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Shri-Yogavashishtha

वास्तविक उन्नति


(पूज्य बापूजी की अमृतवाणी)

लोग बोलते हैं, ʹउन्नति-उन्नति…..ʹ लेकिन अपनी-अपनी मान्यता और कल्पना की उन्नति एक बात है। वास्तविक उन्नति कौन सी है ? बढ़िया फर्नीचर है, बढ़िया खाने-पीने की चीजें बहुत हैं, घूमने के साधन बहुत हैं अर्थात् जिसमें भोग-सामग्री बढ़ाने की वृत्ति हो, वह समझो पैशाचिक उन्नति है। भोग-सामग्री बढ़ाकर जो अपने को बड़ा मानता है, समझो वह पिशाच-योनि की वासना वाला व्यक्ति है।

जो धन बढ़ाकर अपने को बड़ा मानता है वह राक्षसी वृत्ति का है। राक्षसों के पास खूब धन होता है। रावण के पास देखो, सोने की लंका थी। ʹमैं रावण हूँ, बड़ा धनी हूँ….ʹ जो दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मानना चाहता है उसकी दानवी उन्नति है। दानव लोग दूसरों पर अधिकार जमाकर अपने को बड़ा मनाने में ही खप जाते हैं। जो सदभाव का विकास करके बड़ा बनना चाहते हैं, सत्संग में जाकर, जप-ध्यान करके, दीक्षा ले के अपनी उन्नति करना चाहते हैं, उनका असली बड़प्पन का रास्ता अच्छी तरह से खुलने लगता है। वे ज्ञान-विज्ञान से तृप्त होकर असली पुरुषार्थ, ʹपुरुषस्य अर्थ इति पुरुषार्थः।ʹ परमात्मा के अर्थ में शरीर को रखेंगे, खायेंगे-पियेंगे, देंगे-लेंगे लेकिन महत्त्व भगवान को देंगे। उनमें सागर जैसी गम्भीरता आ जाती है। सागर की ऊपर की तरंगें खूब उछलती-कूदती हैं लेकिन गहराई में बड़ा शांत पानी, ऐसे ही वे नींद में से उठेंगे तो उनकी बुद्धि भगवान की गम्भीर उदधि की गहराई जैसी अवस्था में होगी। जैसे श्रीरामचन्द्रजी को राज्याभिषेक होने की खबर मिली तो भी उछल कूद नहीं। सागर की गहराई में जैसे पानी गम्भीर रहता है, ऐसे ही रामचन्द्र जी का स्वभाव शांत व गम्भीर रहा। वनवास मिला तो श्रीरामचन्द्रजी के चेहरे पर शिकन नहीं पड़ी, ʹहोता रहता है, संसार है।ʹ

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा।

यह नाव तो हिलती जायेगी, तू हँसता जा या रोता जा।।

संसार है, बीतने दो। गम्भीरता से इसको देखो। ऐसा करने वाला व्यक्ति परमार्थ के रास्ते अच्छी तरह से तरक्की करता है। उसमें विनयी स्वभाव भी आ विराजता है। ʹमैं ऐसा हूँ…. मैं वैसा हूँ….ʹ यह मान्यता उसकी क्षीण हो जाती है।ʹमैं भगवान का हूँ, चेतनस्वरूप हूँ, आनंदस्वरूप हूँ और सदा मेरा साथ निभाने वाला अगर कोई है तो भगवान ही है।ʹ – ऐसी उसकी ऊँची सूझबूझ हो जाती है। ʹपिछले जन्म की माँ नहीं है, बाप नहीं है, मित्र नहीं है लेकिन अंतरात्मा तो वही का वही। बचपन के मित्र नहीं हैं, सखा नहीं हैं, स्नेही नहीं हैं। बचपन में जो मेरी तोतली भाषा के समय थे अथवा किशोर अवस्था में थे, वे न जाने कहाँ चले गये ! उनको जानने वाला अभी भी मेरा परमात्मा मेरे साथ है।ʹ – ऐसी सूझबूझ उसकी बढ़ती जाती है। उसका अहं अन्य वस्तु, अन्य व्यक्ति के फंदे में नहीं फँसता, उसका ʹमैंʹ मूलस्वरूप परमात्मा के ʹमैंʹ से स्फुरित होता है और उसी में शांति पाता है। उसमें तुच्छ अहंकार का अभाव हो जाता है।

ऐसे जो वास्तविक उन्नति के रास्ते चलते हैं, उसको ʹसाधकʹ कहते हैं। वे परम पद की साधना में ही उन्नति मानते हैं। चाहे रहने-खाने की सुविधा अच्छी हो या साधारण, लेकिन चिंतन भगवान का, शांति भगवान में, चर्चा भगवान की, आनंद  भगवान का, विनोद भगवान से, माधुर्य भगवान का…. तो वे वास्तविक उन्नति के धनी साधक आत्मसुख में, आत्मचर्चा में, आत्मज्ञान में, परमात्मरस में रसवान हो जाते हैं। ऐसे लोगों को कुछ बातों का ध्यान रखना होता है।

पहला, अपने कर्म जाँचें कि हम दूषित कर्म तो नहीं करते अथवा दूषित कर्मवालों के प्रभाव में तो हम नहीं खिंच जाते हैं। दूसरा, हमारे में धैर्य है कि नहीं। जरा जरा बात में हम चिढ़ जाते हैं या प्रभावित हो जाते हैं, ऐसा तो नहीं है। तीसरा, आत्मनिरीक्षण करके महापुरुषों के वचनों को आत्मसात् करने की तत्परता रखनी चाहिए। ऐसे लोगों को भगवान की प्राप्ति सुगम हो जाती है। उनमें भगवान के दिव्य गुण आने लगते हैं। प्रशान्त चित्त, दयालु स्वभाव, स्वार्थरहित प्रेम, सदा सत्यचिंतन, सत्य में विश्रान्ति, साधननिष्ठा में दृढ़ता, सहृदयता, आस्था और श्रद्धा-विश्वास, प्रभुप्रीति, पूर्ण आत्मीयता, ʹप्रभु मेरे हैं, मैं प्रभु का हूँ और प्रभु के नाते सब मेरे हैं, मैं सबका हूँʹ – ऐसे दिव्य गुणों में वे अपनी उन्नति मानते हैं। सचमुच यही उन्नति है। राजा भर्तृहरि लिखते हैं कि ʹमनुष्य जीवन में गुणी जनों का संग, संतजनों का संग, संतजनों का सत्संग और उनके मार्ग से परमात्मा में शान्ति, प्रीति – वास्तविक उन्नति यही है।ʹ

सत्संग से राक्षसी उन्नति, मोहिनी उन्नति, तामसी उन्नति, राजसी उन्नति इनका आकर्षण छूटकर असली उन्नति होती है। सत्संग के बिना की ये सब उन्नतियाँ अपनी-अपनी जगह पर व्यक्ति को उन्हीं दायरों में लगा देती हैं लेकिन सत्संग के बाद पता चलता है कि वास्तविक उन्नति प्रजा की, राजा की और मानव की किसमें हैं ?

ʹश्री योगवासिष्ठ महारामायणʹ के मुख्य श्रोता हैं भगवान रामजी और वक्ता हैं भगवान राम के गुरु वसिष्ठजी। वसिष्ठजी महाराज कहते हैं- “हे रामजी ! यदि आत्मतत्त्व की जिज्ञासा में हाथ में ठीकरा ले चांडाल के घर से भिक्षा ग्रहण करे तो वह भी श्रेष्ठ है पर मूर्खता से जीवन व्यर्थ है।”

संसार को सत्य मानना, देह को ʹमैंʹ मानना, मिलने-बिछुड़ने वाली चीजों के लिये सुखी-दुःखी होना – यह मूर्खता है। तुच्छ मतिवाले प्राणी इसी में उलझते, जन्मते-मरते रहते हैं। मनुष्य भी ऐसे ही जिया और ऐसे ही मरा, प्रकृति के प्रभाव में परेशानीवाली योनि में भटकता रहा तो धिक्कार है उन उन्नतियों को !

आत्मलाभात् न परं विद्यते। आत्मज्ञानात् न परं विद्यते। आत्मसुखात् न परं विद्यते। – इन वचनों की तरफ ध्यान देकर वास्तविक उन्नति की तरफ चलना चाहिए। इंद्रियशुद्धि, भावशुद्धि और आत्मज्ञान देने वाले महापुरुषों का मार्गदर्शन सच्ची उन्नति और शाश्वत उन्नति देता है, बाकी सब नश्वर उन्नतियाँ नाश की तरफ घसीट ले जाती है। अतः जहाँ सत्संग मिलता है उस स्थान का त्याग नहीं करना चाहिए।

वास्तविक उन्नति अपने आत्मा-परमात्मा के ज्ञान से, आत्मा-परमात्मा की प्रीति से, आत्मा-परमात्मा में विश्रान्ति पाने से होती है। जिसने सत्संग के द्वारा परमात्मा में आराम करना सीखा, उसे ही वास्तव में आराम मिलता है, बाकी तो कहाँ है आराम ? साँप बनने में भी आराम नहीं, भैंस बनने में भी आराम नहीं है, कुत्ता या कलंदर बनने में भी आराम नहीं, आराम तो है अंतर्यामी राम का पता बताने वाले संतों के सत्संग में, ध्यान में, योग में। वहाँ जो आराम मिलता है, वह स्वर्ग में भी कहाँ है !

संत तुलसी दास जी कहते हैं-

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।

(श्रीरामचरित. सुं.कां. 4)

सत्संग की बड़ी भारी महिमा है, बलिहारी है। ʹमैं भगवान का हूँ, भगवान मेरे हैं। संसार और शरीर पंचभौतिक हैं लेकिन जीवात्मा चैतन्य है, परमात्मा का है। परमात्मा के साथ हमारा शाश्वत संबंध है। शरीर के साथ हमारा काल्पनिक संबंध है।ʹ

पक्का निश्चय करो कि ʹआज से मैं भगवदरस पिऊँगा। वास्तविक उन्नति का मर्म जानकर तुच्छ उन्नति को उन्नति मानते गलती निकाल दूँगा।ʹ वास्तविक उन्नति जिसकी होती है, उसे तुच्छ उन्नति करनी नहीं पड़ती, अपने आप हो जाती है।

गहरा श्वास लो और सवा मिनट श्वास रोककर जितना हो सके ૐकार का जप करो, वास्तविक उन्नति बिल्कुल हाथों-हाथ ! दस बार रोज करो, चालीस दिन के अनुष्ठान, मौन व एकांत से आपको चमत्कारिक अनुभव होने लगेंगे। मुझे हुए हैं, तुमको क्यों नहीं होंगे ! मुझे मिला है तुम्हें क्यो नहीं मिलेगा !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 4,5,30 अंक 236

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भगवद् दर्शन से भी ऊँचा है भगवत्साक्षात्कार !


(पूज्य बापू जी की ज्ञानमयी अमृतवाणी)

एक बाई राम-राम रटती थी। बड़ी अच्छी, सात्त्विक बाई थी। एक बार वह रोती हुई शरणानंदजी महाराज के पास गयी और बोलीः “बाबा ! मुझे रामजी के दर्शन करा दो।”

बाबा ने कहाः “अब रामरस जग रहा है तो राम में ही विश्रांति पा। दर्शन के पचड़े में मत पड़।”

बोलीः “नहीं बाबा ! आप जो बोलोगे वह करूँगी लेकिन रामजी का दर्शन करा दो।”

“जो बोलूँ वह करेगी ?”

“हाँ, करूँगी।”

“राम-राम रटना छोड़ दे।”

अब ʹहाँʹ बोल चुकी थी, वचन दे दिया था तो रामनाम रटना छोड़ दिया। दो दिन के बाद आयी और बोलीः “बाबा ! यह आपने क्या कर दिया ? मेरा सर्वस्व छीन लिया। राम-राम करने से अच्छा लगता था, वह भी अब नहीं करती हूँ, मेरा क्या होगा ?”

बाबा बोलेः “कुछ नहीं, जब मेरे को मानती है तो मेरी बात मान। बस, मौज में रह।”

“लेकिन राम जी का दर्शन कराओ।”

“ठीक है, कल होली है। रामजी के साथ होली खेलेगी ?”

बोलीः “हाँ।”

“रामजी आ जायेंगे तो दर्शन करके क्या लेगी ?”

“कुछ नहीं, बस होली खेलनी है।”

दूसरे दिन सिंदूर, कुंकुम आदि ले आयी। बाट देखते-देखते सीतारामजी प्रकट हुए, लखन भैया साथ में थे। वह देखकर दंग रह गयी, बेहोश-सी हो गयी। रामजी ने कहाः “यह क्या कर रही है ! आँखें बद करके सो गयी, होली नहीं खेलेगी ?”

वह उठी और रामजी के ऊपर रंग छिड़क दिया, लखन भैया के ऊपर भी छिड़का। रामजी ने, सीता जी ने उसके ऊपर छिड़का। होली खेलकर भगवान अंतर्धान हो गये।

बाबा मिले तो पूछाः “क्या हुआ ?”

बोलीः “भगवान आये थे, होली खेली और चले गये लेकिन अब क्या ?”

“पगली ! मैं तो बोल रहा था न, कि वे आयें, यह करें….इस झंझट में मत पड़। भगवान जिससे भगवान हैं, उस आत्मा को जान ले न ! उस आत्मा में संतुष्ट रह। रामजी ने वसिष्ठजी से जो ज्ञान पा लिया, वह ज्ञान तू भी पा ले। जो नित्य है, चैतन्य है, अपना-आपा है, उसी को जानने में लग जा।”

जिस आत्मदेव को जानने से सारे पाशों से, सारे बंधनों से मुक्त पा जाते हैं, उस आत्मदेव को जानो। इष्टदेव आ गये, शिवजी आ गये, विष्णुजी आ गये तो वे भी बोलेंगे कि ʹजाओ, तुम्हें नारदजी का सत्संग मिलेगा।ʹ (जैसा ʹभागवतʹ में वर्णित प्रचेताओं के प्रसंग में हुआ।) इसलिए आत्मज्ञान, परमात्मज्ञान में आओ। परमात्म-विश्रान्ति योग, परमात्म-साक्षात्कार योग सबसे आखिरी है।

एक तो होती है मनचाही, दूसरी होती है शास्त्रचाही, तीसरी होती है शास्त्रज्ञ महापुरुष जो बतायें वह – गुरुचाही। गुरुचाही में आदमी निश्चिंत यात्रा करता है। शास्त्रचाही करेगा तो कर्मकांड में, उपासना में लगेगा। मनचाही करेगा तो कहीं भी लग जायेगा लेकिन अनुभवी महापुरुष के अनुसार चलेगा तो रास्ता सहज, सरल हो जायेगा।

संत तुलसीदास जी ने कहाः

तन सुखाय पिंजर कियो, धरे रैन दिन ध्यान।

तुलसी मिटे न वासना, बिना विचारे ज्ञान।।

ऐसी-ऐसी तपस्या करते हैं कि समाधि लग जाय, शरीर हाड़-पिंजर हो जाय और मुर्दे को जिंदा कर देने की सिद्धि आ जाय किंतु इससे क्या हो गया ! जब तक बड़े-में-बड़े तत्त्वस्वरूप ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की प्रीति, ईश्वर का आनन्द नहीं आता, तब तक तृप्ति नहीं होती।

देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।

(श्री रामचरित. अयो.कां. 182)

भगवद् रस के बिना वासना नहीं जाती, नीरसता नहीं मिटती। यह मिल जाय, वह मिल जाय….अरे, तू भगवान को पा ले न ! भगवद् रस पा ले। मिलेंगे तो बिछड़ेंगे, आयेंगे तो जायेंगे। जो पहले थे, अभी हैं, बाद में रहेंगे उन आत्मदेव को जानने के लिए, आत्मानंद की तृप्ति के लिए हनुमानजी ने कितनी सेवा की, कितनी तत्परता से रहे !

युक्ति से धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते परम पद तक पहुँच जायेंगे। वह परम पद बहुत ऊँची चीज है। उसे पाने के लिए हनुमानजी ने रामजी की बिनशर्ती शरणागति ली थी, सेवा की थी।

ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं।

देख ब्रह्म समान सब माहीं।।

कहिअ तात सो परम बिरागी।

तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।

(श्रीरामचरित.अर.कां-14.4)

हनुमान जी के पास अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ थीं लेकिन उनको भी तिनके की नाईं छोड़ दिया। राम जी के दर्शन तो रहे थे किंतु राम जिससे राम हैं, उस आत्मराम के दर्शन के लिए हनुमानजी ने रामजी की अहोभाव से, प्रीतिपूर्वक सेवा की।

जिन सेविआ तिनि पाइआ मानु।।

नानक गावीऐ गुणी निधानु।।

(जपु जी साहिब)

ईश्वरप्राप्ति का उद्देश्य बनाओ। साकार ईश्वर की प्राप्ति का उद्देश्य अलग है और ईश्वरत्व का साक्षात्कार, जिसे ʹआत्म-साक्षात्कारʹ भी कहते हैं, अलग है।

ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर, कार्य रहे ना शेष।

मोह कभी न ठग सके, इच्छा नहीं लवलेश।।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।

(गीताः 18.61)

वह ईश्वर कौन है जो सबके अंदर है, सबके हृदय में है ?

ईश्वरो न महाबुद्धे दूरे न च सुदुर्लभः।

महाबोधमयैकात्मा स्वात्मैव परमेश्वरः।।

ʹईश्वर न तो दूर है और न अत्यंत दुर्लभ ही है, महाबोधस्वरूप एकरस अपना आत्मा ही परमेश्वर है।ʹ (श्री योगवसिष्ठ महारामायण)

नाम और रूप विभिन्न दिखते हैं, मगर उनको सत्ता देने वाला वह अनामी, अरूप एक ही है। ईश्वर का और आपका संबंध अमिट है। जीव ईश्वर का अविनाशी अंश है। जैसे आकाश व्यापक है ऐसे ही परब्रह्म-परमात्मा व्यापक है। जो चैतन्य परमात्मा सगुण-साकार में है, वही गुरुओं की और हम लोगों की देह में है। वह नित्य परमेश्वर अपने से रत्ती भर भी दूर नहीं है क्योंकि वह व्यापक है, सर्वत्र है, सदा है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2012, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 229

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ईश्वर प्राप्ति सरल कैसे ?


(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

ईश्वरप्राप्ति का गणित बहुत सरल है। लोगों ने विषय-विकारों को महत्त्व देके, किसी ने कल्पना और व्याख्या कर-करके ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को कोई बड़ा लम्बा-चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। कोई बड़ा लम्बा चौड़ा कठिन मार्ग मान लिया। ईश्वर प्राप्ति से सुगम कुछ है ही नहीं। मैं तो यह बात मानने को तैयार हूँ कि रोटी बनाना कठिन है लेकिन ईश्वर प्राप्ति कठिन नहीं है। अगर आटा गूँथना नहीं आये तो आटे में गाँठ-गाँठ हो जाती है। रोटी सेंकनी न आये तो हाथ जल जाता है। परमात्मा प्राप्ति में तो न हाथ जलने का डर है, न आटा खराब होने का डर है वह तो सहज है।

संसार की प्राप्ति में तो अपना पुरुषार्थ चाहिए, अपना प्रारब्ध चाहिए, वातावरण चाहिए तब संसार की चीजें मिलती हैं और मिल मिलकर चली जाती हैं। भगवान की प्राप्ति में न तो केवल तीव्र इच्छा हो जाये बस, फिर तो भगवान अपने आप अंदर कृपा करते हैं – यह अनुभव वसिष्ठजी महाराज का है।

‘श्री योगवसिष्ठजी महारामायण’ में आता है कि ‘हे राम जी ! फूल पत्ता और टहनी मसलने में परिश्रम है, अपने आत्मा परमात्मा को पाने में क्या परिश्रम है !’

उपदेशमात्र से मान तो लेते हैं कि परमात्म प्राप्ति ही सार है, सुनते सुनते विचार करते करते, जगत के थप्पड़ खाते खाते लगता है कि तत्त्वज्ञान के बिना, परमात्मज्ञान के बिना जीवन व्यर्थ है किंतु उसमें टिक नहीं पाते क्योंकि टिकने की सात्त्विक बुद्धि, दृढ़ निश्चय, सजगता और तड़प नहीं है। आहार-विहार पवित्र हो, बुद्धि सात्त्विक हो, सजगता हो तथा परमात्म प्राप्त महापुरुषों में और उनके वचनों में महत्त्वबुद्धि हो, परमात्माप्राप्ति की तीव्र तड़प हो तो टिकना कोई कठिन नहीं है। शाश्वत में महत्त्वबुद्धि के अभाव से ही सहज, सुलभ परमात्मा दुर्लभ हो रहा है। नश्वर में महत्त्वबुद्धि होने का फल यह दुर्भाग्य है कि सब कुछ करते कराते भी दुःख, शोक, जन्म-मरण की यातनाएँ मिटती नहीं।

सुबह नींद में से उठते ही थोड़ी देर चुप बैठी और विचारों की ‘वह कौन है जो आँखों को देखने की, मन को सोचने की, बुद्धि को निर्णय करने की सत्ता देता है ?’ उसी में शांत हो जाओ, परमात्माप्राप्ति के नजदीक आ जाओगे। दुःख आये उससे जुड़ो नहीं, सुख आये उससे मिलो नहीं। सुख को बाँटो और दुःख में सम रहो तो उनका जो साक्षी है उस परमात्मा में टिकने लगोगे। वह इतना निकट है कि

सो साहब सद सदा हजूरे।

अंधा जानत ताँको दूरे।।

ज्ञानचक्षु नहीं है और बाहर भागने की आदत है इसीलिए वह कठिन लग रहा है, नहीं तो ईश्वरप्राप्ति जैसा कोई सुगम कार्य नहीं है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया।।

‘शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।’

(गीताः 18.61)

जैसे गाड़ी में बैठने वालों को गाड़ी की गति प्राप्त होती है, जहाज में बैठने वाला जहाज की गति से भागता है, बस में बैठने वाला बस की गति से भागता है, कार में बैठने वाला कार की गति से भागता है ऐसे ही यह इन्द्रियों में बैठने वाला जीव इन्ही यंत्रों में उलझ गया है। जहाँ से बैठने की सत्ता आती है उसमें बैठो तो अभी ईश्वरप्राप्ति हो जाय, जैसे अर्जुन को भगवान की कृपा से बात समझ में आ गयी।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा। (गीताः 18.73)

अगर कठिन होता तो परीक्षित राजा को सात दिन में कैसे मिल जाता ! भगवत्पाद लीलाशाहजी बापू की कृपा हम पर 40 दिन में कैसे बरसती और कैसे मिल जाता !

एक वर्ष तक ॐकार का जप करे, नीच कर्मों का त्याग करे और ईश्वरप्राप्ति का ऊँचा उद्देश्य बना ले तो साधारण से साधारण आदमी को भी ईश्वरप्राप्ति सहज में हो जाय। लेकिन हमारी रूचि है – यह हो जाय, वह हो जाय….। जो हो – होकर बदलता है वही करने की रुचि रखते हैं।

मान मिल जाय, बड़े हो जायें, बापू जी जैसे हो जायें ऐसा कुछ नहीं चाहिए। हर फूल अपनी जगह पर खिलता है, किसी को नकल नहीं करनी है और बाहर से बापू जी जैसा हो जाने से ईश्वरप्राप्ति हो जाती है इस वहम में नहीं पड़ना। जो जहाँ है ईश्वरप्राप्ति का अधिकारी है और सोचे कि ‘बाहर से बापू जी जैसा हो जाऊँ’, तो माइयों को दाढ़ी आयेगी नहीं, तो क्या ईश्वर नहीं मिलेगा ? जिनके सिर पर बाल नहीं हैं, क्या उनको ईश्वर नहीं मिलेगा ? बाहर से नकल नहीं करनी है, केवल उस मिले-मिलाये में प्रीति चाहिए।

भगवान से प्रीति करने की, भगवान को पान की महत्ता समझ में आ जाय तो मन पवित्र होने लगता है। जब तक भगवान को पाने की महत्ता का पता नहीं, तभी तक सारे दुःख विद्यमान रहते हैं। ईश्वर को पाने में ही सार है – ऐसा नहीं जानते, तभी तक छल-कपट आदि सारे दुर्गुण विद्यमान रहते हैं। यदि वह सम में आ जाय तो सारे छल-कपट कम होते चले जायेंगे, सारी शिकायतें दूर होती चली जाएँगी। जिसको ईश्वरप्राप्ति की रूचि नहीं है उसको गलती बताओगे तो सफाई देगा, अपनी गलती नहीं मानेगा और ज्यों-ज्यों सफाई देगा त्यों-त्यों उसकी गलती गहरी उतरती जायेगी। उसको पता ही नहीं चलेगा कि मैं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा हूँ और उसका परमात्मप्राप्ति का मार्ग लम्बा होता चला जायेगा।

तो ईश्वरप्राप्ति में रूचि हो जाये। और यह रुचि कैसे हो ? बार-बार सत्संग का आश्रय लो, ईश्वर कान नाम लो, उसका गुणगान करो, उसको प्रीति करो। और कभी फिसल जाओ तो आर्तभाव से पुकारो। वे परमात्मा-अंतरात्मा सहाय करते हैं, सहाय करते हैं, बिल्कुल करते हैं।  ॐ नारायण… ॐ गोविंद…. ॐ अच्युत….. ॐ केशव…. ॐ परमेश्वर…. ॐ सर्वसुहृदाय नमः…. ॐ अंतर्यामी…. ॐ सर्वज्ञ…. ॐ दयानिधे नमः…… ॐॐ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2010, पृष्ठ संख्या 19, अंक 208

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