अत्याचार की पराकाष्ठा से उन्नति की पराकाष्ठा तक
(पूज्य बापू जी की पावन अमृतवाणी) विपत्तियों के पहाड़, दुःखों के समुद्र हमें दुःखी बनाने में समर्थ नहीं है, क्योंकि सर्वसमर्थ हमारा आत्मा परम हितैषी है। केवल हम उसे अपना मानें, समर्थ मानें, प्रीतिपूर्वक सुमिरें। सुषुप्ति की जड़ता में भी वह हमारा साथ नहीं छोड़ता, अचेतन अवस्था में भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। मृत्यु भी …