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गुरु संकल्प और लघु संकल्प



भगवान शंकराचार्य का गुर्वष्टकम् डंके की चोट पर संदेश देता है
कि तुम लघु (तुच्छ) संकल्प में तबाह मत हो जाओ ।
योगवासिष्ठ महारामायण में आता हैः
सर्व स्वसंकल्पवशाल्लघुर्भवति वा गुरुः । (उत्पत्ति प्रकरणः सर्ग 70
श्लोक 30)
‘सभी लोग अपने लघु संकल्प से लघु होते हैं और अपने गुरु
(महान) संकल्प से महान होते हैं ।’
छोटे विचारों और कर्मों से व्यक्ति तुच्छ बन जाता है और महान
संकल्पों, ऊँचे विचारों से, ऊँचे कर्मों से महान हो जाता है । और महान-
में-महान भगवत्प्राप्ति के संकल्प से मनुष्य भगवद्-स्वरूप हो जाता है ।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। (गीता) 6.5-6)
यह जीव अपने आपका ही मित्र है और अपने आपका ही भयंकर
शत्रु है । जो ऊँचे कर्म, ऊँचे विचार और ऊँचे-में-ऊँचे ईश्वर की तरफ
चलता है वह अपने आपका मित्र है और जो काम, क्रोध, लोभ, मोह,
अहंकार, छल, झूठ, कपट में पड़ता है वह अपने आपका ही शत्रु है ।
तुलसी रामायण (अयो.का. 91.2) में आता हैः
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
‘कोई भी किसी को सुख और दुःख देने वाला नहीं है ।’
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।

व्यक्ति अपने ही कर्मों का, सोच-विचार का फल भोगता है । और
श्रीकृष्ण ने और भी ऊँची बात कहीः
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।
पंचभौतिक शरीर और मन, बुद्धि, अहंकार ये आठों प्रकृति के हैं ।
इनमें परिवर्तन होता है, यह नश्वर है भूलभुलैया । इससे मैं भिन्न हूँ ।
श्रीकृष्ण ने ऊँचा संकल्प करने का ऊँचा ज्ञान भी भर दिया गीता में ।
तो आप भी अष्टधा प्रकृति के शरीर से, मन, बुद्धि और अहंकार से
अपने को अलग-थलग आत्मा – साक्षी जानने का प्रयास करो । इससे
आपके संकल्प में गजब की शक्ति आयेगी, जीवन में अद्भुतता आ
जायेगी ।
यह संकल्प का ही प्रभाव है कि लोगों को होता है कि ‘दुनिया में
कहीं जाकर कुछ करें…’ फिर वह व्यक्ति यू.एस.ए. गया, यू.के. गया,
हाँगकाँग गया, दुबई गया… फिर डॉलर कमाने में लगा… संकल्पों के
पीछे तो यह सब दौड़ हो रही है परंतु यह तुमको अष्टधा प्रकृति में
बाँधने वाला संकल्प है । दूसरा संकल्प है जिससे तुम तो तर जाओ,
तुम्हारे द्वारा दूसरे भी तर जायें ।
गुजरात में अखा भगत हो गये । वे पूरे भक्त थे, आत्मज्ञानी-
परमात्मा से जो विभक्त न हों ऐसे महान आत्मा थे अखा जी । उन्होंने
स्पष्ट शब्दों में आज के मानव को चैताया कि
सजीवाए नजीवाने घड्यो, पछी कहे मने कंई दे ।
सजीव ने निर्जीव को बनाया – चाहे संगमरमर के पत्थर से मूर्ति
बनी हो पर बनायी सजीव चैतन्य ने । एकाग्रता के लिए श्रद्धा के लिए,
सद्भाव के लिए ठीक है लेकिन जड़ पत्थर में से मूर्ति बनायी और फिर

उसमें प्राणप्रतिष्ठा करायी और फिर मूर्ति के आगे मूर्ति बनाने वाले ही
गिड़गिड़ाते रहेः ‘मेरे को यह दे दो, मेरे को वह दे दो…’ तो अखा कहते
हैं, ‘तुम्हारी एक आँख फूटी है कि दोनों ?’
अखो तमने इ पूछे कि तमारी एक फूटी कि बे ?
वास्तव में मनुष्य अपने भाग्य का आप विधाता है परंतु अज्ञान के
कारण अष्टधा प्रकृति के चंगुल में फँसा है कि ‘हे फलाने देव ! हे
फलानी देवी ! हे फलाना… तू मुझे यह दे, यह दे… !
अखो कहे अंधारो कुओ, झगड़ो मटाडी कोई ना मुओ ।
यह जगत एक अँधेरे कुएँ जैसा है । आज तक यहाँ कोई भी
मनुष्य संसार की सब समस्याएँ मिटाकर शांति से नहीं मरा है ।
वेद मंगलकारी प्रार्थनाओं से भरे हैं-
भद्रं नो अपि वातय मनः ।।
‘हे प्रभु ! हमारे मन को क्ल्याण से भर दो ।’ (ऋग्वेदः मंडल10,
सूक्त 20, मंत्र 1)
ऋग्वेद (मंडल 1, सूक्त 123, मंत्र 6) में प्रार्थना आती हैः
उदीरतां सूनृता उत्पुरन्धीरुदग्नयः शुशुचानासो अस्थुः ।
‘हमारे मुख से प्रिय एवं सत्य वाणी निकले । हमारी प्रज्ञा प्रबुद्ध
हो । सत्कर्म के लिए हमारा दीप्त संकल्पबल पूर्णरूप से प्रज्वलित हो ।’
‘हे सत्स्वरूप परमात्मा ! मैं असत् में फँसा हुआ हूँ, विनश्वर में
फँसा हुआ हूँ, आप मुझे सत् का अनुभव कराइये । हे ज्ञानस्वरूप ! मैं
अज्ञान के अंधेरे में भटक रहा हूँ, मुझे ज्ञान का प्रकाश दिखाइये । हे
आनंदस्वरूप ! मैं दुःख से व्याकुल हो रहा हूँ, मुझे अमृत का आस्वादन
करा दीजिये । हे निरंजन ! मैं आपको नहीं देख सकता, आप मुझे अपने
सत्सवरूप का साक्षात्कार करा दीजिये । हे चित्स्वरूप ! मेरे अंतर में

ज्ञानरूप से प्रकट हो जाइये ।’ इस तरह जब यह प्रार्थना की धारा हृदय
में बहने लगती है तब एक दिव्य रसायन हमारे हृदय में उत्पन्न होता है

उद्दालक संकल्प करते हैं- ‘ऐसे दिन कब आयेंगे कि मैं संसार के
सुख और दुःख को देखकर हँसूँगा कि यह सब सपना है ।’ राजा भर्तृहरि
ऐसा संकल्प करते हैं कि ‘हे शिव ! ऐसे दिन कब आयेंगे कि किसी
शिला पर शिवस्वरूप में ऐसा समाधिस्थ हो जाऊँ कि जंगल के बूढ़े
हिरण अपने सींगों की खुजली मेरे शरीर को रगड़ के मिटायें और उनको
पता न चले कि यह साधु है और न मुझे कुछ पता चले…’ क्या शुभ
संकल्प है ! संकल्प करो तो ऐसा करो । ‘मुझे लाड़ी (पत्नी) कब मिलेगी
?’ वह तो अपने आप मिलेगी, अपने आप बिछुड़ेगी । और तुम नहीं
छोड़ना चाहोगे तो भी अपने आप जूते सुँघायेगी, भला-बुरा सुनायेगी तो
अपने आप दूरी हो जायेगी । ‘लाड़ा (पति) कब मिलेगा…?’ लाड़ा के लिए
रोओगी-धोओगी तो लाड़ा भी ऐसा ही मिलेगा । ईश्वर के लिए जियो ।
लाड़े के लिए, लाड़ी के लिए, फर्नीचर के लिए… लोग तो अपने जीवन
को तबाह करने वाली चीजों में लघु बन जाते हैं बेचारे । दिखते तो बड़े
सेठ हैं लेकिन यह नहीं मिला – आज मूड खराब ! अरे, निगुरी चीज नहीं
मिली तो मूड खराब है… तो तेरा उधारा मूड है ।
पूरे हैं वे मर्द जो हर हाल में खुश हैं ।…
निरंजन वन में साधु अकेला खेलता ह ।।
तन की कूंडी मन का सोंटा, हरदम बगल में रखता है ।
पाँच पच्चीसों मिलकर आवें, उनको घोंट पिलाता है ।।…
अंजन माने इन्द्रियाँ । निरंजन माने जो इन्द्रियों की पहुँच से परे
हो । ब्रह्मवेत्ता साधु निरंजन, निराकार सच्चिदानंद में रहते हैं ।

घर चमकाया… गाँव चमकाया… इलाका चमकाया तो क्या
चमकाया ? ये सब चमका-चमका के क्या किया ? रावण ने लंका
चमकायी और खुद नहीं चमका तो क्या हुआ ? ‘मेरा यह चमके… मेरा
यह चमके…’ अरे ! तू सदा चमकने वाला है । तू अपने आत्मस्वरूप को
जान ले बेटे ! आत्मलाभ पा ले । फिर जो भलाई तेरे द्वारा होनी होगी
वह अपने आप होगी ।
यह सत्संग पढ़ें और अपने संकल्प उत्तम बनायें और उत्तम-से-उत्तम
संकल्प है आत्मसाक्षात्कार का संकल्प, परमानंद, अमिट शांति पाने का
संकल्प । आप तो शुभ संकल्प ऐसा करो कि ‘जिसकी कभी मौत नहीं
होती है उस अपने मैं को जान लें । जिसको कभी कोई बीमारी नहीं
होती, जिसकी कभी कोई हानि नहीं होती उस अपने आत्मा यानी मैं को
जान लें, अपने आत्मदेव को जान लें ।’ इसमें लगकर अपना जीवन
सार्थक करें ।
परम शुभ संकल्प करो
सर्वं खल्विदं… ….क्रतुं कुर्वीत ।।
‘यह सम्पूर्ण जगत निश्चय ही ब्रह्मस्वरूप है । यह उसी से
उत्पन्न होता, उसी में लय होता, उसी से चेष्टा करता है । राग-द्वेष से
दूर शांतभाव से उसी की उपासना करनी चाहिए क्योंकि पुरुष निश्चय ही
संकल्पमय है । इस लोक में पुरुष जैसे संकल्प धारण करता है वैसा ही
मरने के बाद होता है । अतः पुरुष को सत्संकल्प करने चाहिए ।’
(छान्दोग्य उपनिषद् अध्याय 3, खंड 14, मंत्र 1)
शुभ संकल्प सद्गुणी बना देते हैं परंतु संकल्प इतने नहीं करो कि
गड़बड़ हो जाय । शुभ संकल्पों की भीड़ मत करो । जितने कम संकल्प,
जितने कम फुरने है, उतना अच्छा है । इसलिए ‘हरि ॐ’ का प्लुत

उच्चारण करके शांत होना, जिस तिस फुरने के पीछे पड़ना नहीं, जिस
किसी संकल्प को पकड़ के उसके पीछे लगना नहीं । खूब छाँट-छाँट के
शुभ संकल्प… और शुभ-से-शुभ, शुभ-से-शुभ… परम शुभ, परम शुभ का
भी परम शुभ संकल्प है ईश्वरप्राप्ति का संकल्प ।
एक ही पकड़ो बस, सुख आये तो क्या है ? उसे क्या भोगना,
आता है तो जायेगा । दुःख आये तो दुःखी क्या होना ! सुख-दुःख में
समता… यही संकल्प करो तो तुम्हारी साधना हो जायेगी । सुख-दुःख
आयें-जायें, वाह-वाह ! भला हुआ, अच्छा हुआ ।
मैं सच्चे हृदय से हाथ जोड़ के बोलता हूँ कि ईश्वरप्राप्ति के
संकल्प के आगे दूसरे सब संकल्प लघु-लुघु-लघु, तुच्छ-तुच्छ-तुच्छ हैं ।
ईश्वर का और तुम्हारा संबंध कभी टूट नहीं सकता और शरीरों का संबंध
सदा रह नहीं सकता ।
संबंध ऊँचा हो बस ! जो ईश्वर की तरफ हैं उन लोगों का सम्पर्क
करो, जो ईश्वर-संबंधी शास्त्र हैं, ग्रंथ हैं उनका अध्ययन करो । ईश्वर
संबंधी जो मंत्र हैं वे कल्याणकारी हैं । हम गुरुमंत्र भी वही देते हैं जिसमें
ॐकार हो, जिसमें अंतर्यामी की करुणा-कृपा छुपी हो ।
छोटे-मोटे मंत्र तो बहुत हैं परंतु कब तक साधक 12 साल, 12
साल, 12 साल… 60 साल की लम्बी साधना में अटके रहेंगे । मेरा तो
जल्दी कल्याण में मन मानता था । इसलिए लम्बी साधना कोई बताता
था तो शिष्टाचार के नाते मैं प्रणाम करके चलता बनता था । जहाँ चाह
होती है वहाँ राह मिल ही जाती है ।
संकल्प में दृढ़ता लाओ !
संकल्पशक्ति की बड़ी भारी महिमा है । मगधनरेश कुमारगुप्त के
14 साल के बेटे स्कंदगुप्त ने दढ़ संकल्पशक्ति के प्रभाव से हूण प्रदेश

के दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये थे । संकल्प की दृढ़ता से ही देवव्रत ने
पिता की प्रसन्नता के लिए आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत पाला और
पितामह भीष्म के रूप में विश्वप्रसिद्ध हुए ।
सिद्धार्थ ने निश्चय कर लियाः ‘कार्यं वा साधयामि देहं वा
पातयामि । या तो कार्य साध लूँगा या मर जाऊँगा । महल में भी एक
दिन मर ही जाना है, साधना करते-करते भी मर जाऊँगा तो कोई हर्ज
नहीं ।’ ऐसा सोचकर पक्की गाँठ बाँध ली और चल पड़े । सात साल के
अंदर ही उन्हें परम शांति मिल गयी, महात्मा बुद्ध बन गये ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
भजन्ते मां दढ़व्रताः । (गीताः 7.28)
आप दृढ़व्रती हो जाओ । भगवत्प्राप्ति का संकल्प करके फिर दृढ़
हो जाओ । सत्य के रास्ते जाते हैं तो यार रूठे तो रूठे पर सत्य का
रास्ता नहीं छोड़ना ।
दृढ़व्रती शिवाजी ने कहाः “ऐ जंगल की महारानी शेरनी ! शिवा
तुझसे प्रार्थना करता है कि गुरु जी के उदरशूल के उपचार के लिए तू
मेरे को दूध दे दे । मुझे खाना हो तो मैं आ जाऊँगा तेरे पास ।”
देखा कि आने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, वह तो गाय की तरह
खड़ी हो गयी और शिवा दूध ले के आ गये । कैसा संकल्प का बल है !
‘होगा कि नहीं होगा, मेरे को डर लगता है…’ तो नहीं होगा । अपने
संकल्प में बल होना चाहिए । अच्छा संकल्प पकड़ो और उसको छोड़ो
नहीं । निश्चय दृढ़ होना चाहिए ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 5-8, अंक 357
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यदि ईश्वर के रास्ते जाने से कोई रोके तो… – पूज्य बापू जी



संत तुलसीदास जी को मीराबाई ने पत्र लिखा कि ‘घरवाले मेरे
अऩुकूल नहीं हैं, मैं भक्ति नहीं कर पा रही हूँ । क्या करूँ ?’ तुलसीदास
जी ने लिखाः
जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
जो भगवान के रास्ते चलने में अनुकूल नहीं हैं, जिनको परमात्मा
प्यारा नहीं लगता वे चाहे बड़े स्नेही हों, बड़े प्यारे हों, बहुत अपने हों,
अर्धांगिनी हो, अर्धांगा (पति) हो…. तो भी उनको करोड़ों वैरियों के
समान समझकर त्याग दें ।
‘फलाना मेरा इतना प्यारा है कि मेरे लिए जान देने के लिए तैयार
रहता है…’ लेकिन भगवान की तरफ नहीं चलने देता है तो करोड़ों बैरियों
जैसा है । ‘कमा के मेरे को खिलाता है, मेरे पैर दबाता है, आज जो हूँ
इसी के सहारे बना हूँ…’ कमा के खिलाता है तो क्या हुआ ?
भगवत्प्राप्ति के रास्ते चलने नहीं देता तो पैर दबाये या नहीं दबाये,
उसका संग छोड़ दो ।
जिसको भगवान प्यारे नहीं लगते हैं वह कितना भी प्यारा हो,
उसका संग-साथ और उसकी बात को ठुकरा दो ।
मेरा भाई अपने मित्र व्यापारियों को बोलकर आता कि ‘मेरे भाई
को जरा समझाओ ।’ वे नासमझ लोग मेरे को समझाने आते । मैं थोड़ा
बहुत अपना बही-खाते आदि का काम भी करता रहता और उनका सुनता
भी रहता । वे सुना के चले जाते तो मैं बोलताः ‘डर्ररऽऽऽऽ…’ और जोर-
जोर से हँसता ‘हाहाहा…! हाहाहा !!’ तो मेरा भाई चिढ़ता था और बोलताः
“ऐसा क्यों करते हो ?”

मैं कहताः “जिनको ईश्वर मिला नहीं है वे मेरे को सीख देने आये,
उनकी सीख में क्या दम है ! डर्रऽऽऽ…!”
”तुम हो ही ऐसे ।”
“हाँ, हम ऐसे ही हैं ।”
हम ऐसे रहे तो अभी बापू बन गये । अगर उन नासमझ मूढ़ों की
बात मानते तो हम भी वैसे ही हो जाते ।
उस दिन तो सत्संग में जरूर जाओ
जिस दिन आपको घरवाले मना करते हैं कि सत्संग में नहीं जाओ
उस दिन तो जरूर जाओ, नहीं तो मना करने का पाप उनको लगेगा ।
अन्य किसी दिन तुम नहीं जा पाओ तो मत जाओ परंतु जिस दिन
पति, पत्नी या अन्य किसी ने भी मना कर दिया तो उस दिन तो जरूर
जाओ । क्योंकि अपना संबंधी है, उसकी तबाही न हो । ईश्वर के रास्ते
जाने से जो रोकते हैं वे बड़ा अपराध, बड़ा पाप तो करते हैं परंतु उनके
कहने से यदि हम रुक जायें तो उनको और महापाप लगेगा और हम
रुके नहीं तो वे महापाप से बच जायेंगे ।
भावग्राही जनार्दनः । तुम किसी भी भाव से भगवान को भजते हो
तो भी भगवान तो जानते हैं कि मेरा भजन करता है । आप भगवान
को चाहो फिर जो रुकावट आती है उससे बचने की युक्ति भी आ जाती
है, जैसे रास्ते में जाते-जाते कोई काँटा-वाँटा होता है और जूतेवाला पैर है
तो उस काँटे को खदेड़ देते हैं, नहीं तो काँटे से बच के निकल जाते हैं ।
मेरे भाई ने माँ की मति घुमा दी । माँ आयी, आज्ञा देने लगीः
“तुम बोलते हो कि माँ-बाप की आज्ञा माननी चाहिए । मैं आज्ञा करती
हूँ कि भाई के साथ रहो घऱ में, यह कुटिया-वुटिया बनाने की जरूरत
नहीं है, ये ईंटें वापस करो ।”

मैंने कहाः “यह तुम्हारी आज्ञा नहीं है, यह मोह की आज्ञा है ।
तुम्हें किसी ने यह बोला है ।”
अगर मैं उसकी आज्ञा मान को मोक्ष कुटिया बनाना रद्द करता
और खांडवाले भाई के साथ झख मारता तो मेरी तो दुर्गति होती, माँ की
भी सद्गति नहीं होती । तो माँ-बाप को कौन सी आज्ञा मानना और
कौन सी आज्ञा से बच के निकलना यह भी विवेक चाहिए । गुरु की
आज्ञा माननी चाहिए परंतु कोई ऐसा-वैसा गुरु बन के बैठ जाय और
कहेः “बेटा ! ले, सुलफा पी ले । बेटा ! जरा दारु पी ले ।” तो कहना
पड़ेगा कि “गुरु महाराज ! यह आज्ञा पालने की ताकत मेरे में नहीं है ।”
निगरे कितने परेशान होते हैं, बीमारियों में घसीटे जाते हैं उतने
मेरे दीक्षित साधक परेशान या बीमार नहीं होते, यह बात तो पक्की है ।
इसका मुझे संतोष है लेकिन देखादेखी निगुरों की नकल करके फिसलने
वाले फिसलें नहीं, अडिग रहें ।
मेरे भाई ने मेरे को आग्रह किया कि “मामा के बेटे की शादी है ।
एक ही तो मामा है और उसका एक ही बेटा है । और कुछ नहीं केवल
आईसक्रीम खा के आ जाना ।”
मैंने कहाः “मैं नहीं जाऊँगा वहाँ के वातावरण में ।” घर में रहता
था तब भी भक्ति का महत्त्व जानता था ।
“तू इतनी सी बात नहीं मानता है !”
“नहीं मानूँगा यह बात !”
जिस बात से भक्ति में विघ्न पड़े वह बात चाहे भाई की हो, चाहे
बाप की हो, चाहे और किसी की हो, उसके मानना कमजोरी है । भाई
की बात नहीं मानी हमने तो वह थोड़ा नाराज हो गया तो मैं भी नाराज
हो के मंदिर में जाकर बैठा 2-3 घंटे । फिर तो वह एकदम मीठा-मीठा

व्यवहार करने लगा । मैं तो उसकी नस (कमजोरी) जान गया था ।
अपना ईश्वरप्राप्ति का काम बनाना था । एक युक्ति है, यह व्यवहार
और परमार्थ दोनों में काम आती है । कभी दम मार के काम बनाना
पड़ता है कि ‘अगर तुम् सत्संग में नहीं जाने दोगे तो मैं चुपचाप कहीं
चला जाऊँगा, साधु बन जाऊँगा, कभी दिखूँगा नहीं,..’ और कभी आद्य
शंकराचार्य जैसे माया रच के युक्ति से भी काम बनाना पड़ता है ।
शंकराचार्य बालक थे तब एक बार नदी में स्नान करते समय मगर
ने उनका पैर पकड़ लिया । उन्होंने पुकार लगायीः “माँ ! माँ !!”
माता बोलीः “बेटा ! बेटा !! बेटा…! तू बच जा ।”
‘माँ ! मेरे को आतुर-संन्यास लेने की आज्ञा दे दोगी तो मगर छोड़
देगा ।”
“हाँ बेटा ! हीँ बेटा !! तू संन्यासी हो जा ।”
तो कभी युक्ति से काम बनाना पड़ता है और कहीं दम मार के भी
काम बनाना पड़ता है ।
श्रीकृष्ण बोलते हैं-
अभयं सत्त्वसंशुद्धिः… निर्भय रहो ।
गुरुवाणी में भी आता हैः
निरभउ जपै सगल भउ मिटै ।।
ईश्वर के रास्ते से कोई रोके तो उसकी बात ‘डर्रऽऽऽ…’ करके उड़ा
दो । ‘मैं तो आना चाहता हूँ किन्तु धर्मपत्नी छोड़ती नहीं है ।’
डर्रऽऽऽ…’
‘मैं तो आना चाहती हूँ परंतु पतिदेव नहीं मानते ।’ पतिदेव ? वह
काहे का पतिदेव ! देव होता तो देवत्व की बात करता । उसमें देवत्व
होता परमात्मदेव की तरफ जाने से रोकता ?

जा के प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ।।
परम स्नेही है लेकिन करोड़ो वैरियों के समान है क्योंकि ईश्वर का
रास्ते जाने से रोकता है ।
भगवान ऋषभदेव ने अपने भरत बेटे को और दूसरे बेटों को कहाः
“पिता का कर्तव्य है कि अपने पुत्र-पुत्रियों को विवेक देवे, वैराग्य देवे,
संसार की आसक्ति से ऊपर उठा के ईश्वर के रास्ते लगाये । अगर नहीं
लगाता है तो वह पिता पिता नहीं है । पिता न स स्यात्… । माँ का
भी यही कर्तव्य है । यदि माँ ईश्वर के रास्ते नहीं लगाती तो वह माँ माँ
नहीं है । जननी न सा स्यात्… । स्वजनो न स स्यात्… मामा है, चाचा
है, काका है – कोई भी हो, वह स्वजन स्वजन नहीं है जो अपने प्रिय
संबंधी को संयम और भक्ति का मार्ग दिखाकर मुक्ति के रास्ते न ले
जाय । देवता भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने में विघ्न डालता है तो दैवं
न तत्स्यात्… वह देव देव नहीं है । गुरु भी अगर ईश्वर के रास्ते जाने
से रोकते हैं तो गुरुर्न स स्यात्… वह गुरु गुरु नहीं है ।”
जिस-किसी के आगे मत गिड़गिड़ाओ, जिस किसी के आगे खुशामद
मत करो । अरे ! एक साधे सब सधे….।
एक अंतरात्मा द्रष्टा को साध लो । साक्षी चैतन्य अंतर्यामी, जो
अपना है, उसको अपना मान के लग जाओ बस !
कबिरा इह जग आय के, बहुत से कीन्हे मीत ।
जिन दिल बाँधा एक से, वो सोये निश्चिंत ।।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 4,5,7 अंक 356
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साधन अनेक, अंतिम स्वरूप एक



साधन दो प्रकार के होते हैं । एक वह जिसके द्वारा हम अपने
लक्ष्य को पहचानते या प्राप्त होता है या लक्षित होता है अर्थात् लक्ष्य
का शोधन । अंतःकरण परमात्मा की प्राप्ति का साधन है । अतः उसको
शुद्ध करने के लिए जो कुछ किया जाता है उसको बहिरंग साधन कहते
हैं । जैसे बंदूक से लक्ष्य पर गोली चलाना हो तो बंदूक की सफाई यह
करण की शुद्धि है और लक्ष्य को ठीक-ठीक देख लेना यह लक्ष्य की
शुद्धि है । करण की शुद्धि बहिरंग है और लक्ष्य की शुद्धि अंतरंग है
। परमात्मप्राप्ति के लिए क्रमशः विवेक-वैराग्य तथा श्रवण-मनन आदि
बहिरंग-अंतरंग होते हैं ।
अब विवेक कीजिये ! आपको अपने ही ज्ञान से जो अपना स्वरूप
न मालूम पड़े उसकी ओर से मन को हटा लीजिये । आपकी दृष्टि से
जो अनित्य है, जड़ है, दुःखरूप है उसमें मन लगाने की प्रवृत्ति को
रोकिये । आप स्वयं तो रहेंगे ही । बस, शांति है !
इस आत्मा और अनात्मा के विवेक से अर्थात् पृथक्ककरण से
आत्मा के प्रति उपरामता का उदय होगा । विवेक से स्वरूप-स्थिति भी
शांति है और वैराग्य यानि राग-द्वेष की निवृत्ति भी शांति ही है । अतः
विवेक और वैराग्य के फल में किसी प्रकार का अंतर नहीं है । हाँ, यह
अवश्य है कि पहले विवेक होगा, पीछे वैराग्य । दोनों साथ-साथ भी हो
सकते हैं । परंतु ये दोनों दो नहीं हैं, फलस्वरूप से शांति ही है ।
आप यह मत सोचिये कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा सत्य
के साक्षात्कार के लिए बहुत से साधन करने पड़ते हैं अथवा बड़े कठिन-
कठिन साधन करने पड़ते हैं । गम्भीरता से अनुभव कीजिये – मन में
काम-क्रोध का न आना शम है, वह शांति ही है, इन्द्रियों का चंचल न

होना दम है, वह भी तो शांति ही है, कर्म-विक्षेप की निवृत्ति उपरति है,
वह भी शांति ही है, दुःख-विक्षेप की शांति तितिक्षा है । अभिमान-विक्षेप
की शांति श्रद्धा है । अपने संकल्पों या विचारों को समेट लेने का नाम
समाधान है । इनके नाम अलग-अलग हैं परंतु इनका स्वरूप शांति ही है
। इसलिए साधक बहुत-से नाम सुनकर घबराना नहीं चाहिए । निराश
मत हो, उदास मत हो, यह तो सब एक ही निःसंकल्प जाग्रत के नाम हैं
। इनमें एक ही वस्तु है, केवल शांति, शांति, शांति ! यह शांति की दशा
जब निरंतर नहीं रहती और यह निश्चय हो जाता है कि ‘चित्त सदा एक
स्थिति में नहीं रह पाता, नहीं रह सकता’, तब चित्त से ही मुक्त होने
की तीव्र आकांक्षा जागृत होती है – आने जाने वाले विनश्वर पदार्थों से
मुक्त होकर अपने परमानंद, अद्वितीय स्वरूप के अनुभव की इच्छा
अर्थात् मुमुक्षा ।
साधनों का अंतिम स्वरूप
हाँ, तो अब यह विचार कीजिये कि जब सब साधनों का अंतिम
स्वरूप शांति ही है तो उनके नाम अनेक क्यों हैं ? अनेक इसलिए हैं कि
शांति एक होने पर भी उसके कार्य पृथक-पृथक हैं । काम-क्रोध को
मिटाने वाली शांति इत्यादि । अतः बहिरंग साधन इतना सुगम, इतना
सरल है कि थोड़ी-सी सावधानता आपको इससे सम्पन्न बना देगी और
आप सद्गुण के पास पहुँचकर अंतरंग साधन श्रवण-मनन आदि के
योग्य हो जायेंगे ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2022, पृष्ठ संख्या 22,25 अंक 356
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