांति-मूलक कर्तापन, भोक्तापन, संसारीपन एवं परिच्छिन्नपन का बाध कर दीजिये । आपका व्यक्तित्व मस्त-मौला है, परमानंद है, जीवन्मुक्त है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 10, अंक 342
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