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Shri-Yogavashishtha

पूर्णरूप से भयरहित क्या और क्यों ?


भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं

मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।

शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं

सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।

‘भोगविलास में रोगादि उत्पन्न होने का, सत्कुल में वंश-परम्परा टूटने का, द्रव्य (धन-सम्पदा) में राजा का, मौन-धारण में दीनता का, पराक्रम में शत्रु का, सुंदरता में जरा (बुढ़ापा) का, शास्त्र में विवाद का, गुण में दुर्जन का और काया में मृत्यु का भय सर्वदा बना रहता है। इसलिए इस पृथ्वीतर पर और सब पदार्थ तो भययुक्त हैं परंतु एक वैराग्य ही ऐसा है कि जो सब प्रकार के भयों से सर्वथा मुक्त है।’ वैराग्य शतकः31

यदि मनुष्य विष्य-सुखों को भोगता है तो उसे रोगों का भय सताता रहता है। यदि चंदन आदि शीतल पदार्थों का बारम्बार या अधिक लेपन किया जाता है तो बादी (वायु) हो जाती है। यदि व्यक्ति का उच्च कुल में जन्म होता है तो सदा उसके पतन या उसमें कोई दोष होने का डर लगा रहता है। कुल में किसी के भी दुराचारी होने से कुल की बदनामी का भय रहता है। इसी तरह अधिक धन होने से राजा का डर लगा रहता है कि ‘कहीं राजा सारा धन छीन न ले !’ चुप रहने में अप्रतिष्ठा और दीनता का भय रहता है। चुप रहने वाले को अनेक लोग दीन-हीन समझ लेते हैं। संग्राम में शत्रुओं का भय रहता है। यदि सूरत सुंदर होती है तो उसके बिगड़ जाने का भय रहता है। बुढ़ापे में रूप-रंग नष्ट हो ही जाता है। शास्त्रों के जानने वाले को प्रतिपक्षियों का भय रहता है। प्रतिपक्षी सदा उसे नीचा दिखाना और उसका अपमान करना चाहते हैं। पुण्य या सदगुणों में दुष्टों का भय रहता है। दुष्ट लोग अच्छे से अच्छे कामों में दोष निकाल कर उनका उलटा अर्थ लगाने लगते हैं। वे निंदा या अपवाद करके गुणी के गुणों का मूल्य घटाने की भरपूर चेष्टा किया करते हैं। शरीर के पीछे मृत्यु का भय लगा रहता है। काया का नाश अवश्यम्भावी है। जो शरीर में आया है, जिसने यह शरीररूपी वस्त्र पहना है उसे यह छोड़ना ही होगा।

इस तरह विचार करने से यही सिद्ध होता है कि मनुष्य को सभी सांसारिक पदार्थों में भय ही भय है। फिर भय किसमें नहीं है ? केवल वैराग्य ही ऐसा है जिसमें किसी भी बात का भय नहीं है।

‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ में अपने गुरुदेव श्री वसिष्ठ मुनि से भगवान श्री रामचन्द्र जी कहते हैं- “सभी भोग संसाररूपी महारोग हैं अर्थात् जैसे अपथ्य-सेवन से रोग नष्ट नहीं होता, वैसे ही भोगों के सेवन से संसाररूपी महारोग बना रहता है।”

ओह ! विषयी जीवन कितना क्षणभंगुर है। यदि मनुष्य इस पर तथा इसके परिणाम पर शांत चित्त से विचार करे, यदि वह इस बात को समझ सके कि ‘विषयभोग के अनंतर दुःख, चिंता, परेशानी एवं मृत्यु निश्चित है।’ तो वह कभी भी उनसे लिप्त न हो और वैराग्य भाव उसके भीतर उत्पन्न हो जाये। क्षणिक वैराग्य कभी-कभी लोगों के अंदर उत्पन्न हो जाया करता है किंतु वह या तो किसी स्वजन की मृत्यु के कारण उत्पन्न होता है या धन-सम्पत्ति के विनाश आदि के कारण। वास्तविक वैराग्य संसार की नश्वरता या आत्मज्ञान के दृढ़ चिंतन एवं विवेक के उपरांत उत्पन्न होता है और वही स्थायी होता है।

वैराग्य कैसे बढ़े ? इस बारे में पूज्य श्री के सत्संग में आता हैः “वैराग्य आने अथवा जगाने के कई तरीके होते हैं। एक तो कहीं घर में झगड़ा हुआ, कोई मर गया अथवा तो कोई इच्छित वस्तु नहीं मिली, मजदूरी कर-कर के थके कि ‘छोड़ो, संसार ऐसा ही है।’ अथवा तो सत्संगियों का संग मिला और कुछ विवेक हुआ तो देखा कि ‘सब ऐसे ही है भाई ! बड़े-बड़े चले गये तो अपन क्या हैं ?’ विवेक जगा। जप करने से और ‘भगवान के सिवाय कोई सार नहीं है’ ऐसा थोड़ा विवेक जगने से भी वैराग्य आता है। विषय-विकारों का सुख कितना भी मिला हो पर भगवान के सुख के आगे तुच्छ ही है। ‘कामविकार भोगा, देखा तो बाद में क्या मिला ? सत्संग और ध्यान के बाद तो इतना बढ़िया होता है लेकिन कामविकार भोगने के बाद तो इतन सत्यानाश…..’ ऐसा विवेक करने से भी वैराग्य आता है। बेटे-बेटियों को कमा के खिलाया, नहलाया-धुलाया और उन्हीं के द्वारा उद्दंड व्यवहार हुआ तो विवेक करें। इससे वैराग्य आयेगा। देह की बीमार अवस्था अथवा देह की नश्वरता देखकर विवेक जगायें अथवा श्मशान में गये तो मन को कहें कि ‘यही शरीरों का हाल है !’

जन्म, मृत्यु, वृद्ध अवस्था और व्याधियों का ख्याल करो। ‘बेटों का क्या होगा ? परिवार का क्या होगा ?’ इस चक्कर से निकल जाओ। हम अपना प्रारब्ध लेकर आये थे। आप पिछले जन्म में किसी के बेटे थे। न वे संबंधी साथ आये न वह शरीर साथ आया। अभी भी यह शरीर आपका नहीं है। आपका होता तो कहने में चलता। आप नहीं चाहते हो कि यह बीमार होवे फिर भी हो जाता है। फिर भला यह आपका कैसे हो सकता है ? यह तो मोह-ममता है कि ‘बेटा मेरा, फलाना मेरा, फलाना मेरा……।’ एक आत्मा ही अपना है, बाकी सब सपना है। वैराग्यरसिको भव भक्तिनिष्ठः। वैराग्य में राग करो और परमात्मा का रस पाओ, भक्तिनिष्ठ हो जाओ। इसी से आपका कल्याण होगा।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2017, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 292

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सर्व सफलताओं का मूल आत्मविश्वास


किसी भी क्षेत्र में सफलता का मूल रहस्य आत्मविश्वास है। आत्मविश्वास का मुख्य उद्देश्य है हृदय-क्षुद्रता का निराकरण। जिसके अंदर आत्मविश्वास होता है वह अनेक प्रतिकूलताओं के बावजूद संतुलित मनोमस्तिष्क से हर समस्या का समाधान सहज ही कर लेता है। अगर सारी साधन-सुविधाएँ उपलब्ध होने पर भी किसी में आत्मविश्वास का अभाव हो तो वह दीन हीन और किंकर्तव्यविमूढ़ (कर्तव्य का निर्णय करने में असमर्थ) हो जाता है। आत्मविश्वास की कमी असफलताओं की जननी है। अपनी शक्ति में विश्वास से ही शक्ति प्राप्त होती है।

श्री योगवासिष्ठ महारामायण में कहा गया हैः मानसं विद्धि मानवम्। मनुष्य मनोमय है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है।

जो अपने को दीन-हीन समझता है वह दीन-हीन बन जाता है और इसके विपरीत जो अपने दिव्य स्वरूप, आत्मस्वरूप का ज्ञान पाता है, चिंतन करता है, उसके स्वभाव, संस्कार में दिव्यता भरती जाती है।

सफलता और असफलता में बहुत अंतर नहीं होता। जिस बिंदु पर असफलता की मृत्यु (समाप्ति) होती है, उसी बिंदु पर सफलता का जन्म (प्रारम्भ) हो जाता है।

सकारात्मक चिंतन व ईश्वर-विश्वास का प्रभाव

टॉमी नामक एक लड़का बचपन से ही बहरा और काफी मंदबुद्धि था। शिक्षक ने उसके माता पिता को कहाः “आपका बेटा कुछ नहीं सीख सकता। उसे स्कूल से निकाल लीजिये।”

वही बालक आगे चलकर महान आविष्कारक थामस एडीसन बने, जिन्होंने फोनोग्राफ, विद्युत बल्ब आदि अनेक महत्वपूर्ण आविष्कार किये। बिजली का बल्ब बनाने से पहले वे उसमें हजारों बार असफल हुए किंतु उन्होंने अपने आत्मबल को नहीं गिराया और अंततः अपने कार्य में सफल हुए।

67 वर्ष की आयु में एडीसन की फैक्ट्री जल गयी। उनकी जिंदगी भर की मेहनत धुआँ बनकर उड़ गयी लेकिन उन्होंने कहाः “यह बरबादी बहुत कीमती है। हमारी सारी गलतियाँ जलकर राख हो गयीं। मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने हमें नयी शुरुआत करने का मौका दिया।”

कैसा सकारात्मक चिंतन व दृढ़ ईश्वर-विश्वास था उनका ! इनका दो गुणों के बल पर व्यक्ति असम्भव को भी सम्भव कर दिखाता है। भारतीय चिंतन इससे भी ऊँचा और सूक्ष्मतम है। वह भौतिक उपलब्धियों से अनंत गुना हितकारी है एवं उनका सभी उपलब्धियों की अचल आधारसत्ता सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा का, वेदांत का ज्ञान करा देता है।

‘मुद्राराक्षस’ नामक ग्रंथ में लिखा हैः ‘अनेक लोगों के मुख से जब चाणक्य ने सुना कि कई प्रतिभाशाली व्यक्ति उनका साथ छोड़कर विपक्षियों में मिल गये हैं, उस समय उन्होंने आत्मविश्वासपूर्वक कहा थाः “जो चले गये हैं, वे तो चले ही गये हैं, जो शेष हैं वे भी जाना चाहें तो जा सकते हैं। मेरी कार्यसिद्धि में सैंकड़ों सेनाओं से अधिक बलशाली केवल एक मेरी सत्-बुद्धि मेरे साथ रहे।” उनका आत्मविश्वास एवं सत्-चिंतन रंग लाया और अंततः उन्होंने नंदवंश को पछाड़ ही डाला।

सभी महान विभूतियों एवं संतों-महापुरुषों की सफलता व महानता का रहस्य आत्मविश्वास, आत्मबल, सदाचार में ही निहित रहा है। उनके जीवन में चाहे कितनी भी प्रतिकूल व कठिन परिस्थितिआँ आयीं पर वे घबराये नहीं, आत्मविश्वास व निर्भयता के साथ उनका सामना किया और महान हो गये। वीर शिवाजी ने 16 वर्ष की उम्र में तोरणा का किला जीत लिया था। पूज्यपाद लीलाशाह जी महाराज ने 20 वर्ष की उम्र में ही परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया। गांधी जी ने आत्मविश्वास के बल पर ही अंग्रेज शासकों को भारत छोड़ के भागने पर मजबूर कर दिया।

1893 में जिस विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद जी ने धर्म-ध्वजा फहरायी थी, उसी में 1993 में पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू ने भारतीय संस्कृति की महानता और सत्य सनातन वैदिक ज्ञान का डंका बजाया था। इसके पीछे भी इन महापुरुषों का आत्मबल, आत्मविश्वास ही था।

पांडवों की सीमित सेना द्वारा कौरवों की विशाल सेना के छक्के छुड़ाने की बात हो या सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा छोटे-छोटे टुकड़ों और रियासतों में बँटे भारत के एकीकरण के महत्कार्य की, इन सफलताओं के पीछे भी आत्मविश्वास ही था।

बहुत से छात्र साधारण योग्यता होते हुए भी आत्मविश्वास के धनी होने के कारण प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते जले जाते हैं और अनेक योग्य छात्र भी आत्मविश्वास के अभाव में यही सोचते रह जाते हैं कि ‘क्या हम सफल हो पायेंगे !’

आत्मविश्वास के अभाव से ही पूरे  वर्ष कड़ी मेहनत करने पर भी जब परीक्षा की घड़ी आती है तो बहुत से छात्र हताश हो जाते हैं और जानते हुए भी जवाब नहीं दे पाते, फलतः असफल हो जाते हैं।

आत्मविश्वास कैसे जगायें ?

पूज्य बापू जी सत्संग में बताते हैं- “आत्मविश्वास यानी अपने आप पर विश्वास। आत्मविश्वास ही सभी सफलताओं की कुंजी है। इसकी कमी होना, स्वयं पुरुषार्थ न करके दूसरे के भरोसे अपना कार्य छोड़ना – यह अपने साथ अपनी आत्मिक शक्तियों का भी अनादर करना है। ऐसा व्यक्ति जीवन में असफल रहता है। जो अपने को दीन-हीन, अभागा न मानकर अजन्मा आत्मा, अमर चैतन्य मानता है, उसको दृढ़ विश्वास हो जाता है कि ईश्वर व ईश्वरीय शक्तियों का पुंज उसके साथ है।

आत्मविश्वास मनुष्य की बिखरी हुई शक्तियों को संगठित करके उसे दिशा प्रदान करता है। आत्मविश्वास से मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक शक्तियों का मात्र विकास ही नहीं होता बल्कि ये सम्पूर्ण शक्तियाँ उसके इशारे पर नाचती हैं।

आत्मविश्वास सुदृढ़ करने के लिए प्रतिदिन शुभ संकल्प व शुभ कर्म करने चाहिए तथा सदैव अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए। जितनी ईमानदारी व लगन के साथ हम इस ओर अग्रसर होंगे, उतनी ही शीघ्रता से आत्मविश्वास बढ़ेगा। फिर कैसी भी विकट परिस्थिति आने पर हम डगमगायेंगे नहीं बल्कि धैर्यपूर्वक अपना मार्ग खोज लेंगे। फिर भी यदि कोई ऐसी  परिस्थिति आ जाय जो हमें हमारे लक्ष्य से दूर ले जाने की कोशिश करे तो परमात्म-चिंतन करके ‘ॐ’ का दीर्घ उच्चारण करते हुए हमें ईश्वर की शरण चले जाना चाहिए। इससे आत्मबल बढ़ेगा, खोया हुआ मनोबल फिर से जागृत होगा। (आत्मबल जगाने के प्रयोग हेतु पढ़ें आश्रम की पुस्तक ‘जीवन रसायन’, पृष्ठ 92)

अतः कैसी भी विषम परिस्थिति आये, घबरायें नहीं बल्कि आत्मविश्वास जगाकर आत्मबल, उद्यम, साहस, बुद्धि व धैर्यपूर्वक उसका सामना करें और अपने लक्ष्य को पाने का संकल्प दृढ़ रखें।

लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल1

सफलता तेरे कदम चूमेगी, आज नहीं तो कल।।

1 शास्त्र व ब्रह्मज्ञानी संत से।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2017, पृष्ठ संख्या 12,13,26 अंक 291

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भटकाने वाली तृष्णा को छोड़कर परमात्मा को पा लो


विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा

परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।

जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपण-

स्तृषापात्रं यस्यां भवति मरुतामप्योधिपतिः।।

‘विवेक के प्रकट होने से शम (मन का नियंत्रित होकर शांत होना) होने पर विषयों को भोगने की तृष्णा शांत हो जाती है। नहीं तो विषयों का अत्यधिक प्रसंग होने से वह (भोगतृष्णा) बलवती होकर बढ़ती जाती है। जिससे (इन्द्र) भी जरा (वृद्धावस्था) से क्षीण एवं ऐश्वर्यप्राप्ति के अभिलाषी होने से देवपति होकर तृष्णा के पात्र बने रहते हैं अर्थात् उऩकी भी भोगतृष्णा बनी रहती है।’ (वैराग्य शतकः 9)

पूज्य बापू जी के वचनामृत में आता है- “आशा ही जीव को जन्म-जन्मांतर तक भटकाती रहती है। मरूभूमि में पानी के बिना मृग का छटपटाकर मर जाना भी इतना दुःखद नहीं है जितना तृष्णावान का दुःखी होना है। शरीर की मौत की छटपटाहट 5-10 घंटे या 5-10 दिन रहती है लेकिन जीव तृष्णा के पाश में युगों से छटपटाता आया है, गर्भ से श्मशान तक ऐसी जन्म-मृत्यु की यात्राएँ करता आया है। गंगा जी की बापू के कण तो शायद गिन सकते हैं लेकिन इस आशा-तृष्णा के कारण कितने-कितने जन्म हुए यह नहीं गिन सकते। मानव कितना महान है लेकिन इस अभागी तृष्णा ने ही उसे भटका दिया है।

आज की इच्छा कल का प्रारब्ध बन जाती है इसलिए भोगने की, खाने की, देखने की आशा करके अपने भविष्य को नहीं बिगाड़ना चाहिए। हे मानव ! जीते जी आशा तृष्णारहित होकर परमात्म-साक्षात्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

संसार की वस्तुओं को पाने की तृष्णा में हम दुःखद परिस्थितियों को मिटाने की मेहनत और सुखद परिस्थितियों को थामने का व्यर्थ यत्न करने ही उलझ गये हैं। अज्ञान से यह भ्रांति मन में घुस गयी है कि ‘कुछ पाकर, कुछ छोड़ के, कुछ थाम के सुखी होंगे।’ हालाँकि सुख के संबंध क्षणिक हैं फिर भी उसी को पाने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं और जो शाश्वत संबंध है आत्मा-परमात्मा का, उसको जानने का समय ही नहीं है। कैसा दुर्भाग्य है ! ऐसी उलटी धारणा हो गयी है, उलटी बुद्धि हो गयी है।

ईश्वर हमसे एक इंच भी दूर नहीं है। जरूरत है तो केवल उसे प्रकट करने की। जैसे लकड़ी में अग्नि में छुपी है किंतु उस छुपी हुई अग्नि से भोजन तब तक नहीं पकता, जब तक दियासिलाई से अग्नि को प्रकट नहीं करते। जैसे विद्युत-तार में विद्युतशक्ति छुपी है किंतु उस छुपी हुई शक्ति से विद्युत तार संचारित होकर बल्ब से तब तक प्रकाश नहीं फैलाता, जब तक स्विच चालू नहीं करते। ऐसे ही परमात्मा अव्यक्तरूप से सबमें छुपा हुआ है किंतु जब तक जीव की वासनाओं का महत्त्व ज्ञानरूपी दियासिलाई से जल नहीं जाता, चित्त वासनारहित नहीं हो जाता, तब तक अंतःकरण में ईश्वरत्व का प्राकट्य नहीं होता।

‘श्री योगवाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः ‘जिस पुरुष का यथाक्रम और यथाशास्त्र आचार व निश्चय है, उसकी भोग की तृष्णा निवृत्त हो जाती है और उस पुरुष का गुणगान आकाश में विचरण करने वाले सिद्ध देवता और अप्सराएँ भी करते हैं।’

अतः देर न करो, उठो…. अपने-आप में जागे हुए निर्वासनिक महापुरुषों के, सदगुरुओं के चरणों में पहुँच जाओ, अपनी तुच्छ इच्छाओं को जला डालो, अपने ज्ञानस्वरूप में जाग जाओ। ऐसे अजर-अमर पद को पा लो कि फिर तुम्हें दुबारा गर्भवास, जरा-व्याधि व मौतों का दुःख न सहना पड़े। ॐ…..ॐ….ॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 10 अंक 288

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