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Shri-Yogavashishtha

हे मन ! तू परमात्मा में लग


एतस्माद्विरमेन्द्रियार्थगहनादायासकादाश्रय

श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणात्।

स्वात्मीभावमुपैहि सन्त्यज निजां कल्लोललोलां गतिं

मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।।

‘हे चित्त ! श्रोत्रादि इन्द्रियों के शब्दादि विषयरूपी वन से विश्राम ले अर्थात् इऩ लौकिक वस्तुओं से मुँह मोड़ व जिससे क्षणभर में ही सारे दुःखों की निवृत्ति हो जाती है ऐसे ज्ञानमार्ग का अनुसरण करके ‘स्व’ स्वरूप का अनुसंधान करने में लग। शांत भाव अपना और तरंग सी अपनी चंचल गति को छोड़ दे। इस नाशवान संसार की इच्छा का बार-बार सेवन मत कर अपितु अब प्रसन्न और स्थिर हो जा।’ (वैराग्य शतकः 63)

शास्त्र कहते हैं कि ‘मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है।’ भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा हैः “संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं को निःशेषरूप से त्यागकर और मन के द्वार इन्द्रियों के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँति रोक के क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन न करे।” (गीताः 6.24-25)

शुद्ध एवं पवित्र मन ईश्वरप्राप्ति कराता है जबकि अपवित्र एवं अशुद्ध मन पतन की खाई में धकेल देता है। अतः योगी भर्तृहरि जी उपरोक्त श्लोक में हमें समझा रहे हैं कि हम अपने मन को सही मार्ग पर चलायें।

योगवासिष्ठ में श्रीरामचन्द्र जी मन की जटिलता का वर्णन करते हुए महर्षि वसिष्ठ जी से कहते हैं- ”हे मुनिवर ! सम्पूर्ण पदार्थों का कारण चित्त ही है,  उसके अस्तित्व में तीनों लोकों का अस्तित्व है और उसके क्षीण होने पर तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन की चिकित्सा करनी चाहिए अर्थात् रोग की तरह चित्त का अवश्य परित्याग करना चाहिए। जैसे विंध्याचल आदि श्रेष्ठ पर्वतों से अनेक वनों की उत्पत्ति होती है, वैसे ही मन से ही ये सैंकड़ों सुख-दुःख उत्पन्न हुए हैं। ज्ञान से चित्त के क्षीण होने पर वे अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं, ऐसा मेरा निश्चय है।”

मुक्तिकोपनिषद् (2.17) में आता हैः

सम्यगालोचनात्सत्याद्वासना प्रविलीयते।

वासनाविलये चेतः शममायाति दीपवत्।।

‘भलीभाँति विचार करने से और सत्य के आभास से वासनाओं के नाश से चित्त उसी प्रकार विलीन हो जाता है जैसे तेल के समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है।’

पूज्य बापू जी की अमृतवाणी में आता हैः “मन से कहो कि हे मन ! तू धन में लगा, उसके पहले तू काम विकार में लगा, उसके पहले तू खिलौनों में लगा…. सब खिलौने चले गये, काम विकार के दिन चले गये और धन भी चला गया परंतु जो कभी नहीं जाता, हे मेरे मन ! तू परमात्मा में लग। तू शरीर और आत्मा के बीच का एक सेतु है। अब तू जागा है यह तो ठीक है परंतु यदि उलटी-सीधी चाल चलेगा तो संसार की झंझटें ही लगी रहेंगी। इसलिए तू अपने को कर्ता मानकर संसार के बोझ को न तो चढ़ाना न ही बढ़ाना परंतु ईश्वर को कर्ता-धर्ता मान के, स्वार्थरहित हो के सेवाभाव से कर्म करना और प्रसन्न रहना। अहंकारयुक्त कर्म करके अज्ञान को बढ़ाना नहीं अपितु विनम्र हो के आत्मज्ञान पाने का यत्न करना।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 303

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परम सुख की प्राप्ति कैसे ?


श्री योगवासिष्ठ महारामायण में वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- हे राम जी ! जो बोध से रहित किंतु चल ऐश्वर्य से बड़ा है उसको तुच्छ अज्ञान नाश कर डालता है, जैसे बल से रहित सिंह को गीदड़, हिरण भी जीत लेते हैं। इससे जो कुछ प्राप्त होता दृष्टि आता है वह अपने प्रयत्न से होता है। अपना बोधरूपी चिंतामणि हृदय में स्थित है, उससे विवेक रूपी फल मिलता है। जैसे जानने वाला केवट समुद्र से पार करता है, अजान नहीं उतार सकता, तैसे ही सम्यक् बोध संसार-समुद्र से पार करता है और असम्यक् बोध जड़ता में डालता है।

पूज्य बापू जीः सम्यक् बोध और असम्यक् बोध…… सम्यक बोध माना सही ज्ञान, वह संसार से, दुःखों से पार कर देता है और असम्यक बोध माना गलत ज्ञान, वह संसार चक्र में फँसा देता है। सही ज्ञान क्या है ? कि हम सुख चाहते हैं, सदा चाहते हैं और स्वतंत्रता चाहते हैं। कुछ भी काम करें, हम सुख को पाने और दुःख को मिटाने के लिए करते हैं और वह सुख सदा रहे यह भी मन में होता है। कोई कहेः ‘भगवान करे कि आप दो घंटे सुखी रहो, बाद में दुःखी हो जाओ’ तो अच्छा नहीं लगेगा। दो दिन सुखी रहो फिर दुःखी होना…. — अच्छा नहीं लगेगा। दो साल आप सुखी रहो फिर दुःखी होना…. – अच्छा नहीं लगेगा। यहाँ जीते जी सुखी रहो फिर नरकों में जाना….. – नहीं अच्छा लगता। तो आप सुख भी चाहते हैं और सदा के लिए भी चाहते हैं। अच्छा, सुखी तो रहो लेकिन बंधन में रहो….. नहीं, बंधन नहीं चाहिए। तो आप स्वतंत्रता भी चाहते हैं। रामायण भी कहता हैः

पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं।

जो पराधीन होता है उसको तो स्वप्न में भी सुख नहीं है। टुकड़े-टुकड़े के लिए जो जीव-जंतु भटकता है, उसको आप फँसाकर (कैद करके) फिर बढ़िया से बढ़िया खाने को दो तो वह खायेगा नहीं, बाहर निकलने को छटपटायेगा। अपनी मर्जी से आप घंटों भर कमरा बंद करके बैठो, परवाह नहीं लेकिन बाहर से किसी ने कुंडा-ताला लगा दिया तो छटपटाहट होगी। तो आप बंधन भी नहीं चाहते और सदा व शाश्वत सुख चाहते हैं लेकिन गलती यह करते हैं कि जो स्वतंत्र सुख है, सदा सुख है, निर्बंध सुख है उधर का ज्ञान नहीं, उधर की प्रीति नहीं, उधर की रूचि नहीं और जो सदा रहने वाला नहीं है, परतंत्रता देने वाला है उधर चले जाते हैं।

जैसे दीये पर पतंगे आ जाते हैं, गाड़ियों की सामने की बत्ती (हेडलाइट) पर जंतु उड़ते-उड़ते आते हैं, तो आते सुख के लिए हैं, दुःख लेने को नहीं आते लेकिन गलत निर्णय है, गलत बुद्धि है तो दुःखी हो जाते हैं। जहाँ सुख नहीं है, केवल सुख का आभास है, वहाँ सुख समझ के जैसे पतंगे जिंदगी खो देते हैं ऐसे ही आम आदमी भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में छटपटा के जिंदगी पूरा कर देता है।

गीता (2.70) में कहा हैः स शान्तिमाप्नोति न कामकामी। शांति वह पाता है जो भोगों से विचलित नहीं होता। जिसको सम्यक् ज्ञान है, सत्य का सुख पाता है, सत्य सुख की माँग है और सत्य सुख में ले जाने वाला सत्संग मिल गया है, वही आत्मसुख में संतुष्ट हो जाता है, भोगों को चाहने वाला नहीं। श्रीकृष्ण कहते हैं- संतुष्टः सततं योगी… विषय विकारों के भोग-सुखों वाला न सदा सुखी रह सकता है, न सदा संतुष्ट रह सकता है। स शान्तिमाप्नोति…. यह मिल जाय तो सुखी हो जाऊँ, यह हट जाय तो सुखी हो जाऊँ, यहाँ चला जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ….. हिंदुस्तान से अमेरिका सेट हो जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ….. अमेरिका वाले कई आते हैं, बोले, ‘वहाँ कुछ नहीं, अब तो भारत में सेट होना है।’ बाबा, कहीं भी जाओ, जब तक सम्यक् ज्ञान में सजग नहीं हुए, शाश्वत सुखस्वरूप में सजग नहीं हुए, परिस्थितियाँ अपसेट करती रहेंगी और मृत्यु भी जन्म-मरण व चौरासी के चक्कर में अपसेट करती ही रहेगी। परिस्थितियों को अऩुकूल बनाकर सुखी रहना चाहते हो यह बड़े-में-बड़ी गलती है। अपने सुखस्वरूप आत्मस्वभाव को भूलकर परिस्थितियों की अनुकूलता में सुखी रहना चाहते हैं यह भूल है। जहाँ परिस्थितियों की पहुँच नहीं,  परिस्थितियों की दाल नहीं गलती वह सुखस्वरूप अपना आत्मा ज्यों-का-त्यों है, उसका ज्ञान पाओ।

बुद्धि में अज्ञान है ‘धन कमा के सुखी हो जाऊँ, धन छोड़ के सुखी हो जाऊँ…. त्याग कर दिया एकदम लेकिन अकेले त्याग से भी पर सुख नहीं मिलता, अकेले संग्रह से भी परम सुख नहीं मिलता, अकेले होने से भी नहीं मिलता। परम सुख पाने के लिए परम सुख का पता चाहिए, परम सुख की प्रीति चाहिए और परम सुख के अनुभवसम्पन्न महापुरुष का सान्निध्य चाहिए, बस !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 296

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संसार असार है, सत्य तत्त्व ही सार है


भोगास्तुङ्गगतरङ्गभङ्गतरलाः प्राणाः क्षणध्वंसिन-

स्तोकान्येव दिनानि यौवनसुखं स्फूर्तिः प्रियेष्वस्थिरा।

तत्संसारमसारमेव निखिलं बुद्ध्वा बुधा बोधका

लोकानुग्रहपेशलेन मनसा यत्नः समाधीयताम्।।

‘सांसारिक वस्तुओं के भोग से उत्पन्न सुख ऊँची उठने वाली लहरों के भंग के समान चंचल अर्थात् अस्थिर है। प्राण भी क्षण में नाश पाने वाले हैं। प्रियतम या प्रियतमा से संबंध रखने वाली यौवन की आनंद-स्फूर्ति भी कुछ ही दिनों तक रहती है। इस कारण से उपदेश देने वाले विद्वानो ! सारे संसार को सारहीन समझकर लोगों पर दया करने में लीन मन से सत्य तत्त्व को पाने में प्रयत्न करिये।’ वैराग्य शतकः 34

भर्तृहरि महाराज यहाँ समझा रहे हैं कि जिन विषय-विकारों को हम चिरकाल से भोगते आ रहे हैं वे सदा हमारे साथ न रहेंगे, निश्चय ही एक दिन हमारा साथ छोड़ देंगे। इससे यदि हम ही उन्हें पहले से ही छोड़ दें तो हमें महासुख और शांति मिलेगी। यदि हम न छोड़ेंगे और वे हमें छोड़ेंगे तो हमें महादुःख और मनस्ताप होगा।

‘श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण’ में भगवान श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं कि “जितने भोग के साधन-पदार्थ हैं, वे सब-के-सब अस्थिर यानि क्षणिक हैं। जैसे मरीचिका को जल समझकर हर्षित हुए हिरण मरूभूमि में बड़ी दूर तक इधर-उधर भटकते रहते है फिर भी उन्हें कुछ नहीं मिलता, वैसे ही मूढ़बुद्धि हम लोग इस संसार में असत् पदार्थों को सुख के साधन समझ के इधर-उधर खूब भटकते रहते हैं पर हाथ कुछ नहीं लगता।

जो लोग शरीरों तथा संसार को आशायुक्त चिरस्थायी और सत्य मानते हैं वे मोह (अज्ञान) रूपी मदिरा से उन्मत्त हैं, उन्हें बार-बार धिक्कार है !

जो यह युवावस्था है, वह देहरूपी जंगल में कुछ दिनों के लिए फली-फूली शरद ऋतु है, यह शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो जायेगी। जैसे अभागे पुरुष के हाथ से चिंतामणि (अभीष्ट पदार्थ देने वाला रत्न) तत्काल चला जाता है, वैसे ही शरीर से युवावस्थारूपी पक्षी जल्दी भाग खड़ा होता है।”

पूज्य बापू जी की सत्य तत्त्व का ज्ञान कराने वाली, हितभरी अमृतवाणी में आता हैः “जितना हो सके उतना जल्दी समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। तुम कितन भी धन, सौंदर्य, सत्ता पा लो लेकिन अंत में क्या रहेगा ? मौत के एक ही झटके में सब कुछ छूट जायेगा। अतः मौत सब छुड़ा ले इसके पहले जहाँ मौत की दाल नहीं गलती उस परमात्मा में चित्त लगाओ। जिससे धन, सौंदर्य और सत्ता मिलती है उस ईश्वर में चित्त लगाओ और उसी से प्रीति करो तो धन, सत्ता और व्यापार में भी सात्त्विक निखार आयेगा। यह शरीर मिट्टी में मिल जाय उससे पहले तुम परमात्मा से मिल लो तो तुम्हारे सब दुःख समाप्त हो जायेंगे।”

ऋषि प्रसाद, मई 2017, पृष्ठ संख्या 11, अंक 293

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