Tag Archives: Dhyan Sadhna

विज्ञान को अब समझ में आयी ध्यान की महिमा


ध्यान सर्वोच्च मेधा, प्रज्ञा, दिव्यता तथा प्रतिभा रूपी अमूल्य सम्पत्ति को प्रकट करता है। मानसिक उत्तेजना, उद्वेग और तनाव की बड़े-में-बड़ी दवा ध्यान है। जो लोग नियमित रूप से ध्यान करते हैं, उन्हें दवाइयों पर अधिक धन खर्च नहीं करना पड़ता। भगवद्ध्यान से मन-मस्तिष्क में नवस्फूर्ति, नयी अनुभूतियाँ, नयी भावनाएँ, सही चिंतन प्रणाली, नयी कार्यप्रणाली का संचार होता है। गुरु-निर्दिष्ट ध्यान से ‘सब ईश्वर ही है’ ऐसी परम दृष्टि की भी प्राप्ति होती है। ध्यान की साधना सूक्ष्म दृष्टिसम्पन्न, परम ज्ञानी भारत के ऋषि-मुनियों का अनुभूत प्रसाद है।

आज आधुनिक वैज्ञानिक संत-महापुरुषों की इस देन एवं इसमें छुपे रहस्यों के कुछ अंशों को जानकर चकित हो रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार ध्यान के समय आने-जाने वाले श्वास पर ध्यान देना हमें न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक विकारों के भी दूर रखता है। इससे तनाव व बेचैनी दूर होते हैं और रक्तचाप नियंत्रित होता है। पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी श्वासोच्छ्वास की गिनती की साधना और ॐकार का प्लुत उच्चारण ऐसे अनेक असाधारण लाभ प्रदान करते हैं, साथ ही ईश्वरीय शांति एवं आनंद की अनुभूति कराते है, जो वैज्ञानिकों को भी पता नहीं है।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक अध्ययन में पाया गया कि ध्यान के दौरान जब हम अपने हर एक श्वास पर ध्यान लगाते हैं तो इसके साथ ही हमारे मस्तिष्क के कॉर्टेक्स नाम हिस्से की मोटाई बढ़ने लगती है, जिससे सम्पूर्ण मस्तिष्क की तार्किक क्षमता में बढ़ोतरी होती है। अच्छी नींद के बाद सुबह की ताजी हवा में गहरे श्वास लेने का अभ्यास दिमागी क्षमता को बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका है। पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी दिनचर्या में प्रातः 3 से 5 का समय इस हेतु सर्वोत्तम बताया गया है। कई शोधों से पता चला है कि जो लोग नियमित तौर पर ध्यान करते हैं, उनमें ध्यान न करने वालों की अपेक्षा आत्मविश्वास का स्तर ज्यादा होता है। साथ ही उनमें ऊर्जा और संकल्पबल अधिक सक्रिय रहता है। येल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता का कहना है कि ‘ध्यान करने वाले छात्रों का आई.क्यू. लेवल (बौद्धिक क्षमता) औरों से अधिक देखा गया है।’

चार अवस्थाएँ

ध्यान से प्राप्त शांति तथा आध्यात्मिक बल की सहायता से जीवन की जटिल-से-जटिल समस्याओं को भी बड़ी सरलता से सुलझाया जा सकता है और परमात्मा का साक्षात्कार भी किया जा सकता है। चार अवस्थाएँ होती है- घन सुषुप्ति (पत्थर आदि), क्षीण सुषुप्ति (पेड़-पौधे आदि), स्वप्नावस्था (मनुष्य, देव, गंधर्व आदि), जाग्रत अवस्था (जिसने अपने शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य स्वभाव को जान लिया है)।

संत तुलसीदास जी ने कहाः

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।  (श्री राम चरित. अयो. कां. 92.1)

‘मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ’ यह सब सपना है। ‘मैं’ का वास्तविक स्वरूप जाना तब जाग्रत। इसलिए श्रुति भगवती कहती हैः

उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।….  (कठोपनिषद् 1.3.14)

महापुरुष के पास जाओ और तत्त्वज्ञान के उपदेश से अपने में जाग जाओ।

ध्यान माने क्या ?

पूज्य बापू जी कहते हैं- “ध्यान माने क्या ? हमारा मन नेत्रों के द्वारा जगत में जाता है, सबको निहारता है तब जाग्रतावस्था होती है, ‘हिता’ नाम की नाड़ी में प्रवेश करता है तब स्वप्नावस्था होती है और जब हृदय में विश्रांति करता है तब सुषुप्तावस्था होती है। ध्यानावस्था न जाग्रतावस्था है, न स्वप्नावस्था है और सुषुप्तावस्था है वरन् ध्यान चित्त की सूक्ष्म वृत्ति का नाम है। आधा घंटा परमात्मा के ध्यान में डूबने की कला सीख लो तो जो शांति, आत्मिक बल और आत्मिक धैर्य आयेगा, उससे एक सप्ताह तक संसारी समस्याओं से जूझने की ताकत आ जायेगी। ध्यान में लग जाओ तो अदभुत शक्तियों का प्राकट्य होने लगेगा।”

ध्यान किसका  करें और कैसे करें ?

प्राचीनकाल से आज तक असंख्य लोगों ने परमात्म-ध्यान का आश्रय लेकर जीवन को सुखी, स्वस्थ व समृद्ध तो बनाया ही, साथ ही परमात्मप्राप्ति तक की यात्रा करने में भी सहायता प्राप्त की। पूज्य बापू जी जैसे ईश्वर-अनुभवी, करुणासागर, निःस्वार्थ महापुरुष ही ईश्वर का पता सहज में हमें बता सकते हैं, हर किसी के बस की यह बात नहीं। पाश्चात्य वैज्ञानिक ध्यान के स्थूल फायदे तो बता सकते हैं परंतु ध्यान का परम-लाभ…. सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम लाभ बताना ब्रह्मवेत्ताओं के लिए ही सम्भव है। ईश्वर का ध्यान हर समय कैसे बना रहे ? इसके बारे में पूज्य बापू जी बताते हैं- “भ…ग… वा …न…. जो भरण-पोषण करते हैं, गमनागमन (गमन-आगमन) की सत्ता देते हैं, वाणी का उद्गम-स्थान है, सब मिटने के बाद भी जो नहीं मिटते, वे भगवान मेरे आत्मदेव हैं। वे ही गोविंद हैं, वे ही गोपाल हैं, वे ही राधारमण हैं, वे ही सारे जगत के मूल सूत्रधार हैं – ऐसा सतत दृढ़ चिंतन करने से एवं उपनिषद् और वेदांत का ज्ञान समझ के आँखें बंद करने से शांति-आनंद, ध्यान में भी परमात्म-रस और हल्ले-गुल्ले में भी परमात्म-रस ! ‘टयूबलाइट, बल्ब, पंखा, फ्रिज, गीजर – ये भिन्न-भिन्न हैं लेकिन सबमें सत्ता विद्युत की है, ऐसे ही सब भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी एक अभिन्न तत्त्व से ही सब कुछ हो रहा है।’ – ऐसा चिंतन-सुमिरन और प्रीतिपूर्वक ॐकार का गुंजन करें, एकटक गुरु जी को, ॐकार को देखें।”

शक्तिपात के अद्वितीय समर्थ महापुरुष

कुंडलिनी योग के अनुभवनिष्ठ ज्ञाता पूज्य बापू जी की विशेषता है कि वे लाखों संसारमार्गी जीवों को कलियुग के कलुषित वातावरण से प्रभावित होने पर भी दिव्य शक्तिपात वर्षा से सहज ध्यान में डुबाते हैं। सामूहिक शक्तिपात के द्वारा सप्त चक्रों का शुद्धीकरण और रूपांतरण करके उनको बड़े-बड़े योगियों को जो अनुभूतियाँ बरसों की कठोर साधना के बाद होती हैं, उनका अनुभव 2-3 दिन के ध्यानयोग शिविरों में कराते हैं। इसलिए पूज्य बापू जी के सान्निध्य में आयोजित शिविरों में देश-विदेश के असंख्य साधक ध्यान की गहराइयों  में डूबने के लिए आते हैं। शक्तिपात का इतना व्यापक प्रयोग इतिहास एवं वर्तमान में पूज्य बापू जी के सान्निध्य के अभाव से देश के आध्यात्मिक विकास में जो बाधा उत्पन्न हुई है, उसकी क्षतिपूर्ति कोई नहीं कर सकता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2015, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 271

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सप्तचक्रों के ध्यान के लाभ


शरीर में आध्यात्मिक शक्तियों के सात केन्द्र हैं जिन्हें ‘चक्र’ कहा जाता है । ये चक्र चर्मचक्षुओं से नहीं दिखते क्योंकि ये हमारे सूक्ष्म शरीर में होते हैं । फिर भी स्थूल शरीर के ज्ञानतंतुओं-स्नायुकेन्द्रों के साथ समानता स्थापित करके इनका निर्देश किया जाता है । इन चक्रों का ध्यान करने से निम्नलिखित लाभ होते हैं ।

1. मूलाधार चक्रः इस चक्र का ध्यान धरने वाला साधक अत्यन्त तेजस्वी बन जाता है । उसकी जठराग्नि प्रदीप्त हो जाती है और वह निरोगता प्राप्त करता है । पटुता, सर्वज्ञता और सरलता उसका स्वभाव बन जाता है ।

2. स्वाधिष्ठान चक्रः इस चक्र का ध्यान करने वाला साधक सारे रोगों से मुक्त होकर संसार में सुख से विचरण करता है । वह मृत्यु पर विजय पाता है । उसके शरीर में वायु संचारित होकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है ।

3. मणिपुर चक्रः इसके ध्यान से साधक के समस्त दुःखों की निवृत्ति होती है और उसके सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं । यह काल पर विजय पा लेता है अर्थात् काल को भी चकमा दे सकता है । जैसे – योगी चाँगदेव जी ने काल की वंचना कर चौदह सौ वर्ष तक आयुष्य भोगा था ।

4. अनाहत चक्रः इसके ध्यान से अपूर्व ज्ञान व त्रिकालदर्शिता प्राप्त होती है । स्वेच्छा से आकाशगमन करने की सिद्धि मिलती है । देवताओं व योगियों के दर्शन होते हैं ।

5. विशुद्धाख्य चक्रः इसके ध्यान से चारों वेद रहस्यसहित समुद्र के रत्नवत् प्रकाश देते हैं । इस चक्र में अगर मन लय हो जाय तो मन-प्राण अन्तर में रमण करने लगते हैं । शरीर वज्र से भी कठोर हो जाता है ।

6. आज्ञा चक्रः आज्ञा चक्र में ध्यान करते समय जिह्वा ऊर्ध्वमुखी (तालू की ओर) रखनी चाहिए । इससे सर्व पातकों का नाश होता है । उपरोक्त सभी पाँचों चक्रों के ध्यान का समस्त फल इस चक्र का ध्यान करने से प्राप्त हो जाते हैं । वासना के बंधन से मुक्ति मिलती है ।

7. सहस्रार चक्रः इस सहस्रार पद्म में स्थित ब्रह्मरंध्र का ध्यान धरने से परम गति अर्थात् ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2008, पृष्ठ संख्या मुख्य पृष्ठ का भीतरी पन्ना अंक 181

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

ध्यान का रहस्य


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

ध्यान माने क्या ? हमारा मन नेत्रों के द्वारा जगत में जाता है, सबको निहारता  है तब जाग्रतावस्था होती है, ʹहिताʹ नाम की नाड़ी में निहारता है तब स्वप्नावस्था होती है और जब हृदय में विश्रांति करता है तब सुषुप्तावस्था होती है। ध्यानावस्था न जाग्रतावस्था है, न स्वप्नावस्था है और सुषुप्तावस्था है वरन् ध्यान चित्त की सूक्ष्म वृत्ति का नाम है। सूक्ष्म वृत्ति हो जाने पर शरीर से ʹमैं पनाʹ हट जाता है।

इसका मतलब यह नहीं कि जब ध्यान करते हो तब जड़ हो जाते हो या तुमको कुछ पता नहीं चलता। तुम नाचते हो, गाते हो, रोते हो… उसका ऊपर-ऊपर से पता नहीं चलता है लेकिन अंदर से सब पता चलता है। तुम्हारी ताल से विपरीत कोई ताल देता है तो ध्यान का ताल टूट भी जाता है। ध्यान करने वाला ध्यानावस्था में जड़ नहीं होता है, बेवकूफ नहीं रहता है वरन् उसकी चित्त की वृत्ति सूक्ष्म और आनंद-प्रेमप्रधान हो जाती है। वही वृत्ति जब जाग्रत में आ जाती है तो जाग्रत के व्यवहार में भी ठीक से सँभलकर रहती है।

परमात्म-ध्यान से अंतरात्मा की शक्ति जागृत होती है एवं स्मृतिशक्ति बढ़ती है। ध्यान करने से दुर्गुण दूर होते हैं एवं सदगुण बढ़ते हैं। ध्यान करने से पाप नष्ट होते हैं, निर्भयता बढ़ने लगती है, परमात्मा का सुख उभरता है, परमात्मा का ज्ञान निखरता है। ध्यान करने से परमात्मा का आनन्द आता है और ध्यान दृढ़ होने से  परमात्मा स्वयं प्रगट हो जाते हैं।

चंचल-दुर्बल रहने से भगवान नहीं मिलते, न ही बड़े छोटे होने से भगवान मिलते है। चिंता करने से भी भगवान नहीं मिलते, न ही ʹहा-हा…ही-ही….ʹ करने से भगवान मिलते हैं। भगवान तो मिलते हैं जप-ध्यान से, भक्ति-ज्ञान से।

हम जैसे रोज-रोज खाते हैं, रोज-रोज सोते उठते हैं, रोज-रोज जगत का व्यवहार करते हैं वैसे ही रोज-रोज परमात्मा का ध्यान भी करना चाहिए। रोज-रोज परमात्मा का जप सुमिरन करना चाहिए। रोज-रोज सत्संग-स्वाध्याय करना चाहिए एवं अपने आपको अंतर्मुख करने का यत्न करना चाहिए।

कई लोग ध्यान के समय आँखें खोलकर इधर-उधर देखते रहते हैं, वे उस समय चूक जाते हैं। आँखें खोलकर इधर-उधर निहारने से वृत्ति बहिर्मुख रहती है।

जिसकी वृत्ति अंतर्मुख हो गयी है उसको जप से क्या लेना-देना ? जिसकी वृत्ति शांत हो गयी है, उसको स्वाध्याय के लिए भी वृत्ति को बाहर लाने की जरूरत नहीं है। स्वाध्याय और जप, वृत्ति को अंतर्मुख करने के लिए हैं। कीर्तन भी वृत्ति को अंतर्मुख करने के लिए  है।

जब स्वरूप में निष्ठा हो जाये तो फिर खुली आँख भी समाधि है। जब तक स्वरूप में निष्ठा नहीं हुई, तब तक इष्ट में, भाव में, प्रेम में निष्ठा करके अंतर्मुख होना चाहिए। इष्ट में, भाव में, प्रेम में निष्ठा करके अंतर्मुख हुआ जाता है तो अंतर्मुखता में जो आनंद आता है, वही आत्मा का आनंद है।

ऐसा नहीं है कि भगवान बाद में मिलेंगे। जब-जब मन अंतर्मुख हो जाता है तब-तब आत्मा में लीन हो जाता है, आनंद आता है। जब आनंद आये तो समझो आत्मा के नजदीक हो किन्तु मनोराज हो गया, निद्रा आने लगे तब चित्त को सावधान करना चाहिए। मनोराज, निद्रा या तंद्रा में चित्त न जाये इसके लिए स्वाध्याय, जप, कीर्तन करो एवं आत्मारामी सच्चे महापुरुषों के सान्निध्य में बैठकर ध्यान करो।

चित्त को अंतर्मुख करने के लिए निष्ठा की जरूरत है। छोटे-मोटे विघ्न तो आयेंगे-जायेंगे। फिर चाहे हिमालय की गुफा में जाकर ही क्यों न बैठो ? जीव-जन्तु, पशु आदि तो वहाँ भी तंग करेंगे ही, किन्तु उनकी वजह से हलचल करोगे तो फिर चित्त को शांत कब करोगे ? अतः एकनिष्ठ होकर बैठना चाहिए और एकनिष्ठ भी बोझ बनकर नहीं कि ʹमैं शांत बैठा हूँ।ʹ

कोई आया तो क्या ? कोई गया तो क्या ? किसको कब  तक निहारते रहोगे ? ….और बाहर जो दिखेगा उसका अर्थ तुम अपनी समझ के अनुसार लगाओगे। सही देखना है, सच्चा देखना है तो एकनिष्ठ होकर अंतर्मुख होना चाहिए।

हम जितने अंतर्मुख होते हैं उतनी शक्ति बढ़ती है। जितने संकल्प कम होते हैं उतना सामर्थ्य बढ़ता है। जैसे, जितने बादल हट जाते हैं उतना सूर्य का प्रभाव दिखता है। जितने बादल अधिक आ जाते हैं उतन सूर्य का प्रभाव कम हो जाता है। ऐसे ही आत्मसूर्य है। जितने स्पंदन ज्यादा हैं बादलों की नाईं, उतना आत्मसूर्य का प्रभाव कम दिखता है और जितने संकल्प कम होते हैं उतना प्रभाव ज्यादा दिखता है। वास्तव में आत्मा का तेज घटता बढ़ता नहीं है लेकिन संकल्पों के कारण घटता हुआ लगता है। अतः एकनिष्ठ होकर ध्यानस्थ होना चाहिए।

चाहे भक्ति हो, योग हो या ज्ञान हो, आपकी निष्ठा आपके काम आयेगी। यदि निष्ठा नहीं होगी तो भक्त की भक्ति अधूरी रह जायेगी, योगी का योग अधूरा एवं ज्ञानी का ज्ञान अधूरा रह जायेगा। एकनिष्ठा…. जैसे पतिव्रता स्त्री की पति में निष्ठा होती है वैसे ही साधक की अपने साधन में निष्ठा होनी चाहिए, नहीं तो संसार की माया ऐसी है कि फँसा देती है। भगवान से भी बढ़कर भगवत्प्रीति के साधन में आदरबुद्धि होनी चाहिए। आदरबुद्धि के अभाव में ही साधन में रुचि नहीं होती।

चातक मीन पतंग जब, पिय बिन नहीं रह पाय।

साध्य को पाये बिना, साधक क्यों रह जाय ?

ध्यान का आस्वादन भी वही ले सकता है जिसकी निष्ठा दृढ़ हो।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2000, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 90

ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ