ऋषि प्रसाद सेवादारों की सेवा सराहनीय है

ऋषि प्रसाद सेवादारों की सेवा सराहनीय है


पूज्य बापू जी

(ऋषि प्रसाद जयंतीः 31 जुलाई 2015)

‘ऋषि प्रसाद’ के सेवाधारियों कि सेवा सराहनीय है। जो भी सेवाधारी ऋषि प्रसाद की सेवा करते हैं, उनकी जगह पर अगर वेतनभोगी रखें तो वे इतने प्रेम से सेवा नहीं करेंगे और उन्हें वह आनंद नहीं आयेगा जो सेवाधारियों को आता है। क्योंकि उनकी नज़र रुपयों पर होगी और सेवाधारियों की नजर है गुरुप्रसाद पर। हमारा लक्ष्य तो

राम काजु कीन्हें बिन मोहि कहाँ बिश्राम।

भोगी लोग आखिर नरकों में ले जाते हैं और ऋषि प्रसाद के सेवाधारी ज्ञान दे रहे है तो ज्ञानयोगी बन जायेंगे। और ज्ञानयोगी जहाँ जायेगा वहाँ नरक भी स्वर्ग हो जाता है। श्वास स्वाभाविक चल रहा है, उसमें ज्ञान का योग कर दो ‘सोऽहम्’।

जो भी सेवाधारी कोई सेवा करते हैं तो वे अपना कल्याण करने के लिए कर रहे हैं। भोग वासना को मिटाने के लिए कर्मयोग कर रहे हैं।

यह बात पक्की कर लो !

ऋषि प्रसाद के जो सेवाधारी हैं, उनकी सेवाओं से लाखों लोगों तक हाथों-हाथ ‘ऋषि प्रसाद’ पहुँचती है लेकिन हम उनको शाबाशी नहीं देंगे। वे जानते हैं कि ‘बापू जी हमको नकली दुनिया से बचाते हैं, नकली शाबाशी से बचाते हैं और बापू जी ऐसी चीज देना चाहते हैं जो भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा ब्रह्मज्ञानियों के हृदय में लहराती है, स्फुरित होती है…. वह खजाना देना चाहते हैं।’

ब्रह्मवेत्ता के सिवा अन्य लोगों का संग करोगे तो वे अपनी ही कल्पनाओं में, अपने ही रंग में आपके चित्त को रँगेंगे। ब्रह्मज्ञानी के संग के बिना जो भी संग हैं, वे संसार में घसीटने वाले संग हैं। ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों का संग ही सत्संग है, बाकी सब कुसंग है कुसंग ! कर्मों के जाल में बाँधे वह कुसंग और कर्म को योग बना दे वह सत्संग। सत्यस्वरूप परमात्मा से मिला देने वाला कर्म सत्संग है और ईश्वर से मिलाने वाला, परमात्मा से मिलाने वाला संग ही सत्संग है। मुझे तो यह बात ऋषि प्रसाद वालों को पक्की करानी है कि

देखा अपने आपको मेरा दिल दीवाना हो गया।

न छेड़ो मुझे यारों मैं खुद पे मस्ताना हो गया।।

अब काम पर मस्ताना, लोभ पर मस्ताना, धन में मस्ताना तो कई लोग देख लिये। वाहवाही में मस्ताना कइयों को देखा। अरे, कोई निंदा भी करे तब भी वही शांति बनी रहे। कोई वाहवाही करे या निंदा करे तब भी क्या फर्क पड़ता है ! सुखद स्थिति आये तो क्या हो गया ? समय तो पसार हो रहा है। समय सभी को निगल रहा है। काल को जो जानता है, उस अकाल ‘सोऽहम्’ का स्वभाव को तू पहचान ले बस, हो गया काम !

सबसे बड़ा और अनोखा आशीर्वाद

‘तुम्हारे सामने दुःख न आये, तुम सदा सुखी रहो’ – यह आशीर्वाद हम नहीं देते हैं लेकिन ‘तुम सुख और दुःख के भोक्ता न बनो, उनको साधन बना लो। सुख आये तो बहुजनहिताय और दुःख आय तो बहुत गयी थोड़ी रही…. आया है सो जायेगा…. संयम और सोऽहम्… दुःख का द्रष्टा दुःखी नहीं होता, सुख का द्रष्टा सुखी नहीं होता अपितु बाँटकर आनंदमय होता है।

यह भी देख, वह भी देख।

देखत देखत ऐसा देख कि मिट जाय धोखा, रह जाय एक।।

सोऽहम्… शिवोऽहम्… आनंदोऽहम्…। तुम अपने आत्मा को जानो, जहाँ सुख-दुःख तुच्छ हो जायें तथा संसार स्वप्न हो जाय’, बस ! इससे बड़ा आशीर्वाद तो कोई हो सकता है, यह मेरे को समझ में नहीं आता।

‘तुम भी निर्लेप रहो, बेटे-बेटियाँ भी निर्लेप रहें, संसार छूट जाय उसके पहले उसकी आसक्ति छोड़कर अपना आत्मयोग करो’, बस ! मैं तो यह सलाह देता हूँ, यह शुभ भावना कर सकता हूँ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 29,30 अंक 271

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