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Shri-Yogavashishtha

जीवन वृथा जा रहा है अज्ञानियों का


श्री योगवाशिष्ठ महारामायण में श्री वसिष्ठ जी कहते हैं-  हे राम जी ! अपना वास्तविक स्वरूप ब्रह्म है। उसके प्रमाद से जीव मोह (अज्ञान) और कृपणता को प्राप्त होते हैं। जैसे लुहार की धौंकनी वृथा श्वास लेती है वैसे ही इनकी चेष्टा  व्यर्थ है।

पूज्य बापू जीः जैसे लुहार की धौंकनी वृथा श्वास लेती है, ऐसे ही अज्ञानियों का जीवन वृथा जा रहा है। जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप वैभव है, ज्ञान है, सुख है उसको पाते नहीं, ऐसे ही आपाधापी, ‘मेरा-तेरा’ कर-कराके इकट्ठा करके, छोड़ के मर जाते हैं। जो लेकर नहीं जाना है वह इकट्ठा कर रहे हैं। जो पहले नहीं था, बाद में नहीं रहेगा, उसी के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। जो पहले था, अभी है, बाद में रहेगा उसकी तरफ से अज्ञ हो रहे हैं।

श्री वसिष्ठ जी कहते हैं- इनकी चेष्टा और बोलना अनर्थ के निमित्त है। जैसे धनुष से जो बाण निकलता है वह हिंसा के निमित्त है, उससे और कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता, वैसे ही अज्ञानी की चेष्टा और बोलना अनर्थ और दुःख के निमित्त है, सुख के निमित्त नहीं और उसकी संगति भी कल्याण के निमित्त नहीं। जैसे जंगल के ठूँठ वृक्ष से छाया और फल की इच्छा करना व्यर्थ है, उससे कुछ फल नहीं होता और न विश्राम के निमित्त छाया ही प्राप्त होती है, वैसे ही अज्ञानी जीव की संगति से सुख नहीं होता। उनको दान देना व्यर्थ है। जैसे कीचड़ में घृत (घी) डालना व्यर्थ होता है वैसे ही मूर्खों को दिया दान व्यर्थ होता है। उनसे बोलना भी व्यर्थ है।

पूज्य श्रीः जिनको आत्मज्ञान में रूचि नहीं ऐसे मूर्खों को, अज्ञानियों को दान देना भी व्यर्थ है। अज्ञानी से सम्पर्क करना भी व्यर्थ है। जैसे ऊँट काँटों के वृक्ष को पाता है, ऐसे ही अज्ञानी के संग से अज्ञान ही बढ़ता है। ज्ञानी वह है जो भगवत्सुख में, अपने नित्य स्वरूप में लगा है। अज्ञानी वह है जो देख के, सूँघ के, चख के मजा लेना चाहता है। भोग उन्हें कहते हैं जो अपने नहीं हैं और सदा साथ में नहीं रहते और भगवान उसको कहते हैं जो अपने हैं और सदा साथ हैं। जो अनित्य हैं, अपूर्ण हैं और दुःख तथा अशांतिमय कर्म की सापेक्षता से प्राप्त होता है और प्राप्ति के बाद भी टिकता नहीं वह संसार है, उसको ‘जगत’ बोलते हैं। जो नित्य है, पूर्ण है, सुखस्वरूप है, शांतिस्वरूप है, जिसकी प्राप्ति में कर्म की अपेक्षा नहीं है, चतुराई, चालाकी, कपट की अपेक्षा नहीं है, सहज में प्राप्त है, केवल सच्चाई और प्रीति चाहिए, और किसी प्रयास से प्राप्त नहीं होता, जो अनायास, सहज, सदा प्राप्त होता है और मिटता नहीं उसको ‘जगदीश्वर’ बोलते हैं। तो अज्ञानी लोग दुःखमयी चेष्टा करते हैं, जो टिके नहीं उसी के लिए मरे जा रहे हैं और ज्ञानवान जो मिटे नहीं उसी में शांति, माधुर्य में मस्त हैं। परमात्मा की प्रीति, शांति और परमात्मा का ज्ञान सारे दुःखों को हरते हैं। परमात्म-प्राप्त महापुरुषों को देखते हैं तो शांति मिलती है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2016, पृष्ठ संख्या 10, अंक 280

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जीवन्मुक्त की विशेषताएँ


श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण में श्री वसिष्ठजी ने जीवन्मुक्त महापुरुष के लक्षण बताये हैं-
यथास्थितमिदं यस्य व्यवहारवतोऽपि च।
अस्तं गतं स्थितं व्योम जीवन्मुक्तः स उच्यते।।
इस समय हमारी वृत्यिओं के सामने जिस पर्वत, नदी और वनादि विशिष्ट जगत की प्रतीति हो रही है, जब यह हमारे सामने से देह-इन्द्रिय आदि के साथ समेट लिया जाता है अर्थात् जब इसका प्रलय हो जाता है, तब इन विभिन्नताओं के न रहने से यह अस्तंगत (नष्ट, लुप्त) हो जाता है। परंतु जीवन्मुक्ति में वैसा नहीं होता। यह सम्पूर्ण प्रपंच जैसे का तैसा बना रहता है और व्यवहार भी होता रहता है। प्रलय न होने से दूसरे लोग पूर्ववत स्पष्ट इसका अनुभव करते हैं किंतु जीवन्मुक्त में इसे प्रतीत कराने वाली वृत्ति के न होने से सुषुप्तिवत् इनको कुछ भी प्रतीत नहीं होता, अस्त हो जाता है। हाँ, सुषुप्ति की अपेक्षा विलक्षणता यह है कि सुषुप्ति में भावी वृत्ति का बीज संस्काररूप से रहता है और पुनः संसार का उदय होता है परंतु जीवन्मुक्त में बीज भी नहीं रहता। इसलिए पुनः कदापि संसार की प्रतीति नहीं होती।
नोदेति नाऽस्तमायाति सुखे दुःखे मुखप्रभा।
यथाप्राप्तस्थितेर्यस्य जीवन्मुक्तः स उच्यते।।
प्रारब्ध के अनुसार चंदन-पुष्पादि के सत्कार प्राप्त होने पर अथवा धन-जन हानि, धिक्कारादि दुःख के निमित्त उपस्थित होने पर संसारी पुरुषों की भाँति हर्ष या विषाद से जिसका मुख प्रसन्न या दुःखी नहीं होता, बिना विशेष चेष्टा के जो कुछ स्वयं प्राप्त हो गया उसी में शांति से जो स्थित रहता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है। पहले तो स्वरूप में ही स्थिति होने के कारण जीवन्मुक्त को इन विषयों की प्रतीति ही नहीं होती और यदि यथाकथंचित् थोड़ी देर के लिए प्रतीत हो भी जाय तो भी ज्ञान की दृढ़ता से हेय-उपादेय बुद्धि का अभाव होने से हर्ष और विषाद का आभास नहीं होता। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि प्रारब्ध से केवल सुख-दुःख के निमित्त ही आते हैं, न कि उन-उन निमित्तों के पश्चात आने वाले सुख-दुःख भी। कर्मचक्र के अनुसार घटनाएँ तो घटती ही रहती हैं परंतु आसक्ति के कारण हम सुखी-दुःखी होते हैं। जैसे प्रारब्ध के कारण हमें किसी दिन भोजन नहीं मिल पाता, इतना तो प्रारब्ध का काम है परंतु उससे हम दुःखी हों, यह आसक्ति का फल है और आसक्ति अज्ञान से होती है। संसार-चक्र की गति और स्वरूप से अनभिज्ञ होने से ही हम किसी देश, काल या वस्तु से आसक्ति करते हैं और सुखी-दुःखी होते हैं। जीवन्मुक्त भला इनसे प्रसन्न या दुःखी क्यों होने लगा ? यही तो इसकी विशेषता है।
जिन महापुरुषों को आत्मज्ञान होता है, उनके जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों, मान-अपमान और बीमारी-तंदुरुस्ती में सत्-बुद्धि नहीं होती। वे अपने सत्यस्वरूप को ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त जानते हैं। साधारण आदमी को मिथ्या जगत सच्चा लगता है और अपने सच्चे स्वरूप का भान नहीं रहता इसलिए वह उलझता रहता है। जो सत्शिष्य में से सदगुरु तक पहुँचा, वह महान आत्मा, नित्य नवीन रस में परितृप्त रहता है। बाहर से सामान्य आदमी जैसा लगता हुआ भी आत्मानुभव की सूझबूझ और परम शांति से तृप्त रहता है। अज्ञान से जिनका आत्मज्ञान आवृत हो गया, वे ही इन बदलने वाली परिस्थितियों को सच्चा मानकर परेशान हो जाते हैं। जिनको शीघ्र ही परम सुख, परम वैभव चाहिए वे वेदांत शास्त्र, सद्ज्ञान से सम्पन्न होकर जीवन्मुक्ति का अऩुभव कर लेते हैं। कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 28 अंक 267
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Rishi Prasad 268 Apr 2015

वासना मिटाओ, आत्मज्ञान पाओ


‘योगवासिष्ठ महारामायण’ में वसिष्ठजी कहते हैं- “हे राम जी ! जितने दान और तीर्थादिक साधन हैं उनसे आत्मपद की प्राप्ति नहीं होती।”
पूज्य बापू जीः “दान से धन शुद्ध होगा, तीर्थों से चित्त की शुद्धि होगी परंतु आत्मशांति, आत्मानंद सदगुरु के दर्शन-सत्संग से होगा। इसलिए बोलते हैं-
तीरथ नहाये एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले अनंत फल, कहत कबीर विचार।।
पढ़-लिखकर भाषण करना अथवा पुजवाना अलग बात है और परमात्मा को पाकर परमात्मा का रस बाँटना यह श्रीराम जैसे, श्रीकृष्ण जैसे, कबीर जी, नानकजी, साँईं श्री लीलाशाहजी बापू जैसे महापुरुषों का स्वभाव है।
जो अपने गुरु के नियंत्रण में नहीं रहता, उसका मन परमानंद को नहीं पायेगा। ऐसा नहीं कि गुरु जी के सामने कोई बैठे रहना है। गुरु जी नैनीताल में हैं या चाहे कहीं भी सत्संग कर रहे हैं लेकिन गुरुजी के नियंत्रण में अपने को रखकर हम सात साल रहे। कभी कहीं जाते तो गुरु जी की अनुमति लेकर जाते। चौरासी लाख जन्मों की मन की, इन्द्रियों की वासना से जीव भटकता रहता है, इसलिए गुरु की जरूरत पड़ी। गुरु एक ऐसा सहारा मिल गया कि अब कहीं भी जाओ तो गुरु जी की अनुमति लेंगे। तो अनुमति लेना ठीक है कि नहीं ? जैसा मन में आये वैसा करने लगे तो एक जन्म में क्या, दस जन्म में भी उद्धार होने वाला नहीं है।
गुरुकृपा हि केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
गुरुओं का सान्निध्य और गुरु की आज्ञा का पालन हमें गुरु बना देता है। गुरु वे हैं जो लघु को गुरु बना दें, विषय विकारों में गिरे हुए जीवों को भगवद्-आनंद में, भगवद्-रस में, भगवत्प्रीति में पहुँचा दें। अतः जब गुरु आते हैं तो सुधरने का मौसम होता है और गुरु चले जायें तब सावधान होने का मौसम होता है कि हम बिगड़े नहीं। जितना सुधरे हैं उतना सुधरे रहें फिर आगे बढ़ें।”
वसिष्ठ जी बोलेः “हे राम जी ! जहाँ शस्त्र चलते हैं और अग्नि लगती है, वहाँ भी सूरमा निर्भय होकर जा पड़ते हैं और शत्रु को मारते हैं। प्राण जाने का भय नहीं रखते तो तुमको संसार की इच्छा त्यागने में क्या भय होता है ?”
पूज्य बापू जीः “लड़ाइयाँ हो रही हैं, वहाँ भी सूरमे लड़ते हैं। आग लग रही है, अग्निशामक दल वाले वहाँ जाकर कूद पड़ते हैं। कोई मर भी जाते हैं। प्राण त्यागने में इतनी बहादुरी करते हैं तो तुमको केवल वासना त्यागनी है और क्या करना है ? मनमुखता त्यागनी है और क्या करना है ? कोई मेहनत है क्या ? लेकिन मनमुखता पुरानी है, कई जन्मों की है और अभी भी उसमें महत्त्व है। भगवान को पाने का महत्त्व नहीं है। रामायण में शिवजी कहते हैं-
सुनहु उमा ते लोग अभागी।
हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।।
जो हरि का रस छोड़कर विषय-विकारों से संतुष्ट हो रहे हैं, वे बड़े अभागे हैं। शरीर की ममता त्यागें, आत्म-परमात्म सुख में जागें।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2015, पृष्ठ संख्या 23, अंक 268
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