सत्संग को पाने और समझने के लिए तो राजे-महाराजे राजपाट छोड़कर सिर में खाक डाल के, हाथ में झाड़ू ले के सफाई करने या बर्तन माँजने की सेवा हो तो वह भी स्वीकार करके ब्रह्मवेत्ता गुरुओं को रिझाते थे तब उनको ज्ञान मिलता था ।
हम भी गुरुद्वार पर बर्तन माँजने की सेवा करते थे तो वहाँ की मिट्टी पथरीली होने से सेवा करते-करते कभी-कभी उँगलियों से खून बह जाता । हाथों पर पट्टी बाँध लेते लेकिन सेवा नहीं छोड़ते थे, आखिर गुरुद्वार की सेवा थी । उन दिनों में हम 10 से 15 तोला सोना रोज खरीद के रख सकें इतना कमा सकते थे, सोना भी सस्ता था । अभी 10-15 तोला सोना सवा सात लाख का मान लो । सवा सात लाख आज के दिन में रोज कमाना, उसको छोड़कर गुरु जी के यहाँ बर्तन माँजने की सेवा, शास्त्र पढ़ने की सेवा, चिट्ठियाँ आती थीं तो उनको श्रीचरणों में पढ़कर उनका जवाब भेजने की सेवा… तो चपरासी से लेकर खास सचिव तक की सारी सेवा हम उठा लेते थे ।
जो जिम्मेदारी लेने से कतराता है, काम करने में लापरवाही करता है या मैं तो भजन कर रहा हूँ, ऐसा कह के सेवा से जी चुराता है, वह भजन में भी सफल नहीं होगा, कामकाज में भी सफल नहीं होगा । काम करो तो तत्परता से करो फिर भजन भी तत्परता से होगा । लापरवाह व्यक्ति न भजन में सफल होगा न कामकाज में सफल होगा । कार्य करें तो मन लगा के करें । कार्य जितनी जिम्मेदारी से, तत्परता से करेंगे उनती योग्यता बढ़ेगी । जितनी बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ लोगे और तत्परता से पूरी करोगे उतना विकास होगा । तो कभी भी पलायनवादी विचार नहीं करना । ‘सीताराम-सीताराम’ की, ‘जय श्री कृष्ण की चादर ओढ़कर भगतड़े बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है; श्री कृष्ण अथवा रामजी ऐसे भगतड़ों को नहीं मिलते । भगवान कृष्ण और राम जी का अनुभव भक्तों को मिलता है । भक्त वे हैं जो अपने चैतन्य स्वभाव से, अपने आत्मस्वभाव से विभक्त न हों, अलग न हों, सावधान रहें ।
भगत जगत को ठगत है, भगत को ठगे न कोई ।
एक बार जो भगत ठगे, अखंड यज्ञ फल होई ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2021 पृष्ठ संख्या 16 अंक 343
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ