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‘प्रणव’ (ॐ) की महिमा


चतुर्दशी आर्द्रा नक्षत्र योगः

सूत जी ने ऋषियों से कहाः “महर्षियो ! ‘प्र’ नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसाररूपी महासागर का। प्रणव इससे पार करने के लिए (नव)  नाव है। इसलिए इस ॐकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं। ॐकार अपना जप करने वाले साधकों से कहता है- ‘प्र-प्रपंच, न-नहीं है, वः-तुम  लोगों के लिए।’ अतः इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ॐ’ को ‘प्रणव’ नाम से जानते हैं। इसका दूसरा भाव हैः ‘प्र-प्रकर्षेण, न-नयेत्, वः-युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः। अर्थात् यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुँचा देगा।’ इससे भी ऋषि-मुनि इसे ‘प्रणव’ कहते हैं। अपना जप करने वाले योगियों के तथा अपने मंत्र की पूजा करने वाले उपासकों के समस्त कर्मों का नाश करके यह उन्हें दिव्य नूतन ज्ञान देता है, इसलिए भी इसका नाम प्रणव – प्र (कर्मक्षयपूर्वक) नव (नूतन ज्ञान देने वाला) है।

उन मायारहित महेश्वर को ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रधान रूप से अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिए ‘प्रणव’ कहलाते हैं। प्रणव साधक को नव अर्थात् नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है, इसलिए भी विद्वान पुरुष इसे प्रणव के नाम से जानते हैं अथवा प्र-प्रमुख रूप से नव- दिव्य परमात्म-ज्ञान प्रकट करता है, इसलिए यह प्रणव है।

यद्यपि जीवन्मुक्त के लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरों की दृष्टि में जब तक उसका शरीर रहता है, तब तक उसके द्वारा प्रणव जप की सहज साधना स्वतः होती रहती है। वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मंत्र का जप  और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्व का अनुसंधान करता रहता है। जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है – यह सुनिश्चित है। जो अर्थ का अनुसंधान न करके केवल मंत्र का जप करता है, उसे निश्चय ही योग  की प्राप्ति होती है। जिसने इस मंत्र का 36 करोड़ जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है। ‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और  ‘मकार’ इन दोनों की एकता है। यह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ‘ह्रस्व प्रणव’ का जप करना चाहिए। जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिए ह्रस्व प्रणव का जप अत्यंत आवश्यक है।

वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ॐकार का उच्चारण करना चाहिए।”

भगवान शिव ने भगवान ब्रह्माजी और भगवान विष्णु से कहाः “मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ॐकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महामंगलकारी मंत्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ॐकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ॐकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ॐकार का निरन्तर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है।

मुनीश्वरो !  प्रतिदिन दस हजार प्रणव मंत्र का जप करें अथवा दोनों संध्याओं के समय एक-एक हजार प्रणव का जप किया करें। यह क्रम भी शिवपद की प्राप्ति कराने वाला है।

‘ॐ’ इस मंत्र का प्रतिदिन मात्र एक हजार जप करने पर सम्पूर्ण  मनोरथों की सिद्धि होती है।

प्रणव के ‘अ’, ‘उ’ और ‘म्’ इन तीनों अक्षरों से जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है – इस बात को जानकर प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिए कि हम तीनों लोकों की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु तथा संहार करने वाले रूद्र जो स्वयंप्रकाश चिन्मय हैं, उनकी उपासना करते हैं। यह ब्रह्मस्वरूप ॐकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों की वृत्तियों को, मन की वृत्तियों को तथा बुद्धि की वृत्तियों को सदा भोग और मोक्ष  प्रदान करने वाले धर्म एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करे।’ प्रणव के इस अर्थ का बुद्धि के द्वारा चिंतन करता हुआ जो इसका जप करता है, वह निश्चय ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। अथवा अर्थानुसंधान के बिना भी प्रणव का नित्य जप करना चाहिए।”

(शिव पुराण अंतर्गत विद्येश्वर संहिता से संकलित)

भिन्न-भिन्न काल में ॐ की महिमा

आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी के योग में (दिनांक 14 जनवरी 2014 को सुबह 7-22 से 15 जनवरी सुबह 7-52 तक)  प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देने वाला होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद,  दिसम्बर 2013, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 252

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संस्कृति रक्षक प्राणायाम – पूज्य बापू जी


संत सताये तीनों जायें, तेज बल और वंश।

ऐसे ऐसे कई गये, रावण कौरव और कंस।।

भारत के सभी हितैषियों को एकजुट होना पड़ेगा। भले आपसी कोई मतभेद हो किंतु संस्कृति की रक्षा में हम सब एक हो जायें। कुछ लोग किसी को भी मोहरा बना के दबाव डालकर हिन्दू संतों और हिन्दू संस्कृति को उखाड़ना चाहें तो हिन्दू अपनी संस्कृति को उखड़ने नहीं देगा। वे लोग मेरे दैवी कार्य में विघ्न डालने के लिए कई बार क्या-क्या षड्यंत्र कर लेते हैं। लेकिन मैं इन सबको सहता हुआ भी संस्कृति के लिए काम किये जा रहा हूँ। स्वामी विवेकानन्दजी ने कहाः “धरती पर से हिन्दू धर्म गया तो सत्य गया, शांति गयी, उदारता गयी, सहानुभूति गयी, सज्जनता गयी।”

गहरा श्वास लेकरर ॐकार का जप करें, आखिर में ‘म’ को घंटनाद की नाईं गूँजने दें। ऐसे 11 प्राणायाम फेफड़ों की शक्ति बढ़ायेंगे, रोगप्रतिकारक शक्ति तो बढ़ायेंगे साथ ही वातावरण में भी भारतीय संस्कृति की रक्षा में सफल होने की शक्ति अर्जित करने का आपके द्वारा महायज्ञ होगा।

मुझे आपके रूपये पैसे नहीं चाहिए, बल्कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए आप रोज 11 प्राणायाम करके आप अपना संकल्प वातावरण में फेंको। इसमें विश्वनाथ का मंगल है। ॐ….ॐ….ॐ…… हो सके तो सुबह 4 से 5 बजे के बीच करें। यह स्वास्थ्य के लिए और सभी प्रकार से बलप्रद होगा। यदि इस समय न कर पायें तो किसी भी समय करें पर करें अवश्य। कम से कम 11 प्राणायाम करें, ज्यादा कितने भी कर सकते हैं। अधिकस्य अधिकं फलम्।

हम चाहते हैं सबका मंगल हो। हम तो यह भी चाहते हैं कि दुर्जनों को भगवान जल्दी सदबुद्धि दे, नहीं तो समाज सदबुद्धि दे। जो जिस पार्टी में है… पद का महत्त्व समझो, अपनी संस्कृति का महत्त्व  समझो। पद आज है, कल नहीं है लेकिन संस्कृति तो सदियों से तुम्हारी सेवा करती आ रही है। ॐ का गुंजन करो, गुलामी के संस्कार काटो !

दुर्बल जो करता है वह निष्फल चला जाता है और लानत पाता है। सबल जो कहता है वह हो जाता है और उसका जयघोष होता है। आप सबल बनो !

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः। (मुण्डकोपनिषद् 3.2.4)

विधिः सुबह उठकर थोड़ी देर शांत हो जाओ, भगवान के ध्यान में बैठो। ॐ शांति…. ॐ आनन्द…. करते करते आनंद और शांति में शांत हो जायें। सुबह की शांति प्रसाद की जननी है, सदबुद्धि की जननी है। फिर स्नान आदि करके खूब श्वास भरो, त्रिबन्ध करो-पेट को अंदर खींचो, गुदाद्वार को अंदर सिकोड़ लो, ठुड्डी को छाती से लगा लो। मन में संस्कृति-रक्षा का संकल्प दोहराकर भगवान का नाम जपते हुए सवा से डेढ़ मिनट श्वास रोके रखो। फिर श्वास छोड़ो। श्वास लेते और छोड़ते समय ॐकार का मानसिक जप करते रहें। फिर 50 सैकेंड से सवा मिनट तक श्वास बाहर रोक सकते हैं। मन में ॐकार या भगवन्नाम का जप चालू रखो। शरीर में जो भी आम (कच्चा, अपचित रस) होगा, वायुदोष होगा, वह खिंच के जठर में स्वाहा हो जायेगा। वर्तमान की अथवा आने वाली बीमारियों की जड़े स्वाहा होती जायेंगी। आपकी सुबह मंगलमय होगी और आपके द्वारा मंगलकारी परमात्मा मंगलमय कार्य करवायेगा। आपका शरीर और मन निरोग तथा  बलवान बन के रहेगा।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्टूबर 2013, पृष्ठ संख्या 4, अंक 250

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ॐकार की 19 शक्तियाँ


सारे शास्त्र-स्मृतियों का मूल है वेद। वेदों का मूल है गायत्री और गायत्री का मूल है ॐकार। ॐकार से गायत्री, गायत्री से वैदिक ज्ञान और उससे शास्त्र और सामाजिक प्रवृत्तियों की खोज हुई।

पतंजलि महाराज ने कहा हैः

तस्य वाचकः प्रणवः। ‘परमात्मा का वाचक ॐकार है।’ (पातंजल योगदर्शन, समाधिपादः 27)

सब मंत्रों में ॐ राजा है। ॐकार अनहद नाद है। यह सहज में स्फुरित हो जाता है। अकार, उकार, मकार और अर्धतन्मात्रा युक्त ॐ एक ऐसा अद्भुत भगवन्नाम मंत्र है कि इस पर कई व्याख्याएँ हुईं, कई ग्रंथ लिखे गये फिर भी इसकी महिमा हमने लिखी ऐसा दावा किसी ने नहीं किया। इस ॐकार के विषय में ज्ञानेश्वरी गीता में ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा हैः

ॐ नमो जी आद्या वेदप्रतिपाद्या

जय जय स्वसंवेद्या आत्मरूपा।

परमात्मा का ॐकार स्वरूप से अभिवादन करके ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी गीता का प्रारम्भ किया।

धन्वंतरि महाराज लिखते हैं कि ॐ सबसे उत्कृष्ट मंत्र है।

वेदव्यास जी महाराज कहते हैं कि मंत्राणां प्रणवः सेतुः। यह प्रणव मंत्र सारे मंत्रों का सेतु है।

कोई मनुष्य दिशाशून्य हो गया हो, लाचारी की हालत में फेंका गया हो, कुटुम्बियों ने मुख मोड लिया हो, किस्मत रूठ गयी हो, साथियों ने सताना शुरु कर दिया हो, पड़ोसियों ने पुचकार के बदले दुत्कारना शुरु कर दिया हो…. चारों तरफ से व्यक्ति दिशाशून्य, सहयोगशून्य, धनशून्य, सत्ताशून्य हो गया हो, फिर भी हताश न हो वरन् सुबह शाम 3 घंटे ॐकार सहित भगवन्नाम का जप करे तो वर्ष के अंदर वह व्यक्ति भगवद्शक्ति से सबके द्वारा सम्मानित, सब दिशाओं में सफल और सब गुणों से सम्पन्न होने लगेगा। इसलिए मनुष्य को कभी भी अपने को लाचार, दीन-हीन और असहाय मानकर कोसना नहीं चाहिए। भगवान तुम्हारे आत्मा बनकर बैठे हैं और भगवान का नाम तुम्हें सहज में प्राप्त हो सकता है, फिर क्यों दुःखी होना !

रोज रात्रि में तुम 10 मिनट ॐकार का जप करके सो जाओ। फिर देखो, इस मंत्र भगवान की क्या-क्या करामात होती है ! और दिनों की अपेक्षा वह रात कैसी जाती है और सुबह कैसी जाती है ! पहले ही दिन फर्क पड़ने लग जायेगा।

मंत्र के ऋषि, देवता, छंद, बीज और कीलक होते हैं। इस विधि को जानकर गुरुमंत्र देने वाले सद्गुरु मिल जायें और उसका पालन करने वाला सत्शिष्य मिल जाय तो काम बन जाता है। ॐकार मंत्र का छंद गायत्री है, इसके देवता परमात्मा स्वयं हैं और मंत्र के ऋषि भी ईश्वर ही हैं।

भगवान की रक्षण शक्ति, गति शक्ति, कांति शक्ति, प्रीति शक्ति, अवगम शक्ति, प्रवेश अवति शक्ति आदि 19 शक्तियाँ ॐकार में हैं। इसका आदर से श्रवण करने से मंत्रजापक को बहुत लाभ होता है, ऐसा संस्कृत के जानकार पाणिनि मुनि ने बताया है।

वे पहले महाबुद्धु थे, महामूर्खों में उनकी गिनती होती थी। 14 साल तक वे पहली कक्षा से दूसरी कक्षा में नहीं जा पाये थे। फिर उन्होंने शिवजी की उपासना की, उनका ध्यान किया तथा शिवमंत्र जपा। शिवजी के दर्शन किये वे उनकी कृपा से संस्कृत व्याकरण की रचना की और अभी तक पाणिनि मुनि का संस्कृत व्याकरण पढ़ाया जाता है।

ॐकार मंत्र में 19 शक्तियाँ हैं

एक-    रक्षण शक्तिः ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है। किसी नामदान लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं, मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। ‘अरे, गाड़ी उलट गयी, तीन पलटियाँ खा गयी किंतु बापू जी ! हमको खरोंच तक नहीं आयी…. बापू जी ! हमारी नौकरी छूट गयी थी, ऐसा हो गया था-वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्निर्युक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी….’ इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान का सामर्थ्य प्रकट करती हैं।

दो-   गति शक्तिः जिस योग, ज्ञान, ध्यान के मार्ग से आप फिसल गये थे, जिसके प्रति उदासीन हो गये थे, किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्रदीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्रदीक्षा के बाद आपके अंदर की गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

तीन-    कांति शक्तिः मंत्रजप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।

इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा…. धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

चार-   प्रीति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति, मंत्र के ऋषि के प्रति, मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

पाँच-    तृप्ति शक्तिः ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं, उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।

जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग सज्जन बनने लगते हैं और बड़े तृप्त हो जाते हैं और महापुरुष के शिष्य बन जाते हैं।

छह-  अवगम शक्तिः मंत्रजप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है। दूसरे के मनोभावों, भूत-भविष्य के क्रियाकलाप को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हैं। कोई कहे कि ‘महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।’ किंतु वास्तव में यह् भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

सात-  प्रवेश अवति शक्तिः अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्वभावों को तथा पूर्व जीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी, आप यहाँ थे, फलाने जन्म में ऐसे थे, अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा ऋषि के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में आती है।

आठ-  श्रवण शक्तिः मंत्रजप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम, गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे शुकदेव जी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेव जी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा संबंध था और भी कई संतों का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि ‘गुरु जी ! मेरी रक्षा करो….’ तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

नौ-  स्वाम्यर्थ शक्तिः अर्थात् नियमन और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जप।

दस-   याचन शक्तिः याचक की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देने वाला मंत्र।

ग्‍यारह-   क्रिया शक्तिः निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहने वाली चेतना का विकास।

बारह-  इच्छित अवति शक्तिः वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं, प्रसाद धरते हैं, आशीर्वाद माँगते हैं आदि-आदि। इच्छित अवति शक्ति अर्थात् निष्काम-परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का प्रकाशक बन जाता है।

तेरह-   दीप्ति शक्तिः ॐकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

चौदह-   वाप्ति शक्तिः अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्य स्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी एकाकारता हो जायेगी।

पंद्रह-  आलिंगन शक्तिः अपनापन विकसित करने की शक्ति। ॐकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ! जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते किंतु जिनके पास ॐकार के जप की कमाई है उनसे घरवाले, समाजवाले, गाँव वाले, नगर वाले, राज्यवाले, राष्ट्र वाले तो क्या विश्ववाले भी आनंदित-आह्लादित होने लगते हैं।

सोलह-   हिंसा शक्तिः ॐकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ? हाँ, हिंसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ? दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्ट वृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अंदर अज्ञान को और दुष्ट संस्कारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

सत्रह-  दान शक्तिः वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगने वाला नहीं रहेगा, देने की शक्ति वाला बन जायेगा।वह देवी-देवता से, भगवान से माँगेगा नहीं, स्वयं देने लगेगा।

एक संत थे। वे ॐकार का जप करते-करते ध्यान करते थे, अकेले रहते थे। वे सुबह बाहर निकलते लेकिन चुप रहते। उनके पास लोग अपना मनोरथ पूर्ण कराने के लिए याचक बनकर आते और हाथ जोड़कर कतार में बैठ जाते। चक्कर मारते-मारते वे संत किसी को थप्पड़ मार देते। वह खुश हो जाता, उसका काम बन जाता। बेरोजगार को नौकरी मिल जाती, निःसंतान को संतान मिल जाती, बीमार की बीमारी चली जाती। लोग गाल तैयार रखते थे। परंतु ऐसा भाग्य कहाँ कि सबके गाल पर थप्पड़ पड़े ! मैंने उन महाराज के दर्शन तो नहीं किये हैं किंतु जो लोग उनके दर्शन करके आये और उनके लाभान्वित होकर आये, उन लोगों की बातें मैंने सुनीं।

अठारह-   भोग शक्तिः प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को, खिंचावों को, भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में लहराता रहेगा, मस्त रहेगा…. नहीं तो एक-दो दुकान, एक-दो कारखाने  वालों को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पडता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या, एक आश्रम या समिति तो क्या, 1100, 1200 या 1500 ही क्यों न हों, सब उत्तम प्रकार से चलती हैं ! उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन आनंद, नित्य नवीन मौज रहती है।

स्वामी रामतीर्थ गाया करते थेः

हर रोज इक नहीं शादी है, हर रोज मुबारकवादी है।

जब आशिक मस्त फकीर हुआ, तो क्या दिलगिरी बाबा !

शादी अर्थात् खुशी। वह ऐसा मस्त फकीर बन  जायेगा।

उन्‍नीस-   वृद्धि शक्तिः प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। ॐका जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और संरक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 23-26 अंक 222

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