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आत्मिक धन बढ़ाने का काल – पूज्य बापू जी


12 जुलाई 2019 से 8 नवम्बर 2019 तक

देवशयनी एकादशी से देवउठी एकादशी तक के 4 महीने भगवान नारायण योगनिद्रा में ध्यानमग्न रहते हैं । से सर्दियों में हिमालय में बर्फ पड़ती है तो भारत के कई हिस्सों का वातावरण भी ठंडा हो जाता है । ऐसे ही चतुर्मास में भगवान नारायण आत्मशांति में समाधिस्थ रहते हैं तो वातावरण में सात्तविकता ज्यादा रहती है । यह वातावरण दूसरों को भी ध्यान-भजन करने और मौन-शांत होने में मददगार हो जाता है । जैसे सर्दियों के दिनों में सर्दी का खुराक (भोजन) अच्छा पचता है, ऐसे ही ध्यान-भजन करने वालों को इन दिनों में ध्यान-भजन ज्यादा फलेगा । चतुर्मास में बादल, बरसात की रिमझिम, प्राकृतिक सौंदर्य का लहलहाना – यह सब साधन भजनवर्धक है, उत्साहवर्धक है । इसीलिए इन दिनों में अनुष्ठानन, जप, मौन का ज्यादा महत्त्व है । चतुर्मास में तो सहज में ही साधक के हृदय में भगवद्-आनंद आ जाता है ।

चतुर्मास में क्या करें, क्या न करें

चतुर्मास ईर्ष्यारहित होना चाहिए । इन दिनों में परनिंदा सुनने व करने से अन्य दिनों की अपेक्षा बड़ा भारी पाप लगता है । शास्त्र कहते हैं-

पर निंदा सम अघ न गरीसा । (श्री रामचरित. उ.कां. 120.19)

इसलिए परनिंदा का विशेषरूप से त्याग करें । पत्तल में भोजन करना पुण्यदायी है लेकिन पत्तल पर आजकल लेमिनेशन करते हैं, उसमें क्या-क्या गंदी चीजें पड़ती हैं ! लेमिनेशन बिना की पलाश पत्तों की पत्तल अथवा बड़ के पत्तों पर अगर कोई भोजन करता है तो उसे यज्ञ करने का फल होता है ।

स्नान करते समय पानी की बाल्टी में 2-4 बिल्वपत्र डाल दें और ‘ॐ नमः शिवाय ।….’ जप करके नहायें अथवा थोड़े तिल व सूखे आँवले का चूर्ण पानी में डाल के ‘गंगे यमुने….’ करके नहायें, शरीर को रगड़ें, तो यह तीर्थ-स्नान और पुण्यदायी स्नान माना जाता है । यह शरीर की बीमारियों को भी मिटाता है और पुण्य व प्रसन्नता भी बढ़ाता है ।

इन 4 महीनों में शादी और सकाम कर्म मना हैं । पति-पत्नी का संसार-व्यवहार स्वास्थ्य के लिए खतरे से खाली नहीं है । अगर करेंगे तो कमजोर संतान पैदा होगी और स्वयं भी कमजोर हो जायेंगे ।

शाश्वत की उपासना का सुवर्णकाल

इन दिनों आसमान में बादल रहते हैं, हवामान ऐसा रहता है कि ज्यादा अन्न पचता नहीं इसलिए एक समय भोजन किया जाता है । जो जीवनीशक्ति भोजन पचाने में लगती है, एक समय भोजन करने वाले की वह शक्ति कम खर्च होती है तो वह उसे भजन करने में लगाये, जीवनदाता के तत्त्व का अनुभव करने में लगाये ।

दूसरी बात, ध्यान व जप करने वाले लोग यह बात समझ लें कि चतुर्मास में उपासना तो करनी ही है । नश्वर के लिए तो 8 महीने करते हैं, ये 4 महीने तो परमात्मा के लिए करें, शाश्वत के लिए करें । इन महीनों में छोटा-बड़ा कोई न कोई नियम ले सकते हैं । ईश्वर को आप कुछ नहीं दे सकें तो प्यार तो दे सकते हैं । ईश्वर को प्यार करने में, अपना मानने में, वेदांत का सत्संग सुनने में आप स्वतंत्र हैं । अपने को ईश्वर का और ईश्वर को अपना मानने से स्नेह, पवित्र प्यार व आनंद उभरेगा । आप संकल्प कर लीजिये कि चतुर्मास में इतनी माला तो जरूर करूँगा । इतनी देर मौन रहूँगा । इतना यह साधन अवश्य करूँगा….।’ इस प्रकार कोई नियम लेकर आप अपना आत्मिक धन बढ़ाने का संकल्प कर लो । ॐ ॐ ॐ…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2019, पृष्ठ संख्या 12,17 अंक 318

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मन को शान्त करने के उपाय-पूज्य बापू जी


किसी भी प्रकार का व्याधि होने पर उस व्याधि की औषधि लेने के साथ मन को भी शान्त करने के प्रयास करने चाहिए। वर्तमान समय में बहुत सारे रोगों का कारण अशांत मन है। स्वप्नदोष, श्वेतप्रदर, अनियमित मासिक धर्म, अनियंत्रित रक्तदाब (Uncontrolled B.P.), मधुमेह (Diabetese), दमा, जठर में अल्सर, मंदाग्नि, अम्लपित्त (Hyper Acidity), अतिसार, अवसाद (Depression), मिर्गी, उन्माद (पागलपन) और स्मरणशक्ति का ह्रास जैसे अनेक रोगों का कारण मन की अशांति है।

चित्त (मन) में संकल्प-विकल्प बढ़ते हैं तो चित्त अशांत रहता है, जिससे प्राणों का लय अच्छा नहीं रहता, तालबद्ध नहीं रहता। अनेक कार्यों में हमारी असफलता का यही कारण है।

हमारे देश के ब्रह्मवेत्ता, जीवन्मुक्त संतों ने मन को शांत करने के विभिन्न उपाय बतलाये हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख, चुनिंदा उपाय इस प्रकार हैः

1.उचित आहारः मन को वश करने के लिए, शांत करने के लिए सर्वप्रथम आहार पर नियंत्रण होना आवश्यक है। जैसा अन्न खाते हैं, हमारी मानसिकता का निर्माण भी वैसा ही होता है। इसलिए सात्त्विक, शुद्ध आहार का सेवन करना अनिवार्य है। अधिक भोजन करने से अपचन की स्थिति निर्मित होती है, जिससे नाड़ियों में कच्चा रस ‘आम’ बहता है, जो हमारे मन के संकल्प-विकल्पों में वृद्धि करता है। फलतः मन की अशांति में वृद्धि होती है। अतएव भूख से कम आहार लें। भोजन समय पर करें। रात को जितना हो सके, अल्पाहार लें। तला हुआ, पचने में भारी व वायुकारक आहार के सेवन से सदैव बचना चाहिए। साधक को चाहिए कि वह कब्ज का निवारण करके सदा ही पेट साफ रखे।

2.अभ्यास, वैराग्य व ब्रह्मचर्यः भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा हैः

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

अभ्यास और वैराग्य से मन शान्त होता है। वैराग्य दृढ़ बनाने के लिए इन्द्रियों का अनावश्यक प्रयोग न करें, अनावश्यक दर्शन-श्रवण से बचें। समाचार पत्रों की व्यर्थ बातों व टी.वी., रेडियो या अन्य बातों में मन न लगायें। ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से अधिकाधिक पालन करें।

3.आसन-प्राणायामः इन्द्रियों का स्वामी मन है और मन का स्वामी प्राण है। प्राण जितने अधिक सूक्ष्म होंगे, मन उतना ही अधिक शांत रहेगा। प्राण सूक्ष्म बनाने के लिए नियमित आसन-प्राणायाम करें। पद्मासन, सिद्धासन, पादपश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन, मयूरासन, ताड़ासन, वज्रासन एवं अन्यान्य आसनों का नियमित अभ्यास स्वास्थ्य और एकाग्रता के लिए हितकारी है, सहायक है। आसन-प्राणायाम के 25-30 मिनट बाद ही किसी आहार अथवा पेय पदार्थ का सेवन करें। प्राणायाम का अभ्यास खाली पेड़ ही करें अथवा भोजन के 3-4 घंटे के बाद ही करें। प्राणायाम का अभ्यास आरम्भ में किन्हीं अनुभवनिष्ठ योगी महापुरुष के मार्गदर्शन में करना चाहिए।

(विभिन्न आसनों की सचित्र जानकारी हेतु पढ़ें आश्रम व समिति के सेवाकेन्द्रों पर उपलब्ध पुस्तक ‘योगासन’। – संकलक)

4.श्वासोच्छवास की गिनतीः सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर श्वासोच्छवास की गिनती करें। इसमें न तो श्वास गहरा लेना है और न हो रोकना है। केवल जो श्वास चल रहा है, उसे गिनना है। श्वास की गणना कुछ ऐसे करें-

श्वास अंदर जाय तो ‘राम….’, बाहर निकले तो ‘1’… श्वास अंदर जाय तो ‘आनंद’…. बाहर निकले तो ‘2’…. श्वास अंदर जाय तो ‘शांति’…. बाहर निकले तो ‘3’…. इस प्रकार की गणना जितनी शांति, सतर्कता से करेंगे, हिले बिना करेंगे उतनी एकाग्रता होगी, उतना सुख शांति, प्रसन्नता और आरोग्य का लाभ होगा।

5.त्राटकः मन को वश करने का अगला उपाय है त्राटक। अपने इष्टदेव, स्वास्तिक, ॐकार अथवा सदगुरु की तस्वीर को एकटक देखने का अभ्यास बढ़ायें। फिर आँखें बंद कर उसी चित्र का भ्रूमध्य में अथवा कंठ में ध्यान करें।

6.जप-अनुष्ठानः मंत्रजप का अधिक अभ्यास करें। वर्ष में 1-2 जपानुष्ठान करें तथा पवित्र आश्रम, पवित्र स्थान में थोड़े दिन निवास करें।

7.क्षमायाचना करना एवं शांत होनाः मन की शांति अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है अतएव जाने-अनजाने में हुए अपराधों के बदले में सदगुरु या भगवान की तस्वीर अपने पास रखकर अथवा ऐसे ही मन-ही-मन प्रायश्चितपूर्वक उनसे क्षमा माँगना एवं शांत हो जाना भी एक चिकित्सा है।

8.आत्मचिंतनः आत्मचिंतन करते हुए देहाध्यास को मिटाते रहें। जैसे कि मैं आत्मस्वरूप हूँ…. तंदुरुस्त हूँ…. मुझे कोई रोग नहीं है। बीमार तो शरीर है। काम, क्रोध जैसे विकार तो मन में हैं। मैं शरीर नहीं, मन नहीं, निर्विकारी आत्मा हूँ। हरि ॐ…. आनंद…. आनंद….

9.प्रसन्नताः हर रोज प्रसन्न रहने का अभ्यास करें। किसी बंद कमरे में जोर से हँसने (देव-मानव हास्य प्रयोग) और सीटी बजाने का अभ्यास करें।

इन 9 बातों का जो मनुष्य दृढ़तापूर्वक पालन करता है, वह निश्चय ही अपने मन को वश में कर लेता है। आप भी अपने मन को सुखमय, रसमय, अनासक्त, एकाग्र करते हुए अपने सदा रहने वाले आत्मस्वरूप में जग जाओ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2018, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 308

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बेमन का भगवन्नाम भी करता है अपना काम


एक बार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कुछ युवकों के साथ कारागृह की कालकोठरी में बैठे हुए थे। उनमें से जो विशेष तार्किक थे उन्होंने पूछाः “ब्रह्मचारी जी ! यह हमारी समझ में नहीं आता कि आप बेमन से भी जो ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी ! हे नाथ नारायण वासुदेव !’ कहते हैं, इससे क्या लाभ ? इससे भी कुछ हो सकता है ?” कैदियों को कारागृह में रस्सी बटने का काम दिया गया था।

ब्रह्मचारी ने पूछाः “तुम जब रस्सी बटते हो तो क्या तुम्हारा मन बिल्कुल रस्सी बटने में लगा रहता है या और भी कुछ सोचता रहता है ?”

“बहुत बातें सोचता रहता है। केवल हाथ से रस्सी बटते हैं, मन तो भटकता ही रहता है।”

“अच्छा तो क्या ऐसी हालत में काम पूरा हो जाता है ?”

“हाँ, काम तो हो ही जाता है।”

“तुम भोजन करते हो तब तुम्हारा मन बिल्कुल एकाग्र होकर भोजन में ही लगा रहता है ?”

“नहीं, मन तो इधर-उधर भटकता रहता है।”

“तो क्या ऐसी हालत में तुम्हारा पेट भर जाता है ?”

“हाँ, पेट भरने में क्या संदेह है ? रोटी मुँह की जगह नाक में कभी नहीं जाती।”

ब्रह्मचारी जी ने फिर पूछाः “जब तुम स्कूल कालेज में पढ़ते थे तो तुम्हारा चित्त एकदम अध्यापक के व्याख्यान में ही लग जाता था या व्याख्यान सुनते-सुनते मन कुछ और भी सोचने लगता था ?”

“बहुधा मन व्याख्यान सुनते-सुनते और भी अनेक बातें सोचता था। निर्विकल्प होकर व्याख्यान में ही चित्त तो कभी ही लगा होगा।”

“फिर ऐसे व्याख्यान सुनते-सुनते भी तुम पास हो जाते थे।” उन्होंने इसे स्वीकार किया।

असली बात यह है कि बिना मन के तो मुख से कभी शब्द निकल ही नहीं सकता। मन की कई शक्तियाँ हैं। एक मन तो संकल्प-विकल्प करता ही है, अपनी दूसरी शक्ति से वह इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। बिना मन की सहायता के आँखें देख नहीं सकतीं, कान सुन नहीं सकते, वाणी उच्चारित नहीं हो सकती। मन का सहारा तो इनको भी चाहिए।

मन न भी लगे तो भी अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे मन के संकल्प-विकल्प कम होने लगते हैं और एकाग्रता भी बढ़ती है। चित्त लगाकर  एकाग्रता के साथ जो भगवन्नाम जप और कीर्तन किया जाता है वह विशेष लाभप्रद है, आनंद देता है किन्तु बिना मन के भी भगवन्नाम जपना निरर्थक नहीं है। इससे भी बहुत लाभ होते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 24 अंक 300

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