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Sant Charitra

गृहस्थ में रहने की कला – पूज्य बापू जी


( संत कबीर जी जयंतीः 14 जून 2022 )

एक बार संत कबीर जी से गोरखनाथ जी ने पूछाः ″आपने तो सफेद कपड़ा पहना है, आपको पत्नी है, बेटी है, बेटा भी है, आप तो गृहस्थी हैं फिर आप महान संत कैसे ?″

कबीर जी बोलेः ″भाई ! हम महान नहीं हैं, हम तो कुछ नहीं हैं ।″

″नहीं, आप मुझे बताओ ।″

तो कबीर जी उनको अपने घर ले गये । दोपहर के 2 बजे का समय था, पत्नी को बोलाः ″लोई ! दीया लाओ, मैं अब जरा ताना बुनूँ धूप में ।″

ऐसा नहीं कि घर में कमरे के अंदर । पत्नी लोई दीया पकड़ के खड़ी हो गयी धूप में और पति ताना बुन रहे हैं । गोरखनाथ जी सोचते हैं- ‘कबीर तो पागल हैं पर लोई भी पागल है ! माथे पर अभी दोपहर का सूर्य तप रहा है फिर दीये की क्या जरूरत है !’

इतने में विद्यालय से कबीर जी की बेटी कमाली आ गयी । कमाली माँ के हाथ से दीया लेकर स्वयं दीया ले के खड़ी हो गयी । वह नहीं पूछती है कि ‘अम्मा ! यह क्यों कर रही है ?’ माँ जो कर रही है न, बस माँ को काम से छुड़ा के स्वयं ने सेवा ले ली ।

इतने में बेटा कमाल आ गया । देखा कि बहन के हाथ में दीया है, ‘अरे मेरी कुँवारी बहन बेचारी कष्ट सहन कर रही है !’ बोलाः ″नहीं बहन ! तू जा के भजन कर ।″ कमाल ने दीया ले लिया ।

गोरखनाथ जी देखते रह गये कि ‘यहाँ एक पागल नहीं है, माई भी पागल है, भाई भी पागल, बेटी भी पागल, बेटा भी पागल ! ये तो चारों पागल हैं ।

गोरखनाथ जी कबीर जी को बोलते हैं- ″मेरे को आप बताओ कि आप घर में कैसे रहते हैं ? आप बोलते हैं कि हम अकेले हैं घर में, आप तो चार हैं !″

कबीर जी ने कहाः ″महाराज ! चार कैसे, हम एक ही हैं ।″

बोलेः ″एक कैसे ? तुम्हारी पत्नी है, बेटा है, बेटी है ।″

″महाराज ! बेटा-बेटी, पत्नी और मैं – हम चार दिखते हैं परंतु हम सब एकमत हैं । जहाँ सबका एकमत होता है वहाँ सिद्धान्त, सफलता आ जाती है । जैसे तरंगे भिन्न-भिन्न दिखती हैं परंतु गहराई में शांत जल है, ऐसे ही ऊपर-ऊपर से भिन्न-भिन्न स्वभाव दिखते हैं परंतु अंदर से वही चैतन्य है । यह अद्वैत ज्ञान है । इससे सारे सद्गुण पैदा होते हैं । विश्वभर की शंकाओं का समाधान केवल वेदांत के ज्ञान से ही आता है । इसलिए अद्वैत ज्ञान, एकात्मवाद का जो प्रकाश है वह जीवन में सुख-शांति देता है । हम घर में भी साधु हैं । एकमत हो के बैठते हैं ।″

कबीर जी की ऐसी अद्वैतनिष्ठा देखकर गोरखनाथ जी बड़े प्रसन्न हुए कि ″आ हा ! गृहस्थी हों तो ऐसे हों ।″

ऐसा कोई आनंद और सामर्थ्य नहीं है जो अद्वैत की भावना से पैदा न हो । जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन में जितना-जितना अद्वैत व्यवहार, अद्वैत ज्ञान है उन-उन व्यक्तियों के जीवन में सुख-शांति, मधुरता व प्रसन्नता है और सफलता है और प्रकृति हर पग पर उनको सहायता पहुँचाती है ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 11 अंक 353

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उस एक को नहीं जाना तो सब जानकर भी क्या जाना – पूज्य बापू जी


( देवर्षि नारद जी जयंतीः 17 मई 2022 )

देवर्षि नारद जी ने बहुत-बहुत परोपकार किये, बहुत शास्त्र पढ़े, बहुत लोक-मांगल्य के काम किये । नारद जी के लोक-मांगल्य का पुण्य उदय हुआ, उनके मन में विचार उठा कि ‘जिसको पाने के बाद कुछ पाना बाकी नहीं रहता, जिसको जानने के बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहता और जिसको जानने से व्यक्ति शोकमुक्त हो जाता है वह मैंने नहीं जाना, नहीं पाया ।’

नारद जी पैदल यात्रा करते-करते जहाँ सनकादि ऋषि एकांत अरण्य में रहते थे वहाँ पहुँचे । दंडवत् प्रणाम किया और उनमें गुरुभाव रखते हुए स्तुति की ।

हालाँकि सनकादि ऋषि भी ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी भी । सनकादि ऋषि हैं पुरखों के पुरखे किंतु योगबल से सदा 5 साल के ही नन्हें-मुन्ने दिखते हैं । वस्त्रहीन भी रहें तो पवित्र बालक ही हैं । उनमें 3 तो बनते हैं सत्संग सुनने वाले श्रोता और एक बनते हैं वक्ता और ब्रह्मचर्चा, परमात्म-सुख की बात करते हैं । उनके पास नारद जी गये, बोलेः ″प्रभु ! मैं आपकी शरण आया हूँ ।″

सनकादि ऋषियों में से सनत्कुमार जी ने पूछाः ″तुम क्या-क्या जानते हो ?″

बोलेः ″मैं चार वेद जानता हूँ, इसके उपरांत इतिहास-पुराणरूप पंचम वेद, वेदों का वेद ( व्याकरण ), इसके उपरांत श्राद्धकल्प, गणित, उत्पात-विद्या, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, देव विद्या, निरुक्त, वेद विज्ञान, भूत तंत्र, क्षत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, सर्प विद्या ( गारूड मंत्र ) देवजन विद्या ( नृत्य संगीत ) आदि सभी विद्याएँ जानता हूँ । कंस जैसों को कुछ कहना और वसुदेव जैसों को कुछ कहकर भी भगवान की कृपा का प्रसाद समाज में कैसे बँटवाना यह भी जानता हूँ । कलह करवा के भी कल्याण करना जानता हूँ । ये सब जानता हूँ महाराज ! किंतु जिसको जानने से सब जाना जाता है, जिसको पाने से सब पाया जाता है उसको नहीं पाया है, नहीं जाना है । जिसमें स्थित होने के बाद बड़े भारी दुःख से भी व्यक्ति चलायमान नहीं होता उस निर्दुःख पद का, उस आत्मानुभव का आनंद अभी तक नहीं मिला । आप जैसों से सुना है कि

तरति शोकं आत्मवित् ।

आत्मा को जानने वाला शोकरहित हो जाता है । किंतु मुझे अभी तक हर्ष-शोक व्यापता है ।″

मनुष्य-जीवन में अगर शोकरहित नहीं हुए, परम पद नहीं पाया तो जीवन पशु की तरह व्यर्थ गया । पशु तो अपनी पशुता के कर्म काट के मनुष्यता की तरफ आ रहा है और मनुष्य अगर वह परम पद नहीं पाता है तो मनुष्यता खोकर पशुता की तरफ जायेगा, प्रेत योनियों में जायेगा । मनुष्य-जीवन का यही फल है कि शोक से पार हो जायें, भय से पार हो जायें । शोक बीत हुए का होता है और भय आने वाला का होता है । प्रतिष्ठा चली न जाय, धन चला न जाय इसका भय रहता है, सत्ता और स्वास्थ्य चला न जाय इसका भी भय रहता है । कहा गया हैः

निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।

प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ।।

आप उस निर्भय को अपना मानिये, जपिये । जो पहले आपका था, अभी है, बाद में रहेगा । आपकी कुर्सी पहले नहीं थी बेटे ! बाद में भी नहीं रहेगी, अब भी समय की धारा में नहीं की तरफ जा रही है । शरीर, पद, सत्ता भी नहीं की तरफ जा रहे हैं । जो नहीं था उसको ‘नहीं’ मान लो फिर उसका उपयोग करो, तत्परता से व्यवस्था करो पर उसको सत्य मत मानो । और जो सत्य है उसको ‘सत्य’ मान लो, जान लो बस !

तो सनत्कुमार जी ने उपदेश दियाः ″यह सारा विश्व ही नारायण स्वरूप है । पृथ्वी ब्रह्म है ।″

नारदजी ने कहाः ″पृथ्वी ब्रह्म तो है परंतु पृथ्वी में उथल-पुथल होती है ।″

″ठीक है नारद ! तुम्हारी बुद्धि विकसित है । पृथ्वी से जल सूक्ष्म है, रसमय है, पृथ्वी की अपेक्षा व्यापक भी है । जल ब्रह्म है ।″

″जल ब्रह्म है किंतु इसमें भी परिवर्तन और विकार है प्रभु !″

″तेज ब्रह्म है ।″

″तेज ब्रह्म है लेकिन तेज भी 5 भूतों का एक अंश है । तेज तत्त्व में परमात्म-सत्ता है परंतु तेज पूर्ण ब्रह्म तो नहीं है ।″

″नारद जी ! और अंतर्मुख हो रहे हो, ठीक बात है । वायु ब्रह्म है । अग्नि से भी वायु अधिक व्यापक है । प्राण ही तो ब्रह्म है, प्राण निकल गये तो सब व्यर्थ हो जाता है । पेड़-पौधों में भी चेतनता प्राण से ही है और मनुष्यों, जीव-जन्तुओं और जहाज का गमनागमन भी तो प्राण के बल से – हवा के बल से ही होता है । और प्राण और अधिक व्यापक है ।″

नारद जी उसमें संतुष्ट होने लगे । दयालु सनत्कुमार जी ने करूणा करके कहाः नारद ! नहीं-नहीं, इससे भी आगे चलो । आकाश ब्रह्म है । किंतु यह आकाश तो दृश्य है, भूताकाश है । भूताकाश से भी और आगे… भूताकाश जिससे दिखता है वह ब्रह्म है ।″

बोलेः ″वह चित्ताकाश है ।″

″चित्ताकाश भी परिवर्तित होता है, उसको जो जानता है नारद ! वह है भूमा, नित्य सुख, उसके परमात्मा कहते हैं । यो वै भूमा तत्सुखम् ।

उस भूमा, व्यापक ब्रह्म-परमात्मा को ज्यों-का-त्यों जानो । आकृतियों में जो देवी-देवता हैं वे सब अच्छे हैं परंतु ये सारी आकृतियाँ जहाँ से प्रकट होती हैं, जिसकी सत्ता से बोलती हैं और जिसमें विलय हो जाती हैं उस भूमा ईश्वर को जानोगे तब पूर्ण सुखी हो जाओगे ।″

सनत्कुमार जी के तत्त्वज्ञान के उपदेश से नारद जी हर्ष-शोक से परे उस भूमा में स्थित हुए । इस प्रकार गुरु ने उपदेश दे के एक से एक सूक्ष्म-सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम की यात्रा कराते-कराते सबके सार में, चिदाकाश ब्रह्म में नारद जी को प्रतिष्ठित कर दिया ।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे न शेष ।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश ।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2022, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 353

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ओज, तेज और संयम के धनी राजा ऋषभदेव – पूज्य बापू जी


भारत देश का नाम ‘भारत’ नहीं पड़ा था तब की बात है । तब इस देश को अजनाभ खंड बोलते थे । उस समय राजा नाभि ने यज्ञ किया और यज्ञपुरुष परमात्मा नारायण प्रकट हुए । ब्राह्मणों ने भगवान नारायण का स्तवन किया और प्रार्थना कीः ″राजा नाभि साधु-संतों का, ब्राह्मणों का बड़ा सेवक है, सदाचारी है, प्रजापालक है । हमारे यजमान के पास और सब कुछ है, केवल उसकी गोद खाली है, हम चाहते हैं कि हे नारायण ! उनके यहाँ आप जैसा ओजस्वी-तेजस्वी बालक हो ।″

भगवान नारायण ने कहाः ″मेरे जैसा तो भाई, मैं ही हूँ ।″

तो नारायण का अंशावतार, भगवान नारायण का ओज राजा नाभि के घर प्रकटा । होनहार विरवान के होत चीकने पात । हाथों में, पैरों में शंख, सुदर्शन, पद्म आदि चिह्न थे और वह बाल्यकाल में बड़ा बुद्धिमान था । उस बुद्धिमान बालक का नाम रखा गया ‘ऋषभ’, जो बाद में जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ‘ऋषभदेव’ बने ।

बुद्धिमान राजा ने पत्नी सहित की आत्मलाभ की यात्रा

राजा नाभि ने देखा कि ‘बालक तो कब जवान होगा, मेरा जीवन ऐसे ही बीता जा रहा है… मैं वह परम लाभ पा लूँ जिस लाभ से अधिक कोई लाभ नहीं है । अजनाभ खंड के राज्य का लाभ तो है लेकिन यह कोई परम लाभ नहीं है, छोटा-मोटा दुःख भी इस राजगद्दी के सुख को डाँवाडोल कर देता है ।’

बुद्धिमान राजा नाभि अपनी पत्नी को लेकर बदरिकाश्रम के एकांत में गये और आत्मा-परमात्मा का अनुसंधान करके आत्मलाभ की यात्रा की । ऋषभदेव के लिए क्या किया कि ‘कब जवान हो और कब राज्य सँभाले ? और राज्य ऐसे लावारिस छोड़कर जाना भी ठीक नहीं ।’

ऐसा विचार कर ईमानदार ब्राह्मणों की गोद में ऋषभदेव को बिठा के राज्याभिषेक कर दिया और कहाः ″जब तक यह लड़का छोटा है तब तक तो राज्य तुम सँभालो और यह जब बड़ा हो जायेगा, सशक्त हो जायेगा तो फिर यह अपने-आप सँभाल लेगा ।″

ब्राह्मणों ने ऋषभदेव को विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल में रखा ।  ऋषभदेव युवावस्था में आये, राजकाज को सँभाल लेने के योग्य हुए, राज्य सँभालने लगे ।

भारत के संयमी युवराज हुए देवराज की परीक्षा में सफल

एक बार ऋषभदेव के राज्य में एकाएक अकाल पड़ गया । चहुँ और सूखा-सूखा-सूखा… मंत्रियों ने, ब्राह्मणों ने कहाः ″राजाधिराज इन्द्रदेव कोपायमान हुए हैं । 12 मेघों में से कोई मेघ नहीं बरस रहा है ।″

ऋषभदेव जी समझ गये, ध्यानस्थ हो गये और अपनी योगशक्ति से उन्होंने अजनाभ खंड को हरा-भरा कर दिया बारिश करा के ।

इन्द्र संतुष्ट हुए, उन्होंने कहाः ″मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए सूखा किया था । मेरी जयंती नाम की कन्या है, उसे मैं वीर्यवान पुरुष को अर्पण करना चाहता था तो तुम्हारी परीक्षा ली कि तुम्हारे में बल है कि नहीं ? परम्परागत पिता की गद्दी मिली है कि नारायण का ओज है तुममें, वह देखने के लिए मैंने अनावृष्टि की । मेरी कन्या के लिए आप योग्य वर हैं ।″

देवताओं का राजा इन्द्र भारत के युवराज को अपनी कन्या देने के लिए आया है और आज का युवक प्लास्टिक  की पट्टियाँ ( फिल्मों ) के दृश्यों का अनुसरण कर गिड़गिड़ा के अपनी कमर तोड़ लेता है और चेहरा बूढ़े जैसा बना लेता है, कितने शर्म की बात है !

अपने जीवन की गाड़ी में ज्ञान की बत्ती चाहिए और संयम का ब्रेक चाहिए । ऋषभदेव में ये थे । अपने यौवन को बिखेरनेवाले जवानों में से नहीं थे नाभि-पुत्र राजा ऋषभदेव ।

जो-जो वीर्यवान हुए है, यशस्वी हुए हैं, वे चाहे संत हुए हों, चाहे राजा हुए हों, चाहे कोई सेनापति हुए हों, वे संयम से ही ऐसे हुए हैं । संयम के बिना व्यक्ति न भौतिक उन्नति में दृढ़ता से ऊँचे शिखर सर कर सकता है और न ही आध्यात्मिक उन्नति में ऊँचाई को छू सकता है ।

संयम के बिना मन एकाग्र नहीं होता, निरुद्ध नहीं होता और निरुद्ध और एकाग्र हुए बिना मन को परम सुख का अनुभव नहीं हो सकता है ।

ऋषभदेव राज्य-वैभव में रहे, वर्षों की लम्बी आयु होती थी उस समय । जयंती के गर्भ से सौ बेटों को जन्म दिया । वे बेटों को केवल आचार्यों से विद्या-शिक्षा-दीक्षा नहीं दिलाते थे, स्वयं भी धर्म की शिक्षा देते थे ।

ऋषभदेव जी का पुत्रों को उपदेश व परमहंस जीवन

आदर्श पिता

अपने बच्चों को बुलाकर ऋषभदेव कहते हैं- ″पुत्रो ! यह शरीर भोग भोगने के लिए नहीं  है । काम-विकार का भोग तो सूअर, कुत्ता और मुर्गे-मुर्गियाँ भी भोगते रहते हैं . यह दुर्लभ मनुष्य-शरीर योग करने के लिए है ।″

पिता बेटों को कहता हैः ″पिता न स स्यात्… वह पिता पिता नहीं है, जननी न सा स्यात्… वह जननी जननी नहीं है, दैवं न तत्स्यात्… वह देवता देवता नहीं है, गुरुर्न स स्यात्… वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजनो न स स्यात्… वह स्वजन स्वजन नहीं है जो अपने प्रिय संबंधी को संयम और भक्ति का मार्ग दिखाकर मुक्ति के रास्ते न ले जाय ।″

जो बोलते हैं कि ‘मन में जो आये वह करते जाओ, मन को रोको मत ।’ उन बेचारों को यह भागवत का प्रसंग अच्छी तरह से पढ़ना-विचारना चाहिए । दिव्य-प्रेरणा-प्रकाश ( युवाधन-सुरक्षा ) पुस्तक ( यह आश्रमों में सत्साहित्य सेवा केन्द्रों से व समितियों से प्राप्त हो सकती है । ) अच्छी तरह से 5 बार पढ़नी-पढ़ानी चाहिए ।

…त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।

जितना-जितना विषय-विकारों का त्याग होता जायेगा उतना-उतना शांत होते जायेंगे परमात्मशांति में और जितनी-जितनी पारमात्मिक शांति बढ़ेगी उतनी-उतनी आपकी योग्यता निखरेगी । आवश्यक सामर्थ्य मिलेगा और जो अवांछनीय वृत्तियाँ, अवांछनीय दोष हैं वे निवृत्त हो जायेंगे । जिसको ऊँचा जीवन जीना है, जिसको पाने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रहता ऐसे पद पर जाना है उसको भोगों के आकर्षण और भोगियों की मित्रता से बचते रहना चाहिए ।

जैसा संग वैसा रंग ।

…तो ऋषभदेव ने पुत्रों को उपदेश दिया । 100 बेटों में सबसे बड़े थे भरत, उनसे छोटे 9 पुत्र शेष 90 बड़े एवं श्रेष्ठ थे । उनसे छोटे कवि, हरि आदि 9 पुत्रों ने योगेश्वरों का मार्ग अपनाया, वे बड़े भगवद्भक्त थे । इनसे छोटे बाकी के 81 पुत्र संयम से होम-हवन करके क्षत्रिय में से ब्राह्मण होने के रास्ते चले ।

त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्

ऋषभदेव जी ने भरत का राजतिलक किया और अजनाभ खंड का विशाल राज्य छोड़कर उस आत्मपद में स्थिर होने के लिए अकेले चल पड़े । इतना विशाल राज्य लेकिन अंत में छोड़कर मरना है तो जीते-जी इसकी आसक्ति छोड़ के अमर आत्मा में चले गये, कैसी रही होगी ऋषभदेव की मति और कैसी रही होगी उनकी गति !

ऋषभदेव के पास जो वैभव था उतना वैभव आज के किसी सेठ के पास नहीं होगा, किसी नेता के पास नहीं होगा, आज के जमाने के 10 हजार करोड़ रुपयों से जो सोना और गहने आदि मिलते हैं उससे कई गुना ज्यादा वैभव ऋषभदेव के अधीन था । फिर भी उसको ठोकर मारकर वे आत्मदेव में स्थिति के लिए यात्रा करते हैं ।

ऋषभदेव ने राज्याभिषेक कर दिया अपने सुयोग्य भरत का और स्वयं एक आदर्श पुरुष, परमहंसों के मार्गदर्शक पुरुष बनकर, मिथ्या शरीर को मिथ्या जान के अमर आत्मा की यात्रा करने के लिए चल पड़े । उन्होंने ऐसा तो स्वाँग बनाया कि कोई सामने देखे ही नहीं । पूरा-का-पूरा समय उस समय अजपाजप में, उस सोऽहम्-स्वरूप में लगे रहे । चलते गये, चलते गये… अपने देश में भिक्षा माँगना मुश्किल है लेकिन परदेश में – जहाँ लोग नहीं पहचानते वहाँ भी ऐसा वेश बनाया कि कोई पहचाने नहीं । भूख लगती तो दो हाथों में भिक्षा माँगकर वह वीर पुरुष खा लेता, प्यास लगती तो चुल्लू भर के हाथ में पानी पी लेता । अभावग्रस्त नहीं थे, सब कुछ था लेकिन सब कुछ वास्तव में जिसका है उसको पाने में इससे अड़चन होती है तो सब कुछ को त्यागने में भी इस वीर ने देर नहीं की, चलते बने ।

भागवत में तो यहाँ तक आता है कि जैसे उन्मत्त हाथी जाता रहता है अपनी मस्ती से और मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं, ऐसे ही ऋषभदेव को मूर्ख लोग पागल समझते, उनका मजाक उड़ाते, उन पर कंकड़ उछालते, कोई उन पर थूकते तो कोई वो लेटे होते तो उन पर पेशाब कर देते थे, फिर भी ऋषभदेव जानते थे कि ‘जिस शरीर पर ये थूक रहे हैं, जिसका अपमान कर रहे हैं उसमें तो थूक भरा है और अपमान योग्य हाड़-मांस भरा है, मैं तो अमर-आत्मा हूँ, मेरा क्या बिगड़ता है !’ वे अपनी आत्ममस्ती में रहते थे । कभी-कभार तो लोग उनके आगे आकर अधोवायु छोड़ते फिर भी वे अपने चित्त को दूषित नहीं करते । सामने वाले का व्यवहार ऐसा-वैसा है लेकिन उसके व्यवहार से प्रभावित होकर हम दुःखी हों अथवा अप्रभावित रह से सम रहें यह हमारे हाथ की बात है । कितनी ऊँची समझ है ऐसे पुरुषों की ! ऐसे पुरुष ही भगवान हो के पूजे जाते हैं ।

त्याग बिना यह जीवन कैसे सफल विकास करे ।

…त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।

भोग-वासना का त्याग करो । हाँ, आवश्यकता है तो भोजन करो, मजा लेने के भाव से ठाँसो मत । आवश्यकता है तो देखो, विकार भड़काने के लिए मत देखो । विषय-विकारों का त्याग कर ऋषभदेव जी की तरह परमात्मा में स्थिति पा लो ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2022, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 352

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