एक श्रद्धालु माई मिठाई बना के लायी और मेरे को दे के बोलीः ″कुछ भी करके साँईं (पूज्य
बापू जी के सद्गुरुदेव साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) खायें ऐसा करो, हमारी मिठाई
पहुँचती नहीं वहाँ ।″
मैंने ले ली । डीसा में साँईं आये थे । सुबह-सुबह सत्संग हुआ तो कुछ गिने-गिनाये साधकों के बीच था । तो
साँईं ने पूछाः ″क्या हुआ ?″
मैंने उसकी मिठाई और प्रार्थना श्रीचरणों में निवेदित की ।
साँईं बोलेः ″अब ले आओ भाई ! जो भाग्य है, भोग के छूटेंगे और क्या है ! लाओ, थोड़ा खा
लें ।″
अब खा रहे हैं, ‘बढ़िया है ।’ बोल भी रहे हैं लेकिन कोई वासना नहीं है । खा रहे हैं
परेच्छा-प्रारब्ध से (परेच्छा = पर इच्छा, दूसरों की इच्छा), मिल लिया परेच्छा से । अपने जो भी
सत्संग-कार्यक्रम होते हैं, मैं उनके बारे में खोज-खोज के थक जाता हूँ कि ‘मेरी इच्छा से
तो कोई कार्यक्रम तो नहीं कर रहा हूँ ?’ नहीं, लोग आते हैं – जाते हैं, उनकी बहुत इच्छा
होती है तब परेच्छा-प्रारब्ध से कार्यक्रम दिये जाते हैं । आज तक के सभी
कार्यक्रमों पर दृष्टि डाल के देख लो, कोई भी कार्यक्रम मैंने अपनी इच्छा से दिया
हो तो बताओ । विद्यार्थियों के लिए होता है कि चलो, सुसंस्कार बँट जायें’ वह भी इसलिए कि उनकी इच्छाएँ होती हैं, उनके संकल्प होते हैं । या जो
ध्यानयोग शिविर देता हूँ और मेरी सहमति होती है तो शिविर के लोगों की भी पात्रता
होती है, उनका पुण्य मेरे द्वारा यह करवा लेता है । मैं ऐसा नहीं सोचता कि ‘चलो, शिविर करें, लोग आ जायें, अपने को कुछ मिल जाये, अपना यह हो जाय… या ‘चलो, सारा संसार पच रहा है, इस बहाने लोगों को थोड़ा बाहर निकालें ।’ ऐसा नहीं होता मेरे को ।
संत लोग कहते हैं कि ‘लोकोपकार, लोक-संग्रह यह ज्ञानी (आत्मज्ञानी) का कर्तव्य नहीं है, स्वनिर्मित
विनोद है ।’ ऐसा नहीं कि संतों का कर्तव्य है कि समाज को
ऊपर उठायें । कर्तव्य तो उसका है जिसको कुछ वासना है, कुछ पाना है । जो अपने-आप
में तृप्त है उनका कोई कर्तव्य नहीं है । शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ तब तक कर्तव्य है ।
जब तक शुद्ध ज्ञान नहीं हुआ, अपने ‘मैं’ का ज्ञान नहीं
हुआ, तब तक वह अज्ञानी माना जाता है । तो
जा लगी माने कर्तव्यता ता लगी है अज्ञान ।
जब तक कर्तव्यता दिखती है तब तक अज्ञान मौजूद है, ईश्वर के
तात्त्विक स्वरूप का ज्ञान (निर्विशेष ज्ञान) नहीं हुआ । ईश्वर का दर्शन भी हो जाय
तब भी यदि निर्विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो कर्तव्य मौजूद रहेगा । ईश्वर के दर्शन –
कृष्ण जी, राम जी, शिवजी के दर्शन के बाद भी निर्विशेष शुद्ध ज्ञान – तत्त्व ज्ञान
की प्राप्ति की जरूरत पड़ती है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 25 अंक 345
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