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Shri-Yogavashishtha

सृष्टियों का कोई पार नहीं – पूज्य बापू जी


शास्त्रों में इस जगत की पोल खोलने की बात आती है। ʹगर्ग संहिताʹ में आता है कि एक बार इन्द्र, ब्रह्माजी और शंकर जी गोलोक चले गये। गोलोक में राधाजी का ही राज्य है और सब महिलाओं के हाथ में ही सत्ता है। वहाँ की मुखिया भी महिला, मंत्री और चपरासी भी महिला, जासूसी विभाग में भी महिला…. तो इन तीन पुरुषों को देखकर चन्द्रानना सखी ने पूछाः “तुम तीन लोग कौन हो ? कहाँ से आये हो ?”

शिवजी तो शांत रहे। इन्द्र ने कहाः “ये ब्रह्माजी हैं।”

ब्रह्माजी ने कहाः “ये इन्द्रजी हैं और ये शिवजी हैं।”

“कहाँ से आये हो ? कौन सी सृष्टि के ब्रह्माजी हो ? कौन-से स्वर्ग के इन्द्र हो ?”

“जिस सृष्टि में राजा बलि हुए थे, भगवान वामन का अवतार हुआ था, उस पृथ्वी और उस समय के हम ब्रह्माजी हैं।”

तो तुम्हारे इस आत्मदेव की सृष्टियों का भी कोई पार नहीं है। ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ में आता है कि लाखों वर्ष पहले जिनको अभी तुम ʹपुरुषʹ बोलते हो वे स्त्री हो के गृहिणी का काम करते थे। जैसे घर सँभालना, गर्भधारण करना आदि । उनकी दाढ़ी-मूँछ भी होती थी। और जिनको अभी ʹमहिलाएँʹ बोलते हैं वे पुरुषों का काम करती थीं, वे कारोबार सँभालती थीं। तो इन सृष्टियों का कोई पार नहीं, परिवर्तनों का भी कोई पार नहीं लेकिन जो उस अनंत को अपना मानकर उसमें शांति पाता है और उसकी प्रीति, उसका ज्ञान और उसी में अपने ʹमैंʹ को मिलाता है, वह धन्य-धन्य हो जाता है, उसके माता-पिता को धन्यवाद है। बाकी तो एक-से-एक मकान, एक-से-एक सौंदर्य, एक-से-एक चीजें सब नाश को प्राप्त हो रही हैं। ʹगुरुवाणीʹ ने कहाः

किआ मागउ किछु चिरु न रहाई।

देखत नैन चलिओ जगु जाई।।

जब यह ऊँचा ज्ञान मिलता ह तो किसी से विरोध, किसी से द्वेष, किसी से ईर्ष्या….. – यह सारी मन की तुच्छ दौड़-धूप शांत हो जाती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 4, अंक 246

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मनमुखता मिटाओ, मुक्ति पाओ


ʹश्री योग वासिष्ठ महारामायणʹ में वसिष्ठजी कहते हैं- हे राम जी ! जिस शिष्य को गुरु के वचनों में आस्तिक भावना होती है, उसका शीघ्र कल्याण होता है।

पूज्य बापू जीः हाँ, गुरु के वचनों में आस्तिक भावना…. गुरु जी ने कहा है, बस ! शबरी भीलन को मतंग ऋषि ने कहाः “शबरी तू यहीं रहना। तुझे भगवान के पास जाना नहीं है, भगवान तो तेरे आत्मा हैं, फिर भी साकार भगवान तेरे पास आयेंगे।”

ʹकब आयेंगे ? आयेंगे कि नहीं आयेंगे ? हम बाट देखें क्या ?ʹ कुछ नहीं पूछा। गुरु जी ने कह दिया, बस ! रोज चढ़ती पेड़ पर, रोज झाँकती, ʹगुरु जी ने कहा है न ! राम जी आयेंगे।ʹ लोग उसे पागल बोलते लेकिन गुरुजी की बात को पकड़कर बैठ गयी। अभी शबरी जितनी आदरणीय हो गयी, उतना रावण नहीं है आदरणीय। क्या ख्याल है ? शबरी जितनी तृप्त रही उतना रावण अतृप्त होकर गया। अतृप्त आदमी गुनाही प्रवृत्ति करता है। तृप्त आदमी तो अपने में ही संतुष्ट है। तृप्त व्यक्ति को ही भगवान ने कहा है ʹयोगीʹ।

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

दृढ़निश्चयी… जैसा मन में आये ऐसा तो कुत्ता भी कर लेता है। जैसा मन में आये ऐसा तो पतंगे भी कर लेते हैं। नहीं, गुरु ने जो पाया है वह हम गुरु की आज्ञा में चलकर ही पा सकते हैं।

राग और द्वेष महाशत्रु हैं, झूठ-कपट अधोपतन का राजमार्ग है। सच्चाई और समता मुक्ति का मार्ग है। मुक्त होना तो अपने बायें हाथ का खेल है लेकिन वह गलती छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं। मनमुखता छोड़ते नहीं इसलिए मुक्ति का अनुभव नहीं होता। मुक्ति का अनुभव नहीं होता तो स्वच्छंदता हो जाती है। जैसा मन में आया ऐसा ही करोगे तो मन हावी हो जायेगा, इन्द्रियाँ हावी हो जायेंगी, जीव दुर्बल हो जायेगा। जैसे घोड़े की पूँछ पकड़ी तो आदमी दुर्बल हो जायेगा औऱ अगर घोड़े की लगाम पकड़ के उसको अपने अनुसार चलाया तो आदमी बलवान हो जायेगा। ऐसे ही मन पर लगाम आयी तो तुम बलवान हो जाओगे और मन की पूँछ पकड़ी तो मन घसीटकर ले जायेगा। अब पूँछ पकड़ो या लगाम, मर्जी तुम्हारी है।

गुरु जी बता रहे हैं- “बेटा ! तूने पूँछ पकड़ी है, अब इधर आ न, तेरे को लगाम पकड़ा दूँ।”

बोलेः “नहीं पकड़ में आ रही है।”

इसलिए मेरे कहने में आ जा बस, हो गया। कोई भी काम करें, गुरु जी को अच्छा लगेगा कि नहीं लगेगा ? अच्छा लगे वह करो, अच्छा नहीं लगेगा तो नहीं करो तो आ जायेगी लगाम। देर थोड़े ही है ! गुरु जी को यह बात पसंद है कि नहीं है ? हम मनमुख हो जायें, भटकू हों, आवारा हों तो गुरुजी को अच्छा लगेगा क्या ? नहीं लगेगा। बस हो गया। गुरु की आज्ञा में रहेंगे तो हमारी उन्नति देखकर गुरु जी खुश होंगे कि नहीं होंगे ? होंगे तो बस !

ऐसे कौन से गुरु हैं जो शिष्य की उन्नति देखकर खुश न हों और ऐसे कौन-से गुरु हैं जो शिष्य आवारा हो जाय और वे खुश हो जायें ? होंगे ? नहीं। तो गुरु की प्रसन्नता निमित्त है, भलाई तो अपनी होती है। गुरुजी प्रसन्न रहें, इसलिए अपन ऐसा नहीं करें। इसमें गुरु जी को फायदा नहीं है, अपने को ही फायदा है। मैं जो गुरु की आज्ञा में रहा…. गुरु जी थोड़े ही बोलते थे कि तुम बाल कटवाओ तो मेरे से पूछो। ऐसा गुरु जी ने कभी नहीं कहा। कई लोग कटवाते थे। ऐसा अब तुम नहीं पूछना बाल कटवाने के लिए, वह पूछना तो बनावटी होगा। बस हृदय से मनमुखता छोड़ने के लिए तैयार हो जाओ। भाषणबाजी तो कोई भी कर ले। पुजवाने की वासनावाले घुस जाते हैं गुरु की जगह पर, फिर ठुस्स भी हो जाते हैं बेचारे। गुरु का मतलब यह नहीं कि उपदेशक बन गये, चमचे-चमचियाँ पीछे घूमते रहे। यह गुरु का काम नहीं है। गुरु का काम है लघु को गुरु बना दें। विषय-विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद-आनंद में, भगवदरस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें।

जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हों, चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हों लेकिन गुरु  जी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरुजी की आज्ञा लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की, मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। तो गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की आज्ञा लेंगे। तो आज्ञा लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये ऐसा चल दिये तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।

गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।

      गुरु का सान्निध्य औऱ गुरु की आज्ञा हमें गुरु बना देती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 246

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श्रीरामचन्द्रजी का वैराग्य


(आत्मनिष्ठ पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रसाद से)

लगभग 16 वर्ष की वय में दशरथनंदन राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी अपने पिता से आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा करने निकले और सभी तीर्थों के दर्शन एवं दान, तप, ध्यान आदि करते हुए एक वर्ष बाद पुनः अयोध्या लौटेष तब एकांत में श्रीरामजी विचार करते हैं, ʹजितने भी बड़े-बड़े राजा, महाराजा, धनाढ्य और श्रीमंत थे, उनके अवशेषों को गंगा में प्रवाहित कर लोग आँसू गिरा के चले जाते हैं। इस प्रकार इस जगत की वस्तुओं में खेलने वाले जीवों के सारे अवशेष भी गंगा नदी में बह जाते हैं।ʹ

श्रीरामचन्द्रजी विवेक-वैराग्य के उपोरक्त विचारों में निमग्न थे, तभी विश्वामित्र मुनि श्रीराम और लक्ष्मण को अपने साथ ले जाने के लिए राजा दशरथ के यहाँ आये। दशरथ की नजरें जैसे ही विश्वामित्र पर पड़ीं, उन्होंने सिंहासन से उतरकर दंडवत् प्रणाम करके महर्षि विश्वामित्र का आदरपूर्वक सत्कार किया तथा उनके आगमन का कारण पूछा। तब विश्वामित्र जी ने दशरथ से अपने यज्ञ की रक्षार्थ राम और लक्ष्मण को अपने साथ भेजने को कहा। महर्षि विश्वामित्र के वचन सुनकर दशरथ जी मूर्च्छित जैसे होने लगे। तब वसिष्ठजी ने उनसे कहाः

“राजन् ! आप चिंता न करें। विश्वामित्रजी सुयोग्य एवं सामर्थ्वान हैं। ये परम तपस्वी हैं। इनसे बड़ा वीर पुरुष तो देवताओं में भी नहीं है। आप निर्भय होकर राम-लक्ष्मण को विश्वामित्रजी के साथ भेजिये।”

महर्षि वसिष्ठ के वचन सुनकर राजा दशरथ सहमत हो गये। उऩ्होंने रामजी को बुलाने के लिए सेवक भेजा। लौटकर सेवक कहता हैः “रामचन्द्रजी तो एकान्त कक्ष में बैठे हैं। हास्य विनोद की वस्तुएँ देने पर वे कहते हैं- ये नश्वर वस्तुएँ लेकर मुझे क्या करना है ? जिस प्रकार एक मृग हरी-भरी घास के आकर्षण में बह जाता है और शिकारी उसे मार डालता है, उसी प्रकार तुम लोग भी इऩ भोग-पदार्थों में फँस जाते हो और असमय काल के गाल में समा जाते हो। ऐसे भोग-पदार्थों में मुझे समय नष्ट नहीं करना है अपितु मुझे आत्मतत्त्व का अनुसंधान करना है।”

तब समस्त साधुगण, ऋषि मुनि और सभासद कहने लगेः “सचमुच, कितने विवेकपूर्ण वचन हैं श्रीरामचन्द्रजी के !”

विश्वामित्रजी ने राजा दशरथ से कहा, “हे राजन् ! यदि ऐसा है तो श्रीरामजी को हमारे पास लाओ, हम उनका दुःख निवृत्त करेंगे। हम और वसिष्ठादि एक युक्ति से उपदेश करेंगे, उससे उनको आत्मपद की प्राप्ति होगी।”

तत्पश्चात रामचन्द्रजी सभा में बुलाये गये। उन्होंने जगत की नश्वरता का जो वर्णन किया ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ के ʹवैराग्य प्रकरणʹ में वर्णित है।

दूसरा कोई ग्रंथ आप पूरा न पढ़ सकें तो योगवासिष्ठजी का वैराग्य प्रकरण ही पढ़ लेना, ताकि पुनरावृत्ति किस तरह से होती है यह समझ में आ जायेगा। आपके हृदय के द्वार खुलने लगेंगे। यह विचार उदित होगा कि ʹहम क्या कर रहे हैं ?ʹ

योगवासिष्ठ में छः प्रकरण हैं – वैराग्य प्रकरण, मुमुक्षु प्रकरण, उत्पत्ति प्रकरण, स्थिति प्रकरण, उपशम प्रकरण और निर्वाण प्रकरण। इन प्रकरणों में आप जीवन्मुक्त स्थिति तक पहुँच सको ऐसा सुंदर वर्णन है।

जो मनुष्य एक बार योगवासिष्ठ का पाठ करता है उसका चित्त शांत होने लगता है। फिर चित्त किधर जाता है इसे देखा जाय तो तुम्हारे संकल्पों-विकल्पों में सहजता से कमी होने लगती है। तुम्हारी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास होकर तुम्हारे ऐहिक, सांसारिक कार्य तो आसानी से होने लगेंगे ही, साथ ही जगत के कार्यों में जो सफलता मिलेगी उसका तुम्हें अहं न होगा और न ही उसमें आसक्ति होगी तथा न कभी वस्तुओं का चिंतन करते-करते मृत्यु ही होगी बल्कि तुम्हारे द्वारा अपने स्वरूप का चिंतन होते हुए मृत्यु देह की होगी और तुम देह की मृत्यु के द्रष्टा बनोगे।

सुकरात को जहर देने का आदेश दिया गया। जहर  बनाने वाला जहर पीस रहा है लेकिन सुकरात निश्चिंत होकर अपने मित्रों के साथ बातचीत कर रहे हैं। 5 बजते ही जहर पीना है और सुकरात दो मिनट में पहले ही जहर पीने वाले से कहते हैं- “भाई ! समय पूरा हो गया है, तुम देर क्यों कर रहे हो ?” तब वह बोलाः “आप भी अजीब इन्सान हैं ! मैं तो चाहता हूँ कि आप जैसे महापुरुष दो साँस और ले लें, इसलिए मैं जानबूझकर थोड़ी देर कर रहा हूँ।”

सुकरात कहते हैं- “तुम जानबूझकर देर करते हो लेकिन दो मिनट अधिक मैंने जो भी लिया तो कौन-सी बड़ी बात हो जायेगी ? मैंने तो जीवन जीकर देख लिया, अब मृत्यु को देखना है। मैं मरने वाला नहीं हूँ।”

जहर का प्याला आया…. मित्र और साथी रोने लगे…. तो वे महापुरुष समझाते हैं- “अब रोने का समय नहीं, समझने का समय है। यह जहर शरीर पर प्रभाव करेगा, किंतु मुझ पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ेगा।”

सुकरात पानी की तरह जहर पी गये। तत्पश्चात वे लेटकर अपने शिष्यों से, भक्तों से कहते हैं- “जहर का असर अब पैरों से शुरू हुआ है… अब जाँघों तक आ चुका है…. अब कमर तक उसका असर आ रहा है… रक्तवाहिनियों ने काम करना बंद कर दिया है…. अब हृदय तक आ पहुँचा है… अब मृत्यु यहाँ तक आ गयी लेकिन मृत्यु इस शरीर को मारती है, मृत्यु जिसको मारती है उसे मैं ठीक तरह से देख रहा हूँ। जो मृत्यु को देखता है उसकी मृत्यु होती ही नहीं, यह पाठ पढ़ाने के लिए मैं तुम्हें सावधान कर रहा हूँ।”

इसी प्रकार अपने जीवन में भी एक दिन ऐसा आयेगा। मौत से घबराने की जरूरत नहीं है, डरने की जरूरत नहीं है। ʹमौत किसकी होती है ? किस तरह होती है ?ʹ उस समय सावधान होकर जो यह निहारता है, जो मृत्यु को देखता है, वह मौत से परे अमर आत्मा को जानकर मुक्त हो जाता है।

बिल्ली को देखकर दाने चुगते कबूतर आँखें बंद कर लेता है लेकिन ऐसा करने से बिल्ली छोड़ नहीं देती। ऐसे ही जो दुःख, विघ्न और मौत से लापरवाही बरतेगा उसे मौत छोड़ेगी नहीं। मौत का साक्षी होकर मौत से परे अपने अमर आत्मा में जो जाग जाता है, वह धन्य हो जाता है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2012, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 238

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