Tag Archives: Chaturmaas

Chaturmaas

पुण्यों का संचयकालः चतुर्मास


(19 जुलाई से 14 नवम्बर)

(ʹपद्म पुराणʹʹस्कन्द पुराणʹ पर आधारित)

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा द्वारा विश्रांतियोग का आश्रय लेते हुए आत्मा में समाधिस्थ रहते हैं। इस काल को चतुर्मास कहते हैं। इस काल में किया हुआ व्रत-नियम, साधन-भजन आदि अक्षय फल प्रदान करता है।

चतुर्मास के व्रत-नियम

गुड़, ताम्बूल (पान या बीड़ा), साग वह शहद के त्याग से मनुष्य को पुण्य की प्राप्ति होती है। दूध-दही छोड़ने वाले मनुष्य को गोलोक की प्राप्ति होती है। पलाश के पत्तों में किया गया एक-एक बार का भोजन त्रिरात्र व्रत (तीन दिन तक उपवास रख कर किया गया व्रत) व चान्द्राय़ण व्रत (चंद्रमा की एक कला हो तब एक कौर इस प्रकार रोज एक-एक बढ़ाते हुए पूनम के दिन 15 कौर भोजन लें और फिर उसी प्रकार घटाते जायें) के समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाला है। पृथ्वी पर बैठकर प्राणों को 5 आहूतियाँ देकर मौनपूर्वक भोजन करने से मनुष्य के 5 पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। पंचगव्य का पान करने वाले को चान्द्रायण व्रत का फल मिलता है। चौमासे में भूमि पर शयन करने वाले मनुष्य को निरोगता, धन, पुत्रादि की प्राप्ति होती है। उसे कभी कोढ़ की बीमारी नहीं होती।

उपवास का लाभ

चतुर्मास में रोज एक समय भोजन करने वाला पुरुष अग्निष्टोम यज्ञ का फल पाता है। चतुर्मास में दोनों पक्षों (कृष्ण व शुक्ल पक्ष) की एकादशियों का व्रत व उपवास महापुण्यदायी है।

त्यागने योग्य

सावन में साग, भादों में दही, आश्विन में दूध तथा कार्तिक में दाल व करेला का त्याग।

काँसे के बर्तनों का त्याग।

विवाह आदि सकाम कर्म वर्जित हैं।

चतुर्मास में परनिंदा का विशेष रूप से त्याग करें। परनिंदा महान पाप, महान भय व महान दुःख है। परनिंदा सुनने वाला भी पापी होता है।

जो चतुर्मास में भगवत्प्रीति के लिए अपना प्रिय भोग यत्नपूर्वक त्यागता है, उसकी त्यागी हुई वस्तुएँ उसे अक्षयरूप में प्राप्त होती हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करें

चतुर्मास में ब्रह्मचर्य पालन करने वाले को स्वर्गलोक की प्राप्ति तथा असत्य-भाषण, क्रोध एवं पर्व के अवसर पर मैथुन का त्याग करने वाले को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

जप एवं स्तोत्रपाठ का फल

जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़ा होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का पाठ करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है (ʹपुरुष सूक्तʹ के लिए पढ़ें ऋषि प्रसाद जुलाई 2012)। चतुर्मास में ʹनमो नारायणायʹ का जप करने से सौ गुने फल की प्राप्ति होती है तथा भगवान के नाम का कीर्तन और जप करने से कोटि गुना फल मिलता है।

स्नान व स्वास्थ्य-सुरक्षा

चतुर्मास में प्रतिदिन आँवला रस मिश्रित जल से स्नान करने से नित्य महापुण्य की प्राप्ति होती है। बाल्टी में 1-2 बिल्वपत्र डाल के ʹ नमः शिवायʹ का 4-5 बार जप करके स्नान करने से वायु-प्रकोप दूर होता है, स्वास्थ्य रक्षा होती है।

साधना का सुवर्णकाल

चतुर्मास साधना का सुवर्णकाल माना गया है। जिस प्रकार चींटियाँ वर्षाकाल हेतु इससे पहले के दिनों में ही अपने लिए उपयोगी साधन-संचय कर लेती हैं, उसी प्रकार साधक को भी इस अमृतोपम समय में पुण्यों की अभिवृद्धि कर परमात्म सुख की ओर आगे बढ़ना चाहिए।

चतुर्मास में शास्त्रोक्त नियम-व्रत पालन, दान, जप-ध्यान, मंत्रानुष्ठान, गौ-सेवा, हवन, स्वाध्याय, सत्पुरुषों की सेवा, संत-दर्शन व सत्संग-श्रवण आदि धर्म के पालन से महापुण्य की प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य नियम, व्रत, अथवा जप के बिना चौमासा बिताता है, वह मूर्ख है। चतुर्मास का पुण्यलाभ लेने के लिए प्रेरित करते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “तुम यह संकल्प करो कि यह जो चतुर्मास शुरु हो रहा है, उसमें हम साधना की पूँजी बढ़ायेंगे। यहाँ के रूपये तुम्हारी पूँजी नहीं हैं, तुम्हारे शरीर की पूँजी हैं। लेकिन साधना तुम्हारी पूँजी होगी, मौत के बाप की ताकत नहीं जो उसे छीन सके !ʹʹ

चतुर्मास में कोई अनुष्ठान का नियम अथवा एक समय भोजन और एकांतवास का नियम ले लो। कुछ समय ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ या ʹईश्वर की ओरʹ पुस्तक पढ़ने अथवा सत्संग सुनने का नियम ले लो। इस प्रकार अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ-न-कुछ साधन भजन का नियम ले लेना। जो घड़ियाँ बीत गयीं वे बीत गयीं, वापस नहीं आयेंगी। जो साधन-भजन कर लिया सो कर लिया। वही असली धन है तुम्हारा।

चतुर्मास सब गुणों से युक्त समय है। अतः इसमें श्रद्धा से शुभ कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिए। साधकों के लिए आश्रम के पवित्र वातावरण में मौन-मंदिरों की व्यवस्था भी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2013, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 247

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

चतुर्मास में विशेष पठनीय – पुरुष सूक्त


जो चतुर्मास में भगवान विष्णु के आगे खड़े होकर ʹपुरुष सूक्तʹ का जप करता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है।

श्री गुरुभ्यो नमः।

हरिः

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिँसर्वतः स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङगुलम्।।

जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माँड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं।।1।।

पुरुषएवेदँ सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति।।2।।

जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं। इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।

पादोस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।3।।

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है। इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः।

ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनेअभि।।4।।

चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।

ततो विराडजायत विराजोअधि पूरुषः।

स जातोअत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः।।5।।

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए। वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया।।5।।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये।।6।।

उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है)। वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।7।।

उस विराट यत्र पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ। उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ।।7।।

तस्मादश्वाअजायन्त ये के चोभयादतः।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताअजावयः।।8।।

उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः।

तेन देवाअयजन्त साध्याऋषयश्च ये।।9।।

मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाउच्येते।।10।।

संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानी जन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?।।10।।

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद् भ्याँ शूद्रोअजायत।।11।।

विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादिग्निरजायत।।12।।

विराट पुरुष की नाभी से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुई। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है)।।13।।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।

वसन्तोस्यासीदाज्यं ग्रीष्मइध्मः शरद्धविः।।14।।

जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः।

देवा यद्यज्ञं तन्वानाअबध्नन् पुरुषं पशुम्।।15।।

देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं।।16।।

शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः!!!

(यजुर्वेदः 31.1.-16)

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकाररहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं। (यजुर्वेदः 31.18)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2012, अंक 235, पृष्ठ संख्या 24,25

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ

साधना का अमृतकालः चतुर्मास


30 जून 2012 से 25 नवम्बर 2012 तक

केवल पुण्यप्रद ही नहीं, परमावश्यक है

चतुर्मास में साधना।

आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक भगवान विष्णु योगनिद्रा द्वारा विश्रान्तियोग का आश्रय लेते हुए आत्मा में समाधिस्थ रहते हैं। इस काल को ʹचतुर्मासʹ कहते हैं।

संस्कृत में हरि शब्द सूर्य, चन्द्र, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। वर्षाकाल की उमस हरि (वायु) में शयनार्थ चले जाने के कारण उनके अभाव में उत्पन्न होती है। यह अन्य किसी भी ऋतु में अनुभव नहीं की जा सकती। सर्वव्यापी हरि हमारे शरीर में भी अऩेक रूपों में विद्यमान रहते हैं। शरीरस्थ गुणों में सत्त्वगुण हरि का प्रतीक है। वात-पित्त-कफ में पित्त को हरि का प्रतिनिधि माना गया है। चतुर्मास में ऋतु परिवर्तन के कारण पित्तरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति सो जाती है। इस ऋतु में सत्त्वगुणरूपी हरि का शयन (मंदता) तो प्रत्यक्ष ही है, जिससे रजोगुण व तमोगुण की वृद्धि होने से इस ऋतु में प्राणियों में भोग-विलास प्रवृत्ति, निद्रा, आलस्य अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं। हरि के शरीरस्थ प्रतिनिधियों के सो जाने के कारण (मंद पड़ने से) अऩेक प्रकार की शारीरिक व मानसिक बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनके समाधान के लिए आयुर्वेद में इस ऋतु हेतु विशेष प्रकार के आहार-विहार की व्यवस्था की गयी है।

सत्त्वगुण की मंदता से उत्पन्न होने वाली दुष्पृवृत्तियों के शमन हेतु चतुर्मास में विविध प्रकार के व्रत, अऩुष्ठान, संत-दर्शन, सत्संग, संत-सेवा यज्ञादि का आयोजन होता है, जिससे सत्त्व-विरहित मन भी कुमार्गगामी न बन सके। इन चार महीनों में विवाह, गृह-प्रवेश, प्राण-प्रतिष्ठा एवं शुभ कार्य बंद रहते हैं।

चतुर्मास में विशेष महत्त्वपूर्णः विश्रान्तियोग

ʹस्कन्द-पुराणʹ के अनुसार चतुर्मास में दो प्रकार का शौच ग्रहण करना चाहिए। जल से नहाना-धोना बाह्य शौच है तथा श्रद्धा से अंतःकरण शुद्ध करना आंतरिक शौच है। चतुर्मास में इऩ्द्रियों की चंचलता, काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य (ईर्ष्या) विशेष रूप से त्याग देने योग्य हैं। इनका त्याग सब तपस्याओं का मूल है, जिसे ʹमहातपʹ कहा गया है। ज्ञानीजन आंतरिक शौच के द्वारा अपने अंतःकरण को मलरहित करके उसी आत्मा-परमात्मा में विश्रांति पाते हैं जिसमें श्रीहरि चार महीने समाधिस्थ रहते हैं।

पूज्य बापू जी कहते हैं- “भगवान नारायण चतुर्मास में समाधि में है तो शादी-विवाह और सकाम कर्म वर्जित माने जाते हैं। सेवा, सुमिरन, ध्यान आपको विशेष लाभ देगा। भगवान नारायण तो ध्यानमग्न रहते हैं और नारायण-तत्त्व में जगे हुए महापुरुष भी चतुर्मास में विशेष विश्रांतियोग में रहते हैं, उसका फायदा उठाना। आपाधापी के कर्मों से थोड़ा अपने को बचा लेना।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2012, अंक 234, पृष्ठ संख्या 27

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ