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ॐकार की महिमा का ग्रंथः प्रणववाद


पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से

एक सूरदास (प्रज्ञाचक्षु) ब्राह्मण थे धनराज पंडित। वे साधु हो गये। काशी में भगवानदास डॉक्टर बड़ा धर्मात्मा था। धनराज पंडित उसके क्लीनिक पर गये और बोलेः “डॉक्टर साहब ! ॐ नमो नारायणाय। मैं भूखा हूँ। आज आपके घर भिक्षा मिल जायेगी क्या ?”

“जरा रुकिये पंडित जी !”

पीछे घर था। पत्नी को बताया तो पत्नी बोलीः “स्नान करके अभी रसोई घर में आयी हूँ। एक घंटा लगेगा।”

डॉक्टर ने कहाः “पंडित जी ! घूम-फिरकर आइये, एक घंटे के बाद यहाँ भोजन मिल जायेगा।”

“एक घंटा मैं कहाँ लकड़ी टेककर घूमूँगा। आपके क्लीनिक में बैठने की जगह अगर दे सको तो मैं एक घण्टा यही गुजार लूँगा।”

“अच्छा बैठो।”

वे वहाँ बैठ गये। डॉक्टर बोलाः “ॐकार की बड़ी महिमा है, ऐसा लोग बोलते हैं। क्या ॐकार के विषय में आप कुछ जानते हैं महाराज ?”

“अरे, ॐकार तो आदिमूल परब्रह्म परमात्मा का अपौरुषेय शब्द है। अन्य शब्द टकराव से पैदा होते हैं, यह स्वाभाविक अनहद नाद है।”

वे महात्मा ॐकार पर ऐसा बोले कि डॉक्टर बोलाः “ॐकार पर इतना सारा !….”

“हाँ ! हम क्या, गार्ग्यान ऋषि ने ॐकार पर इतनी सुंदर व्याख्या की है कि जिसका एक पूरा ग्रंथ है !”

“वह ग्रन्थ कहाँ मिलेगा ?”

“अभी नहीं मिलेगा, अप्राप्य है।”

“आप तो उसके श्लोक बोल रहे हैं !”

“हाँ, पहले वह ग्रंथ था। उसके आधार पर बोल रहे हैं।”

डॉक्टर प्रतिदिन उन्हें बुलाने लगा। धीरे-धीरे निकटता बढ़ी।

डॉक्टर ने पूछाः “मैं एक विद्वान बुला लूँ, ताकि आप बोलते जायेंगे और वह लिखता जायेगा ?”

“कोई बात नहीं।” महात्मा ने कहा।

वे बोलते गये और विद्वान लिखता गया। बाईस हजार श्लोक बोल डाले उन सूरदास ने।

थियोसोफिकल सोसायटीवालों ने बाईस हजार श्लोकों का वह ग्रंथ ‘प्रणववाद’ अपने ग्रंथालय में रखा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 22 अंक 222

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उद्यमः साहसं…..


आदि से पग-पग पर परमात्म-सहायता और आनंद का अनुभव करो

धैर्यशील व्यक्ति का मस्तिष्क सदा शांत रहता है। उसकी बुद्धि सदा ठिकाने पर रहती है। उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम इन दैवी गुणों से युक्त व्यक्ति आपदाओं और विफलताओं से भय नहीं खाता। अपने को मजबूत बनाने के लिए वह अनेकों उपाय खोज निकालता है।

उपरोक्त छः गुण सात्विक गुण है। जब तक इनका सम्पादन न कर लिया जाय, तब तक लौकिक या पारमार्थिक सफलता नहीं मिल सकती। इन गुणों का सम्पादन कर लेने पर संकल्पशक्ति का उपार्जन किया जा सकता है। पग-पग पर कठिनाइयाँ आ उपस्थित होती हैं किंतु धैर्यपूर्वक उनका सामना कर उद्योग में लगे रहना चाहिए। महात्मा गाँधी की सफलता का मूल मंत्र यही था। यही कारण था कि वे अपने ध्येय में सफलता प्राप्त कर सके। वे कभी हताश नहीं होते थे। संसार के महापुरुष इन गुणों के बल पर ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर पाये। तुम्हें भी इन गुणों का सम्पादन करना होगा।

एकाग्रता (धारणा) के अभ्यास में सफलता प्राप्त करने के लिए धैर्य की महान आवश्यकता है। ॐकार का दीर्घ गुँजन और भगवान या सदगुरु के श्रीचित्र को एकटक निहारना आरोग्य, धैर्य और संकल्पशक्ति विकसित करने का अनुपम साधन है। विद्युत-कुचालक आसन अवश्य बिछायें। 10-15 मिनट से आरम्भ करके थोड़ा-थोड़ा बढ़ाते जायें। बाहर की व्यर्थ चेष्टाओं में, व्यर्थ चिंतन में दुर्लभ समय व्यर्थ न होने पाये। बहुत से व्यक्ति ऐसे हैं जो कुछ कठिनाइयों के आ जाने से काम छोड़ देते हैं, उनमें धैर्य और उद्योगशील स्वभाव की कमी है। ऐसा नहीं होना चाहिए। जरा-जरा बात में काम छोड़ देना उचित नहीं है।

चींटियाँ कितनी उद्यमी होती हैं ! चीनी और चावल के दाने भर-भर के अपने गोदामों में जमा कर रखती हैं। कितने धैर्य और उद्यम की आवश्यकता है एक-एक कर चावल के दानों और चीनी को ले जा के जमा करने के लिए !

मधुमक्खियाँ भी प्रत्येक फूल से शहद एकत्र कर छत्ते में जमा करती हैं, कितना धैर्य और उद्यमी स्वभाव चाहिए इसके लिए ! बड़ी-बड़ी नदियों पर बाँधों का निर्माण कराने वाले, पुल बाँधने वाले इंजीनियरों के धैर्य की प्रशंसा क्यों न की जाय ! कितना धैर्यशील और उद्यमपरायण होगा वह वैज्ञानिक जिसने हीरे के सही रूप (आण्विक संरचना) को पहचाना !

धैर्यशील व्यक्ति अपने क्रोध को सिर नहीं उठाने देता। अपने क्रोधी स्वभाव पर विजय पाने के लिए धैर्य एक समर्थ और सबल शस्त्र है। धैर्य के अभ्यास से व्यक्ति को आंतरिक शक्ति का अनुभव होता है। अपने दिन भर के कार्यों को धैर्यपूर्वक करने से आनंद, शांति और संतोष का अनुभव होता है। धीरे-धीरे इस गुण को अपने अंदर विकसित करो। इस गुण के विकास के लिए सदा उत्कण्ठित रहो। मन में सदा धैर्य की मानसिक मूर्ति बसी हुई रहनी चाहिए। मन में निरंतर विचार रहा तो समय आने पर धैर्य स्वयं ही प्रत्यक्ष होने लग जायेगा। नित्यप्रति प्रातःकाल उठते ही उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम इन दैवी गुणों का विकास करने का संकल्प करो। प्रतिदिन इस क्रम को दुहराते जाओगे तो असफलता के बावजदू भी एक-न-एक दिन सफल होओगे। पग-पग पर परमात्मसत्ता, चेतना तुम्हारे स्वभाव में सहज में प्रकट होने लगेगी। सच्चे महापुरुषों के सदगुण तुम्हारे अंदर खिलने लगेंगे। इन गुणों के सिवाय और चालबाजी करके सत्ता व सम्पदा हासिल कर भी ली तो पाकिस्तान के भूतपूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ और मिश्र के राष्ट्रपति मुबारक की गति जगजाहिर है। मृत्यु के बाद किन-किन योनियों की परेशानियाँ भुगतनी पड़ेंगी उसका अंदाज लगाया नहीं जा सकता। अतः शास्त्रों के द्वारा बताये गये उद्यम, साहस, धैर्य आदि सदगुणों को विकसित करो। पग-पग पर परमात्मसत्ता की स्फुरणा, सहायता और एकत्व के आनंद का एहसास करो। सच्ची उन्नति आत्मवेत्ता जानते हैं, उसको जानो और आकर्षणों से बचो।

किसी भी बात की शिकायत नहीं करनी चाहिए। मन को चिड़चिड़ेपन से मुक्त रखना चाहिए।  सोचो कि इन गुणों को कारण से क्या-क्या लाभ होंगे और तुम किन-किन व्यवसायों में इन गुणों का सहारा लोगे। इनका सहारा लेकर परम सफलता को वरण करने का संकल्प करो। ॐ उद्यम…. ॐ साहस…. ॐआरोग्य…

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2011, पृष्ठ संख्या 18, अंक 337

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विकारों से बचने हेतु


संकल्प-साधना

(भगवत्पाद स्वामी श्री श्री लीलाशाहजी महाराज)

विषय विकार साँप से विष से भी अधिक भयानक हैं, इन्हें छोटा नहीं समझना चाहिए। सैंकड़ों लिटर दूध में विष की एक बूँद डालोगे तो परिणाम क्या मिलेगा ? पूरा सैंकड़ों लिटर दूध व्यर्थ हो जायेगा।

साँप तो काटेगा तभी विष चढ़ पायेगा किंतु विषय-विकार का केवल चिंतन ही मन को भ्रष्ट कर देता है। अशुद्ध वचन सुनने से मन मलिन हो जाता है।

अतः किसी भी विकार को कम मत समझो। विकारों से सदैव सौ कोस दूर रहो। भ्रमर में कितनी शक्ति होती है कि वह लकड़ी को भी छेद देता है, परंतु बेचारा फूल की सुगंध पर मोहित होकर पराधीन हो के अपने को नष्ट कर देता है। हाथी स्पर्श के वशीभूत होकर स्वयं को गड्ढे में डाल देता है। मछली स्वाद के कारण काँटे में फँस जाती है। पतंगा रूप से वशीभूत होकर अपने को दीये पर जला देता है। इन सबमें सिर्फ एक-एक विषय का आकर्षण होता है फिर भी ऐसी दुर्गति को प्राप्त होते हैं, जबकि मनुष्य के पास तो पाँच इन्द्रियों के दोष हैं। यदि वह सावधान नहीं रहेगा तो तुम अनुमान लगा सकते हो कि उसका क्या हाल होगा !

अली पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच।

तुलसी तिनकी कौन गति जिनको ब्यापे पाँच।।

अतः भैया मेरे ! सावधान रहें। जिस-जिस इन्द्रिय का आकर्षण है उस-उस आकर्षण से बचने का संकल्प करें। गहरा श्वास लें और प्रणव (ॐकार) का जप करें। मानसिक बल बढ़ाते जायें। जितनी बार हो सके बलपूर्वक उच्चारण करें, फिर उतनी ही देर मौन रहकर जप करें। ‘आज उस विकार में फिर में नहीं फँसूँगा या एक सप्ताह तक अथवा एक माह तक नहीं फँसूँगा….’ ऐसा संकल्प करें। फिर से गहरा श्वास लें और ‘हरि ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ…’ ऐसा उच्चारण करें।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2010, पृष्ठ संख्या 19, अंक 209

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