पाँच प्रकार के गुरुभक्त – पूज्य बापू जी

पाँच प्रकार के गुरुभक्त – पूज्य बापू जी


गुरुभक्ति की महिमा गाते हुए भगवान शंकर माता पार्वती जी से कहते हैं-

आकल्पजन्मकोटिनां यज्ञव्रततपः क्रियाः ।

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसन्तोषमात्रतः ।।

‘हे देवि ! कल्पपर्यंत के करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप ओर शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं । (श्री गुरु गीता)

आत्मवेत्ता सद्गुरुदेव के अंतःकरण के संतोष में ही सारी साधनाओं का, सारे यज्ञ, तप, व्रतों का साफल्य है । ऐसे सद्गुरुओं या महापुरुषों के पास आने वाले भक्त पाँच प्रकार के होते हैं-क

पहले प्रकार के भक्त वे होते हैं जो गुरु या भगवान के रास्ते यह इच्छा लेकर चलते हैं कि ‘हमें इहलोक में भी सुख मिले और परलोक में भी लाभ हो ।’ वे सोचते हैं कि ‘चलो, संत के द्वार जायें । वहाँ जाने से पुण्य होगा ।’ इसके अतिरिक्त संतों-महापुरुषों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता । ये आरम्भिक भक्त कहलाते हैं । जो नास्तिक हैं और संतों के द्वार नहीं आते उनसे तो ये आरम्भिक भक्त उत्तम हैं ।

दूसरे वे भक्त होते हैं जो सद्गुरु या भगवान के प्रति अपनत्व रखते हैं कि ‘भगवान हमारे हैं, सद्गुरु हमारे हैं ।’ अपनत्व रखने से उनको पुण्य व ज्ञान मिलता है । पहले वालों से ये कुछ ऊँचे दर्जे के हैं लेकिन वे अपने आराम व सुख-सुविधाओं को साथ में रखकर गुरुभक्ति, भगवद्भक्ति के मार्ग पर चलना चाहते हैं ।

तीसरे प्रकार के भक्त वे होते हैं जो अपनी आवश्यकताओं के साथ-साथ गुरु और उनकी संस्था की भी आवश्यकता का ख्याल रखकर चलते हैं । वे सोचते हैं कि ‘संत के दैवीकार्य में हमारा भी कुछ योगदान हो जाय ।’ ये तीसरे प्रकार के भक्त सद्गुरु या भगवान की थोड़ी बहुत सेवा खोज लेते हैं । सेवा करने से उनको आंतरिक आनंद उभरता है व हृदय पवित्र होने लगता है ।

चौथे प्रकार के भक्त वे होते हैं जो गुरु की सेवा करते हुए अपने सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान की परवाह नहीं करते । उनकी पुकार और अनुभूति होती है कि

गुरु जी तुम तसल्ली न दो,

सिर्फ बैठे ही रहो ।

महफिल का रंग बदल जायेगा,

गिरता हुआ दिल भी सँभल जायेगा ।।

इन प्रेमी भक्तों का प्रेम कुछ निराला ही होता है । भक्त नरसिंह मेहता ने ऐसे भक्तों के लिए कहा हैः

भोंय सुवाडुं भूखे मारूं, ऊपरथी मारूं मार ।

एटलुं करतां हरि भजे तो करी नाखुं निहाल ।।

अर्थात्

भूमि पर सुलाऊँ, भूखा मारूँ तिस पर मारूँ मार ।

इसके बाद भी हरि भजे तो कर डालूँ निहाल ।।

प्रेमाभक्ति में बहुत ताकत होती है ।

पंचम प्रकार के भक्तों को सूफीवादी में बोलते हैं ‘मुरीदे फिदाई’ । माने गुरु पर, इष्ट पर बस फिदा हो गये । जैसे पतंगा दीये पर फिदा हो जाता है, चकोर चाँद पर फिदा हो जाता है, सीप स्वाति नक्षत्र की बूँद पर फिदा हो जाती है, वैसे ही वे अपने गुरु पर, इष्ट पर फिदा हो जाते हैं ।

जोगी हम तो लुट गये तेरे प्यार में, जाने ना तुझको खबर कब होगी ?… – यह फरियाद पंचम श्रेणी वाला भक्त नहीं करता । ऐसे भक्तों के लिए देवर्षि नारदजी ने कहा हैः यथा व्रजगोपिकानाम् ।

गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण में कोई दोष नहीं देखतीं । वे सोचती हैं- ‘मक्खन चोरी करते हैं, तब भी श्रीकृष्ण हमारे हैं, युद्ध में कइयों को ठिकाने लगवा रहे हैं तब भी हमारे हैं । चाहे कोई कुछ भी कहता रहे, बस श्रीकृष्ण हमारे हैं ।’ कितना विशुद्ध प्रेम था गोपियों का ! उन्होंने तो अपने आपको भगवान श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया था ।

श्रीरामकृष्ण परमहंस ऐसे सच्चे भक्त या शिष्य की निष्ठा को इन शब्दों में अभिव्यक्त करते थेः ″यद्यपि मेरे गुरु कलालखाने (शराबखाने) में जाते हों तो भी मेरे गुरु नित्यानंद राय हैं ।″ (संदर्भः श्री रामकृष्णदेव की ‘अमृतवाणी’ )

यदि प्रेम में फरियाद नहीं होती, कोई आडम्बर नहीं होता तो यह प्रेम की पराकाष्ठा है । ऐसे भक्तों को फिर अन्य किसी जप, तप, यज्ञ, अनुष्ठान या साधना की जरूरत नहीं पड़ती, वे तो प्रेमाभक्ति से ही तर जाते हैं ।

प्रेम न खेतों ऊपजे प्रेम न हाट बिकाय ।

राजा चहो प्रजा चहो शीश दिये ले जाय ।।

अहं दिये ले जाय ।।

अमीर खुसरो एक ऐसे ही प्रेमी भक्त थे । अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया को कहते थेः ″हे मेरे प्यारे गुरुदेव ! मैं आप हुआ, आप मैं हुए । मैं देह हुआ, आप प्राण हुए । अब कोई यह न कह सके कि मैं और हूँ, आप और हैं ।″

देखने में तो गुरु और शिष्य अलग-अलग दिखते हैं लेकिन जब गुरु के प्रति शिष्य का प्रेम ऐहिक स्वार्थरहित होता है तो गुरु का आत्मा व शिष्य का आत्मा एक हो जाता है । जैसे एक कमरे में दो दीये जगमगाते हैं हों किस दीये का कौन-सा प्रकाश है यह नहीं बता सकते, दो तालाबों के बीच की दीवार टूट गयी हो तो किस तालाब का कौन-सा पानी है यह नहीं बता सकते, ऐसी ही बात इधर भी है ।

ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने ।

व्योमवत् व्याप्तदेहाय तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

फिर शिष्य चाहे घर में हो या दफ्तर में, देश में हो या विदेश में, उसके लिए स्थान और दूरी का कोई महत्त्व नहीं होता । वह जहाँ कहीं भी होगा, गुरु के साथ एकाकारता का अनुभव कर लेगा ।

दिल-ए-तस्वीर है यार !

जब भी गर्दन झुका ली, मुलाकात कर ली ।

वे थे न मुझसे दूर, न मैं उनसे दूर था ।

आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।

वेदांती विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व का अवलम्बन लेते-लेते जिस तत्त्व में स्थिति पाता है, प्रेमी भक्त अपने प्रेमास्पद का चिंतन करते-करते सहज में ही उस तत्त्व में स्थिति पा लेता है । प्रेमाभक्ति प्रेमी भक्त को प्रेमास्पद के अनुभव के साथ, प्रेमास्पद के स्वरूप के साथ एकाकार कर देती है ।

हमने भी पहले मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम, प्रेममूर्ति भगवान श्रीकृष्ण, शक्तिरूपा माँ महाकाली आदि की उपासना की और बाद में भगवान शिव को इष्ट मान कर अनुष्ठान किया परंतु जब अपने गुरुदेव (साँईँ श्री लीलाशाह जी महाराज ) की छत्रछाया में आये तो ऐसे अनुपम आनंद का खजाना हाथ लगा कि जिसके आगे चौदह भुवनों के सुख भी तुच्छ है । इसलिए हे मानव ! जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझ ले भैया ! जीवन की कीमत मत आँक । तेरा निष्काम प्रेम और सेवा ही तुझे गुरु-तत्त्व का खजाना प्राप्त करवा देंगे ।

मकसदे जिंदगी समझ, कीमते जिंदगी न देख ।

इश्क ही खुद है बंदगी, इश्क में बंदगी न देख ।।

यह प्रेमाभक्ति ही पराभक्ति है, पूर्णता, सहजावस्था या जीवन्मुक्ति को पाने का उत्तम मार्ग है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2021, पृष्ठ संख्या 4,5, 10 अंक 347 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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