योगस्थः कुरु कर्माणि…..
अक्ष्युपनिषद् में भगवान सूर्यनारायण सांकृति मुनि से कहते हैं- “असंवेदन अर्थात् आत्मा-परमात्मा के अतिरिक्त दूसरी किसी वस्तु का भान न हो – ऐसी स्थिति को ही योग मानते हैं, यही वास्तविक चित्तक्षय है । अतएव योगस्थ होकर कर्मों को करो, नीरस अर्थात् विरक्त हो के मत करो ।” इसी सिद्धान्त को सरल शब्दों में समझाते …