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सुखमय जीवन की अनमोल कुंजियाँ


समस्त रोगनाशक उपाय

स्वास्थ्यप्राप्ति हेतु सिर पर हाथ रख के या संकल्प कर इस मंत्र का 108 बार उच्चारण करें-

अच्युतानन्तगोविन्दनामोच्चारणभेषजात् ।

नश्यन्ति सकला रोगाः सत्यं सत्यं वदाम्यम् ।।

‘हे अच्युत ! हे अनंत ! हे गोविन्द ! – इस नामोच्चारणरूप औषध से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं, यह मैं सत्य कहता हूँ…. सत्य कहता हूँ ।

ज्वरनाशक मंत्र

इस मंत्र के जप से ज्वर दूर होता हैः

ॐ भंस्मास्त्राय विद्महे । एकदंष्ट्राय धीमहि । तन्नो ज्वरः प्रचोदयात् ।।

बुखार दूर करने हेतु…

चरक संहिता के चिकित्सा स्थान में ज्वर (बुखार) की चिकित्सा का विस्तृत वर्णन करने के बाद अंत में आचार्य श्री चरक जी ने कहा हैः

विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुम् ।।

स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान् सर्वानपोहति ।

‘हजार मस्तक वाले, चर-अचर के स्वामी, व्यापक भगवान की सहस्रनाम का पाठ करने से सब प्रकार के ज्वर छूट जाते हैं ।’

(पाठ रुग्ण स्वयं अथवा उसके कुटुम्बी करें । ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ पुस्तक नजदीकी संत श्री आशाराम जी आश्रम में व समितियों के सेवाकेन्द्रों से प्राप्त हो सकती है ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 33 अंक 342

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हरिनाम का उच्चारण क्यों ? – पूज्य बापू जी


‘हरि ॐ, हरि ॐ…’ जब की बड़ी भारी महिमा है । सबसे प्राचीन और महान ग्रंथ वेद है । वेदपाठ पुण्यदायी, पवित्र माना जाता है और वातावरण को पवित्र करता है । ऐसे वेदपाठ के आरम्भ में ‘हरि ॐ… का उच्चारण करते हैं-

हरिः ॐ… यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।… (यजुर्वेदः अध्याय 31, मंत्र 16)

और वेदपाठ पूर्ण होने के बाद भी ‘हरि ॐ…’ उच्चारण द्वारा भगवान के नाम का घोष किया जाता है, क्यों ? वेदपाठ निर्विघ्न पूरा हो इसलिए पहले ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है और वेदपाठ में उच्चारण कहीं गलती रह गयी तो त्रुटि की क्षम्यता और पाठ की पूर्णता हो इसलिए आखिर में ‘हरि ॐ’ का उच्चारण किया जाता है । वेद तो उत्तम है किंतु भगवान का नाम परम उत्तम है । जो हमारे पाप-ताप, दुःख-दरिद्रता को हर ले और शांति, माधुर्य व अपना स्वभाव भर दे वही हरि का नाम है ।

हरति पातकानि दुःखानि शोकानि इति श्रीहरिः ।

वेदपाठ जैसा पवित्र कार्य करने में भी हरिॐ मंत्र का सहयोग इतनी मदद करता है तो अपने जो सत्संग हैं उनमें भी आरम्भ में ‘हरि ॐ…’ का उच्चारण किया जाता है तो विघ्न बाधा दूर रहते हैं, साथ ही जो सत्संग सुनते हैं उनको पूर्ण शांति, पूर्ण सूझबूझ और पूर्ण प्रभु की कृपा का अनुभव होने में भी हरिनाम का बड़ा योगदान रहता है ।

शुक्राचार्य जी भगवान श्रीहरि से कहते हैं-

मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं देशकालार्हवस्तुतः ।

सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसङ्कीर्तनं तव ।।

‘मंत्रों की, अनुष्ठान पद्धति की, देश (स्थान), काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नाम-संकीर्तन मात्र से सुधर जाती हैं । आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है ।’ (श्रीमद्भागवतः 8.23.16)

अब विज्ञान भी गा रहा है महिमा

डॉ. डायमंड, डॉ. लिवर लिजेरिया, मिसेस वॉटस ह्यूजेस, मैडम फिनलैंग तथा अन्य वैज्ञानिक बोलते हैं कि हरि ॐ आदि मंत्रों के उच्चारण से शरीर के विभिन्न भागों पर भिन्न-भिन्न असर पड़ता है । भारत का मंत्र विज्ञान बड़ा प्रभावशाली है और इससे रोग भी मिटाये जा सकते हैं ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने तो 17 वर्षों के अन्वेषण के अनुभव के पश्चात यह खोज निकाला कि ‘हरि’ के साथ ‘ॐ’ शब्द को मिलाकर उच्चारण किया जाय तो पाँच ज्ञानेन्द्रियों पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ता है एवं निःसंतान व्यक्ति को मंत्र के बल से संतान दी जाती सकती है जबकि हमारे भारत के ऋषि-मुनियों ने इससे भी अधिक जानकारी हजारों लाखों वर्ष पहले शास्त्रं में वर्णित कर दी है । हजारों वर्ष पूर्व हमारे साधु संत जो कर सकते थे उस बात पर विज्ञान अभी कुछ-कुछ खोज कर रहा है ।

डॉ. लिवर लिजेरिया ने मंत्र के प्रभाव की खोज केवल भौतिक या स्थूल शरीर तक ही की है जबकि हमारे ऋषियों ने आज से लाखों वर्ष पूर्व केवल स्थूल शरीर तक ही मंत्र के प्रभाव को नहीं खोजा वरन् इससे भी आगे कहा है कि यह भौतिक शरीर अन्नमय कोष कहलाता है, इसके अंदर 4 शरीर (कोष) और भी हैं- 1. प्राणमय 2. मनोमय 3. विज्ञानमय 4 आनंदमय । इन सबको चेतना देने वाला चैतन्यस्वरूप है । तो उस चैतन्यस्वरूप की भी खोज कर ली है ।

भगवन्नाम (‘हरि ॐ’ आदि) के जप से पाँचों कोषों, समस्त नाड़ियों एवं सातों केन्द्रों पर बड़ा सात्त्विक प्रभाव पड़ता है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2021, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 338

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शांतिपाठ के अंत में ‘ॐ’ के बाद 3 बार ‘शांति’ उच्चारण क्यों ?


शुभ कार्यों आरम्भ में गाये जाने वाले मंगलाचरण या शांतिपाठ से सुस्पष्ट होता है कि मनुष्यमात्र सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति के लिए सदा प्रयत्नशील है । दुःख तीन प्रकार के होते हैं और शांतिपाठ का उद्देश्य इन तीनों प्रकार के दुःखों से मुक्त होने का है । इसी से शांतिपाठ के अंत में ‘ॐ’ के बाद ‘शांति’ का उच्चारण तीन बार किया जाता है ।

पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “शांतिपाठ के अंत में बोलते हैं – ॐ शांतिः शांतिः शांतिः । ‘शांति’ 5 बार नहीं बोलते हैं, 2 बार भी नहीं बोलते, 3 बार बोलते हैं । 3 प्रकार की अशांति होती हैः आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक ।

गाड़ी में जाना है, गाड़ी नहीं मिल रही है – बड़ी तकलीफ है अथवा व्यक्तिगत या पारिवारिक कुछ समस्या आ गयी है जैसे – शरीर में रोग हो, हार-जीत हो, नौकरी-धंधा नहीं है, खूब भख लगी है और रोटी नहीं है…. यह आधिभौतिक अशांति है । कुछ आँधी-तूफान आ गया, बिनजरूरी बरसात हो गयी, अकाल अतिवृष्टि, प्राकृतिक उथल-पुथल…. यह आधिदैविक अशांति है । मानसिक अशांति, उद्वेग, विकार दुःख-चिंता आदि आध्यात्मिक अशांति है ।

शांतिपाठ के अंत में ‘ॐ’ के बाद पहला ‘शांति’ आधिभौतिक शांति के लिए, दूसरा ‘शांति’ शब्द आधिदैविक शांति के लिए और तीसरा ‘शांति’ आध्यात्मिक शांति के लिए बोला जाता है ।

ये 3 शांतियँ तो आती जाती रहती हैं, सारी जिंदगी खप जाती है लेकिन एक बार भगवत्कृपा से परम शांति मिल जाय तो ये 3 प्रकार की शांतियाँ आयें-जायें, तुम्हारे को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, भगवत्शांति इतनी ऊँचाइयों पर ले जाती है ।

यजुर्वेद (अध्याय 36, मंत्र 17) में प्रार्थना हैः-

ॐ द्यौः शांतिरन्तरिक्षँ शांतिः पृथिवी शांतिरापः शान्तिरोषधयः शांतिः ।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वँ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधिः ।।

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

इसका अर्थ हैः स्वर्गलोक, अंतरिक्षलोक तथा पृथ्वी लोक शांति प्रदान करें । जल शांतिप्रदायक हो । औषधियाँ तथा वनस्पतियाँ शान्तिप्रदायक हों । सभी देवगण शांति प्रदान करें । सर्वव्यापी परमात्मा सम्पूर्ण जगत में शांति स्थापित करें । सब पदार्थ शांतिप्रद हों । और यह लौकिक शांति मुझे आत्मिक शांति का प्रसाद दे । जो शांति मुझे प्राप्त हो वह सभी को प्राप्त हो ।’

तो आत्मिक शांति, परम शांति प्राप्त करें । त्रिविध ताप की निवृत्ति परम शांति से प्राप्त होती है । शांति के सिवाय जो भी प्राप्त होगा वह फँसने की चीज होगी, शांति मुक्तिदायिनी है । शांति के सिवाय जो मिलेगा वह बिछुड़ जायेगा । शांति अपना स्वरूप है । जो अपना स्वरूप है वह शाश्वत है और अपना स्वरूप नहीं है वह मिटने वाला नश्वर है ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2021, पृष्ठ संख्या 22 अंक 337

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