( आयुर्वेद का अद्भुत प्राकट्य व एलोपैथी की शुरुआत’ गतांक से आगे )
पिछले अंक में आयुर्वेद के अलौकिक प्राकट्य के बारे में जाना कि किस प्रकार
भगवान ब्रह्मा जी ने समाधिस्थ होकर आयुर्वेद का स्मरण किया और वह दिव्य ज्ञान
पृथ्वी पर अवतरित हुआ । आयुर्वेद शास्त्र के प्रचार-प्रसार को हम चार विभागों में
बाँट सकते हैं ।
1 वैदिक कालः इस काल में आयुर्वेद की स्थिति पर्याप्त समुन्नत थी । सामान्य
लोग मन में यह धारणा रखते हैं कि हमारे वेद केवल मोक्ष या परमार्थ विषयक ज्ञान
प्रदान करते हैं किंतु सच्चाई यह है कि वेद हमारे दिखने वाले जीवन और अदृष्ट जीवन
के हर क्षेत्र का ज्ञान अपने में समाये हुए हैं । समस्त ज्ञान ( शास्त्रीय ज्ञान,
सैद्धान्तिक ज्ञान या थ्योरेटीकल नॉलेज ) एवं विज्ञान ( प्रायोगिक ज्ञान या जिसका
अनुभव किया जा सके ऐसा ज्ञान अथवा प्रेक्टीकल नॉलेज ) का समावेश वेदों में बीजरूप
से किया गया है, यहाँ तक कि व्याधियों के हेतु, लक्षण और औषधि का भी ज्ञान वेदों
में समाविष्ट है । उस समय सामान्य लोगों को भी आयुर्वेद का सैद्धान्तिक ज्ञान था,
जिससे वे देवताओं के समान ओजस्वी, प्रभावशाली, सुंदर वर्णवाले, वर-श्राप देने में
समर्थ, सत्य संकल्प, प्रसन्नमना, स्वस्थ और दीर्घायु होते थे । उन्हें शरीर रचना
संबंधी ज्ञान उच्च कोटि का था । सम्पूर्ण अवयवों के विभाग और उनके नाम वेदों में
मिलते हैं । वैदिक काल में शल्य तंत्र के माध्यम से कृत्रिम अवयवों का निर्माण और
उनका प्रत्यारोपण (transplantation) भी होता था ।
इसके कई उदाहरण आयुर्वेद के वैभवशाली इतिहास में देखने को मिलते हैं । ऋजाश्च की
आँखों की रोशनी उनके पिता के श्राप से नष्ट हो गयी थी, अश्विनीकुमारों ने
शल्यक्रिया (operation) द्वारा उसे
ठीक कर दिया था । राजा खेल की पत्नी विस्पला की जाँघ युद्ध में कट गयी थी, जिसको
अश्विनीकुमारों ने लोहे की एक जाँघ लगाकर चलने योग्य बनाया था ।
वेदों में बुखार, चर्मरोग, पीलिया आदि रोगों के उपशमनार्थ औषधियों का उल्लेख मिलता है । भूत और विष के
भी शमन का उल्लेख वेदों में मिलता है । आयुर्वेद केवल रोग मिटाने तक सीमित नहीं है
बल्कि यह शरीर को स्वस्थ, दीर्घायु, युवा, बल-ओज-तेज-वीर्य से सम्पन्न बनाने का भी
ज्ञान प्रदान करते हुए हमारे जीवन के सर्वांगीण कल्याण में अत्यंत सहयोगी बनता है
। शरीर की सभी धातुओं को पुष्ट कर ओज व रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हुए युवावस्था
प्रदान करने वाले रसायन प्रयोग आयुर्वेद का अनमोल उपहार हैं । यह रसायन चिकित्सा
अत्यंत प्राचीन काल से भारत में विद्यमान है । इसके उदाहरण हैं- अश्विनी कुमारों
के रसायन प्रयोग द्वारा च्यवन ऋषि तथा कलि नाम के ऋषि और घोषा नाम की ऋषिपत्नी
जरामुक्त ( दीर्घकाल तक युवावस्था से युक्त ) हुए थे । च्यवन ऋषि द्वारा सेवन की
गयी वह रसायन औषधि ‘च्यवनप्राश’ के नाम से आज पूरे विश्व में सुविख्यात है ।
पशुचिकित्सालयों, आतुरालयों (चिकित्सालयों) के वर्णन को देखने से प्रतीत होता है
कि उस समय आयुर्वेद पूर्ण विकसित था ।
इस प्रकार वेदों में कायचिकित्सा, शल्य चिकित्सा, शालाक्य चिकित्सा (गले के
ऊपर के अंगों – आँख, कान, नाक आदि की चिकित्सा ), कौमारभृत्य तंत्र ( बाल चिकित्सा
), भूत विद्या ( मंत्र, होम, पाठ, हवनादि), अगद तंत्र ( विष चिकित्सा ), रसायन
तंत्र एवं वाजीकरण तंत्र ( शुक्र धातुवर्धक चिकित्सा ) – इन आयुर्वेद के 8 अंगों का
वर्णन मिलता है ।
2 संहिता कालः इस काल का प्रारम्भ आज से लगभग 5000 वर्ष पहले हुआ ।
युद्धोत्तरकालीन इस परिवेश में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक – विभिन्न
आयामों से बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका थ । कर्मठ एवं योग्य व्यक्तियों का अभाव-सा
व्याप्त था । परंतु प्राणिमात्र के प्रति आत्मभाव रखते हुए सर्व भूत-प्राणियों के
हित में रत हमारे ऋषि-मुनि, निष्काम कर्मयोगी महापुरुषों को परिस्थितियों के आगे
घुटने टेकना आता ही नहीं है । फिर क्या था, जिस प्रकार हमारे महर्षि वेदव्यास जी
ने वैदिक मंत्रों का वर्गीकरण करके ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद संहिताएँ
बनायीं उसी प्रकार पुनर्वसु आत्रेय आदि ने कलम उठायी और संहिताओं की रचना करके
आयुर्वेद की इस दिव्य ज्ञानगंगा को अविरत रूप से प्रवाहित रखा । ये संहिताएँ
आयुर्वेद के आठों अंगों पर बनीं परंतु कालांतर में उनका लोप होने लगा । वे इतनी
जीर्ण-शीर्ण होने लगीं कि उनको पढ़ने में कठिनाई होने लगी तब उनका प्रतिसंस्कार
किया गया । तत्कालीन ऋषियों ने चरक, सुश्रुत, भेल, कश्यप आदि संहिताओं के उपलब्ध
अंशों को जोड़-जोड़कर पूरा किया परंतु दुर्भाग्यवश कुछ संहिताएँ विलुप्त हो गयीं ।
जब आयुर्वेद के क्षेत्र में उच्च कोटि के विद्वानों की कमी रहने लगी तो लोकहित के
भाव से ओतप्रोत हमारे मनीषियों ने उपलब्ध अंशों पर टीकाएँ लिखना शुरु किया । जब इन
टीकाओं को समझने की प्रतिभा का भी समाज में लोप होने लगा तो उनके ऊपर प्रतिटीकाओं
की रचना की गयी । जैसे चरक संहिता के मूल ग्रंथ अग्निवेश तंत्र की रचना ऋषि
अग्निवेश ने की थी, जिसका प्रतिसंस्कार आचार्य चरक और दृढ़बल द्वारा हुआ था । उसके
बाद अलग-अलग आचार्यों ने उस पर टीकाएँ-प्रतिटीकाएँ लिखीं । इस प्रकार ऋषि मुनियों
एवं विद्वानों के महत्प्रयासों से अमूल्य आयुर्वेद साहित्य को प्रचुर बनाने का
कार्य सतत चालू रहा और इस ज्ञान-सरिता में अवरोध न आने पाया । ( क्रमशः )
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2022, पृष्ठ संख्या 30, 31 अंक 354
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