Tag Archives: Sharir Swasthya

Sharir Swasthya

वर्षा ऋतु में कैसे करें स्वास्थ्य की रक्षा ? – पूज्य बापू जी


वर्षा ऋतु में लोग बारिश के पानी में नहाते हैं जो कि हानि करता है । इससे बुढ़ापे में वायुप्रकोप और जोड़ों के दर्द के साथ-साथ गठिया, लकवा (paralysis) आदि होने की सम्भावना बढ़ती है । वर्षा ऋतु में गुनगुने जल से स्नान करें ।

अगर दीर्घजीवी व स्वस्थ रहना है तो बारिश के दिनों में ठीक समय पर ( सुबह 9 से 11 तथा शाम को 5 से 7 बजे के बीच ) भोजन करें और वह परिमित करें अर्थात् जितनी पाचनशक्ति है उससे थोड़ा कम व हलका-फुलका भोजन करें । इस ऋतु में पाचन मंद होता है, थोड़ा भी ज्यादा खायेंगे तो खबर ले लेगा ।

आपकी जठऱाग्नि 2 छोटी-पतली रोटियाँ पचाने की क्षमता रखती है और आप 3 खाते हो तो वे आम (कच्चा रस) बना देंगी, वात बना देंगी, घुटनों के दर्द में मदद करेंगी । अगर आपकी 100 ग्राम पचाने की ताकत है और आप 105 ग्राम खाते हैं तो आम बनेगा, फिर आम वायु के साथ मिलेगा तो भी पीड़ा करेगा, कफ और पित्त के साथ मिलेगा तो भी पीड़ा करेगा ।

आम का इलाज है उपवास । उपवास से शरीर में हलकापन महसूस होगा । (उपवास अपनी प्रकृति के अनुसार करें) । जिसको बुढ़ापा और रोगनाशक बात समझनी है वह ऋषियों की सार बातें अपने जीवन में उतारने का दृढ़ संकल्प करे ।

हमारे गुरुदेव कहते थेः ″अगर पाचनशक्ति से एक कौर भी अधिक या विपरीत आहार खाया तो वह शाम को खबर लेगा, अगले दिन खबर लेगा, 10 दिन के बाद खबर लगा, 10 महीने के बाद खबर लेगा, नहीं तो 10 साल के बाद भी खबर लेगा ।″

बारिश के दिनों में भोजन परिमित करें और बारिश के पानी में स्नान न करें ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 32 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

गीर गायों का स्वर्णक्षारयुक्त बिलोना शुद्ध देशी घी


वर्तमान में देशी गाय का विश्वसनीय शुद्ध घी प्राप्त करना कठिन है । उसमें भी शुद्ध जलवायु एवं खेती द्वारा उगाये गये उत्तम आहार-द्रव्यों का सेवन करने वाली तथा प्रदूषणरहित प्राकृतिक वातावरण में रहने वाली देशी गीर गायों का घी प्राप्त होना तो दुर्लभ ही है परंतु पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू की लोकहितकारी विभिन्न सेवाओं में से एक गौ पालन एवं संवर्धन के कारण यह धरती का दुर्लभ अमृत समाज को उपलब्ध हो रहा है ।

पूज्य बापू जी की चरणरज से पावन हुई श्योपुर आश्रम की भूमि पर रहने वाली उत्तम गीर नस्ल की ये गायें आश्रम की जैविक खेती के माध्यम से भक्तों द्वारा गौ-खाद से उगाये गये चारे से पुष्ट होती हैं । आश्रम के पावन वातावरण में रहने वाली इन पवित्र गौ-माताओं से प्राप्त दूध से पारम्परिक पद्धति से बनाया गया बिलोना घी केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं अपितु मानसिक, बौद्धिक व आध्यात्मिक उन्नतिकारक भी है । इस घी की सात्त्विकता, गुणवत्ता व लाभों का पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता ।

देशी गोघृत-सेवन के लाभः

1 हृदय स्वस्थ व बलवान बनता है । रक्तदाब नियंत्रित रहता है । हृदय की रक्तवाहिनियों की धमनी प्रतिचय (atherosclerosis) से रक्षा करता है । अतः हृदयरोग से रक्षा हेतु तथा हृदय-रोगियों के लिए यह घी अत्यंत लाभदायी है ।

2 इससे ओज की वृद्धि और दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है ।

3 मस्तिष्क की कोशिकाएँ (neurons) पुष्ट हो जाती हैं, जिससे बुद्धि व इन्द्रियों की कार्यक्षमता विकसित होती है । बुद्धि, धारणाशक्ति एवं स्मृति की वृद्धि होती है ।

4 मन का सत्व गुण विकसित होकर चिंता, तनाव, चिड़चिड़ापन, क्रोध आदि दूर होने में मदद मिलती है । मन की एकाग्रता बढ़ती है । साधना में उन्नति होती है ।

5 नेत्रज्योति बढ़ती है । चश्मा, मोतियाबिंद (cataract), काँचबिंदु (glaucoma) व आँखों की अन्य समस्याओं से रक्षा होती है ।

6 हड्डियाँ व स्नायु सशक्त होते हैं । संधिस्थान (joints) लचीले व मजबूत बनते हैं ।

7 कैंसर से लड़ने व उसकी रोकथाम की आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त होती है।

8 रोगप्रतिरोधक शक्ति (immunity power) बढ़कर घातक विषाणुजन्य संक्रमणों (viral infections) से प्रतिकार करने की शक्ति मिलती है ।

9 जठराग्नि तीव्र व पाचन-संस्थान सशक्त होता है । मोटापा नहीं आता, वजन नियंत्रित रहता है । वीर्य पुष्ट होता है । यौवन दीर्घकाल तक बना रहता है ।

10 चेहरे की सौम्यता, तेज एवं सुंदरता बढ़ती है । स्वर उत्तम होता है एवं रंग निखरता है । बाल घने, मुलायम व लम्बे होते हैं ।

11 गर्भवती माँ द्वारा सेवन करने पर गर्भस्थ शिशु बलवान, पुष्ट और बुद्धिमान बनता है ।

इनके अतिरिक्त असंख्य लाभ प्राप्त होते हैं ।

( यह घी संत श्री आशाराम जी आश्रमों में सत्साहित्य सेवा केन्द्रों से व समितियों से प्राप्त हो सकता है । ) (संकलकः प्रीतेश पाटील )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 29 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आयुर्वेद के साहित्य की सुरक्षा व विकास


( आयुर्वेद का अद्भुत प्राकट्य व एलोपैथी की शुरुआत’ गतांक से आगे )

पिछले अंक में आयुर्वेद के अलौकिक प्राकट्य के बारे में जाना कि किस प्रकार भगवान ब्रह्मा जी ने समाधिस्थ होकर आयुर्वेद का स्मरण किया और वह दिव्य ज्ञान पृथ्वी पर अवतरित हुआ । आयुर्वेद शास्त्र के प्रचार-प्रसार को हम चार विभागों में बाँट सकते हैं ।

1 वैदिक कालः इस काल में आयुर्वेद की स्थिति पर्याप्त समुन्नत थी । सामान्य लोग मन में यह धारणा रखते हैं कि हमारे वेद केवल मोक्ष या परमार्थ विषयक ज्ञान प्रदान करते हैं किंतु सच्चाई यह है कि वेद हमारे दिखने वाले जीवन और अदृष्ट जीवन के हर क्षेत्र का ज्ञान अपने में समाये हुए हैं । समस्त ज्ञान ( शास्त्रीय ज्ञान, सैद्धान्तिक ज्ञान या थ्योरेटीकल नॉलेज ) एवं विज्ञान ( प्रायोगिक ज्ञान या जिसका अनुभव किया जा सके ऐसा ज्ञान अथवा प्रेक्टीकल नॉलेज ) का समावेश वेदों में बीजरूप से किया गया है, यहाँ तक कि व्याधियों के हेतु, लक्षण और औषधि का भी ज्ञान वेदों में समाविष्ट है । उस समय सामान्य लोगों को भी आयुर्वेद का सैद्धान्तिक ज्ञान था, जिससे वे देवताओं के समान ओजस्वी, प्रभावशाली, सुंदर वर्णवाले, वर-श्राप देने में समर्थ, सत्य संकल्प, प्रसन्नमना, स्वस्थ और दीर्घायु होते थे । उन्हें शरीर रचना संबंधी ज्ञान उच्च कोटि का था । सम्पूर्ण अवयवों के विभाग और उनके नाम वेदों में मिलते हैं । वैदिक काल में शल्य तंत्र के माध्यम से कृत्रिम अवयवों का निर्माण और उनका प्रत्यारोपण (transplantation) भी होता था । इसके कई उदाहरण आयुर्वेद के वैभवशाली इतिहास में देखने को मिलते हैं । ऋजाश्च की आँखों की रोशनी उनके पिता के श्राप से नष्ट हो गयी थी, अश्विनीकुमारों ने शल्यक्रिया (operation) द्वारा उसे ठीक कर दिया था । राजा खेल की पत्नी विस्पला की जाँघ युद्ध में कट गयी थी, जिसको अश्विनीकुमारों ने लोहे की एक जाँघ लगाकर चलने योग्य बनाया था ।

वेदों में बुखार, चर्मरोग, पीलिया आदि रोगों के उपशमनार्थ औषधियों का उल्लेख मिलता है । भूत और विष के भी शमन का उल्लेख वेदों में मिलता है । आयुर्वेद केवल रोग मिटाने तक सीमित नहीं है बल्कि यह शरीर को स्वस्थ, दीर्घायु, युवा, बल-ओज-तेज-वीर्य से सम्पन्न बनाने का भी ज्ञान प्रदान करते हुए हमारे जीवन के सर्वांगीण कल्याण में अत्यंत सहयोगी बनता है । शरीर की सभी धातुओं को पुष्ट कर ओज व रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हुए युवावस्था प्रदान करने वाले रसायन प्रयोग आयुर्वेद का अनमोल उपहार हैं । यह रसायन चिकित्सा अत्यंत प्राचीन काल से भारत में विद्यमान है । इसके उदाहरण हैं- अश्विनी कुमारों के रसायन प्रयोग द्वारा च्यवन ऋषि तथा कलि नाम के ऋषि और घोषा नाम की ऋषिपत्नी जरामुक्त ( दीर्घकाल तक युवावस्था से युक्त ) हुए थे । च्यवन ऋषि द्वारा सेवन की गयी वह रसायन औषधि ‘च्यवनप्राश’ के नाम से आज पूरे विश्व में सुविख्यात है । पशुचिकित्सालयों, आतुरालयों (चिकित्सालयों) के वर्णन को देखने से प्रतीत होता है कि उस समय आयुर्वेद पूर्ण विकसित था ।

इस प्रकार वेदों में कायचिकित्सा, शल्य चिकित्सा, शालाक्य चिकित्सा (गले के ऊपर के अंगों – आँख, कान, नाक आदि की चिकित्सा ), कौमारभृत्य तंत्र ( बाल चिकित्सा ), भूत विद्या ( मंत्र, होम, पाठ, हवनादि), अगद तंत्र ( विष चिकित्सा ), रसायन तंत्र एवं वाजीकरण तंत्र ( शुक्र धातुवर्धक चिकित्सा ) – इन आयुर्वेद के 8 अंगों का वर्णन मिलता है ।

2 संहिता कालः इस काल का प्रारम्भ आज से लगभग 5000 वर्ष पहले हुआ । युद्धोत्तरकालीन इस परिवेश में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक – विभिन्न आयामों से बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका थ । कर्मठ एवं योग्य व्यक्तियों का अभाव-सा व्याप्त था । परंतु प्राणिमात्र के प्रति आत्मभाव रखते हुए सर्व भूत-प्राणियों के हित में रत हमारे ऋषि-मुनि, निष्काम कर्मयोगी महापुरुषों को परिस्थितियों के आगे घुटने टेकना आता ही नहीं है । फिर क्या था, जिस प्रकार हमारे महर्षि वेदव्यास जी ने वैदिक मंत्रों का वर्गीकरण करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद संहिताएँ बनायीं उसी प्रकार पुनर्वसु आत्रेय आदि ने कलम उठायी और संहिताओं की रचना करके आयुर्वेद की इस दिव्य ज्ञानगंगा को अविरत रूप से प्रवाहित रखा । ये संहिताएँ आयुर्वेद के आठों अंगों पर बनीं परंतु कालांतर में उनका लोप होने लगा । वे इतनी जीर्ण-शीर्ण होने लगीं कि उनको पढ़ने में कठिनाई होने लगी तब उनका प्रतिसंस्कार किया गया । तत्कालीन ऋषियों ने चरक, सुश्रुत, भेल, कश्यप आदि संहिताओं के उपलब्ध अंशों को जोड़-जोड़कर पूरा किया परंतु दुर्भाग्यवश कुछ संहिताएँ विलुप्त हो गयीं । जब आयुर्वेद के क्षेत्र में उच्च कोटि के विद्वानों की कमी रहने लगी तो लोकहित के भाव से ओतप्रोत हमारे मनीषियों ने उपलब्ध अंशों पर टीकाएँ लिखना शुरु किया । जब इन टीकाओं को समझने की प्रतिभा का भी समाज में लोप होने लगा तो उनके ऊपर प्रतिटीकाओं की रचना की गयी । जैसे चरक संहिता के मूल ग्रंथ अग्निवेश तंत्र की रचना ऋषि अग्निवेश ने की थी, जिसका प्रतिसंस्कार आचार्य चरक और दृढ़बल द्वारा हुआ था । उसके बाद अलग-अलग आचार्यों ने उस पर टीकाएँ-प्रतिटीकाएँ लिखीं । इस प्रकार ऋषि मुनियों एवं विद्वानों के महत्प्रयासों से अमूल्य आयुर्वेद साहित्य को प्रचुर बनाने का कार्य सतत चालू रहा और इस ज्ञान-सरिता में अवरोध न आने पाया । ( क्रमशः )

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 354

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ