Monthly Archives: September 2021

दो प्रकार का शासन – पूज्य बापू जी


संयम या शासन दो तरह का होता हैः

  1. दूसरों पर शासन करना ।
  2. अपने पर शासन करना ।

दूसरों पर शासन करके शोषण करना यह अहंकारी राजाओं और नेताओं का काम है, यह स्वार्थपूर्ण होने से सद्गति नहीं देता । लेकिन दूसरों को भय से बचाकर उनकी भलाई चाहना, दूसरों के दोष मिटाने के लिए उन पर शासन करना, जैसे माँ, गुरु, भगवान करते हैं – यह उत्तम व सात्त्विक शासन है । और अपनी मन-इन्द्रियों पर शासन करके विकारों से बचना यह उत्तम शासन है ।

दूसरों पर सात्त्विक शासन करना और ‘स्व’ पर स्वाभाविक शासन होना – ये दोनों सद्गुण भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों से स्वतः सिद्ध होते हैं, साधकों को इनका यत्न करना पड़ता है । और मूर्ख लोग शासनहीन होने से नीच गतियों में, पशु-योनियों में परेशान होते हैं । तो अच्छी बातों को स्वीकार कर लो, बुरी बातों से बचने के लिए अपने मन व इन्द्रियों पर थोड़ा शासन करो और शासन करने में भगवान व भगवत्प्राप्त महापुरुषों का आश्रय और प्राणायाम – दोनों मदद करेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 29 अंक 345

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ज्ञानी का कर्तव्य नहीं स्वनिर्मित विनोद होता है – पूज्य बापू जी


एक श्रद्धालु माई मिठाई बना के लायी और मेरे को दे के बोलीः ″कुछ भी करके साँईं (पूज्य बापू जी के सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) खायें ऐसा करो, हमारी मिठाई पहुँचती नहीं वहाँ ।″

मैंने ले ली । डीसा में साँईं आये थे । सुबह-सुबह सत्संग  हुआ तो कुछ गिने-गिनाये साधकों के बीच था । तो साँईं ने पूछाः ″क्या हुआ ?″

मैंने उसकी मिठाई और प्रार्थना श्रीचरणों में निवेदित की ।

साँईं बोलेः ″अब ले आओ भाई ! जो भाग्य है, भोग के छूटेंगे और क्या है ! लाओ, थोड़ा खा लें ।″

अब खा रहे हैं, ‘बढ़िया है ।’ बोल भी रहे हैं लेकिन कोई वासना नहीं है । खा रहे हैं परेच्छा-प्रारब्ध से (परेच्छा = पर इच्छा, दूसरों की इच्छा), मिल लिया परेच्छा से । अपने जो भी सत्संग-कार्यक्रम होते हैं, मैं उनके बारे में खोज-खोज के थक जाता हूँ कि ‘मेरी इच्छा से तो कोई कार्यक्रम तो नहीं कर रहा हूँ ?’  नहीं, लोग आते हैं – जाते हैं, उनकी बहुत इच्छा होती है तब परेच्छा-प्रारब्ध से कार्यक्रम दिये जाते हैं । आज तक के सभी कार्यक्रमों पर दृष्टि डाल के देख लो, कोई भी कार्यक्रम मैंने अपनी इच्छा से दिया हो तो बताओ । विद्यार्थियों के लिए होता है कि चलो, सुसंस्कार बँट जायें’ वह भी इसलिए कि उनकी इच्छाएँ होती हैं, उनके संकल्प होते हैं । या जो ध्यानयोग शिविर देता हूँ और मेरी सहमति होती है तो शिविर के लोगों की भी पात्रता होती है, उनका पुण्य मेरे द्वारा यह करवा लेता है । मैं ऐसा नहीं सोचता कि ‘चलो, शिविर करें, लोग आ जायें, अपने को कुछ मिल जाये, अपना यह हो जाय… या ‘चलो, सारा संसार पच रहा है, इस बहाने लोगों को थोड़ा बाहर निकालें ।’ ऐसा नहीं होता मेरे को ।

संत लोग कहते हैं कि ‘लोकोपकार, लोक-संग्रह यह ज्ञानी (आत्मज्ञानी) का कर्तव्य नहीं है, स्वनिर्मित विनोद है ।’ ऐसा नहीं कि संतों का कर्तव्य है कि समाज को ऊपर उठायें । कर्तव्य तो उसका है जिसको कुछ वासना है, कुछ पाना है । जो अपने-आप में तृप्त है उनका कोई कर्तव्य नहीं है । शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ तब तक कर्तव्य है । जब तक शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ, अपने ‘मैं’ का ज्ञान नहीं हुआ, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है । तो

जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान ।

जब तक कर्तव्यता दिखती है तब तक अज्ञान मौजूद है, ईश्वर के तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान (निर्विशेष ज्ञान) नहीं हुआ । ईश्वर का दर्शन भी हो जाय तब भी यदि निर्विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो कर्तव्य मौजूद रहेगा । ईश्वर के दर्शन – कृष्ण जी, राम जी, शिवजी के दर्शन के बाद भी निर्विशेष शुद्ध ज्ञान – तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की जरूरत पड़ती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 345

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प्रसन्नता और समता बनाये रखने का सरल उपाय – पूज्य बापूजी


प्रसन्नता बनाये रखने और उसे बढ़ाने का एक सरल उपाय यह है कि सुबह अपने कमरे में बैठकर जोर से हँसो । आज तक जो सुख-दुःख आया वह बीत गया और जो आयेगा वह बीत जायेगा । जो होगा, देखा जायेगा । आज तो मौज में रहो । भले झूठमूठ में ही हंसो । ऐसा करते-करते सच्ची हँसी भी आ जायेगी । उससे शरीर में रक्त-संचरण ठीक से होगा । शरीर तंदुरुस्त रहेगा । बीमारियाँ नहीं सतायेंगी और दिनभर खुश रहोगे तो समस्याएँ भी भाग जायेंगी या तो आसानी से हल हो जायेंगी ।

व्यवहार में चाहे कैसे भी सुख-दुःख, हानि-लाभ,  मान-अपमान के प्रसंग आयें पर आप उनसे विचलित हुए बिना चित्त की समता बनाये  रखोगे तो आपको अपने आनंदप्रद स्वभाव को जगाने में देर नहीं लगेगी क्योंकि चित्त की विश्रांति परमात्म-प्रसाद की जननी है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 23 अंक 345

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