कितने परदुःखकातर व सरल !
जो भी करो सावधानी से, तत्परता से, लापरवाहीरहित होकर करो । कोई बड़ा काम करने से व्यक्ति बड़ा नहीं होता, छोटा काम करने से व्यक्ति छोटा नहीं होता । मैं मेरे गुरुदेव ( पूज्यपाद भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज ) के साथ पत्थर उठाता था, गुरुदेव भी उठाते थे 75-80 साल की उम्र में । रास्ते में पत्थर पड़े दिखते तो गुरुदेव बोलतेः ″किसी को कष्ट होगा, ठोकर लगेगी ।″ उन पत्थरों को उठा लेते और इकट्ठे करके ऊपर पहाड़ी पर ले जाते और कुटिया बनाते कि साधक रहेगा ।
75 से 80 साल की उम्र में गुरुदेव आबू पर्वत पर पधारे थे । एक पहाड़ी थी उसको दीवाल करके गुफा बनाना चाहते थे तो मिस्त्री को बुलाया और उसके सहायक के रूप में गारा बना-बना के देने का काम गुरुदेव ने किया । फिर उस गुफा को दरवाजा लगाना था तो आबू के बाजार से दरवाजा खरीदा, मजदूर जरा महँगा मिल रहा था तो खुद अपने सिर पर उठाकर ले आये ।
कैसी आत्म-सहजता !
मेरे गुरुदेव लकड़ियाँ चुन के ले आते थे । आदिपुर में गुरुदेव की कुटिया थी । एक बड़ा प्रसिद्ध सेठ तोलानी जिसने अपने नाम का महाविद्यालय भी बनवाया था और निर्यातक ( एक्सपोर्टर ) था, वह दर्शन करने आया । बापू जी घूमने गये थे । वह सेठ बैठ-बैठ के थका । गुरुदेव का सेवक उनको ढूँढने गया तो बापू जी एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ से सिर पर रखा लकड़ियों के टुकड़ों का गट्ठर पकड़ के आ रहे थे । सेवक बोलता हैः ″बाबा ! पिता जी ! यह क्या कर रहे हो ? तोलानी सेठ जैसे तो इंतजार कर रहे हैं और आपने लकड़ियाँ चुनने में इतनी देर कर दी ! अब ऐसे चलोगे तो वह क्या मानेगा ?″
बोलेः ″कुछ भी माने क्या है ? दो वक्त की रोटी बन जायेगी, तेरे कोयले बच जायेंगे । इसमें क्या बुरा है ?″
किसी पर प्रभाव डालने के लिए आप जो भी कुछ करते हैं उससे आप अपनी आत्म-सहजता को दबाते हैं ।
बड़े-बड़े सेठ जिनके दर्शन का इंतजार कर रहे हैं वे गट्ठर लेकर आ रहे हैं । आश्रम में गट्ठर पटका ।
सेठ बोलाः ″ये लीलाशाह साँईं हैं ?″
सेवक बोलाः ″हाँ ।″
″अच्छा तो यह रजाई, यह फलाना, यह सामान…″
गुरुदेव बोलेः ″अच्छा-अच्छा ठीक है, प्रसाद लो… अच्छा जाओ आप ।″
उसको जल्दी भगा दिया और कोई गरीब चौकीदार था उसे बुलाकर बोलेः ″अरे, ले यह रेशम की रजाई आयी है । पिऽऽयूऽऽ…. लीलाशाह तेरे द्वारा भोगेगा, ले जा ।″ सब सामान बाँट दिया ।
कितनी सहजता ! कितनी स्वाभाविकता ! कोई परवाह ही नहीं कि ‘लोग क्या कहेंगे !’
जो पुजवाने के लिए कुछ करता है वह पूजने योग्य होता ही नहीं । जिसको पुजवाने की इच्छा ही नहीं वह वास्तव में पूजने योग्य ही होता है । गुरुदेव ने कभी नहीं कहा कि ‘तुम मेरे शिष्य बनो अथवा मुझे आदर से देखो या प्रणाम करो ।’ ऐसा उन महापुरुष के जीवन में कभी हम सोच भी नहीं सकते लेकिन मैं तन से तो प्रणाम करता हूँ, मन से करता हूँ, मति से भी करता हूँ ।″
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2022, पृष्ठ संख्या 17, 19 अंक 351
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