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संकल्प की उत्पत्ति और उसके त्याग का विज्ञान



संकल्प से ही कामना बनती है और कामना बनती है तो बिगड़ती
भी है । कोई भी कामना सदा टिकेगी नहीं । कितना भी धन मिल जाय
व्यक्ति धन से ऊब जायेगा, थक जायेगा, धन से तृप्ति नहीं होगी ।
ऐसे ही सम्भोग से ऊब जायेगा, थक जायेगा, तृप्ति नहीं होगी और
अपने आपको जान लेगा तो तृप्ति मिटेगी नहीं क्योंकि जीवात्मा का
वास्तविक स्वरूप है तृप्तात्मा ।
स तृप्तो भवति । स अमृतो भवति ।
स तरति लोकांस्तारयति ।
जिसने आत्मदेव, जो अपना आपा है, उसको जान लिया तो उसे
पता चलता है कि आत्मा परमात्मा एक ही है । जैसे घड़े का आकाश
और महाकाश एक ही है, तरंग का पानी और समुद्र का पानी एक ही है
। तुम जब तक अपने आत्मदेव को नहीं जानते तब तक तो जो भी
संकल्प करोगे अष्टधा प्रकृति मं होंगे । चाहे हुए कुछ काम पूरे होंगे,
कुछ नहीं होंगे… जीवन में जो काम पूरे होंगे उनमें से कुछ भायेंगे, कुछ
नहीं भायेंगे और जो भायेंगे वे रहेंगे नहीं । इस प्रकार आखिर जीवात्मा
अतृप्त होकर ही अलविदा हो जाता है । तृप्ति तो उसको होती है जिसके
अपने सहज स्वभाव का पता चल गया । श्रीकृष्ण सहज स्वभाव में जगे
थे । अष्टधा प्रकृति का नाम ले के तुरंत बोलेः ‘मैं इस अष्टधा प्रकृति से
भिन्न हूँ ।’ ऐसे ही आपको लगे कि ‘मेरे यह दोष है’ तो इस ज्ञान की
स्मृति आ जाय कि ‘मेरे में नहीं, मन में दोष है । अब उसे मेरी सत्ता,
बल नहीं मिलेगा ।’
यजुर्वेद (अध्याय 3, मंत्र 51) में आता हैः
योजा न्विंद्र ते हरी ।

‘हे आत्मन् ! तू अपने विवेक और साहस को तुरंत संयुक्त रख ।’
सर्व संकल्प किसके सिद्ध होते हैं ?
यजुर्वेद (अध्याय 39, मंत्र 4) में प्रार्थना आयी हैः
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीय ।
‘मेरे मन के संकल्प पूर्ण हों । मेरी वाणी सत्यव्यवहार वाली हो ।’
सर्व संकल्प सिद्ध कैसे होते हैं, किसके होते हैं ?
पहले समझ लें कि मनुष्य बँधता कैसे है ? पहले फुरना होता है
फिर उससे जुड़कर संकल्प करके मनुष्य बँध जाता हैः फले सक्तो
निबध्यते । (गीताः 5.12) संकल्प से फिर कामना उत्पन्न हो जाती हैः
संकल्पप्रभवान्कामान् (गीताः 6.24), जो सम्पूर्ण पापों और दुःखों की जड़
है । जो सब संकल्पों का त्याग कर देता है वह बंधनों से मुक्त हो के
योगारूढ़ हो जाता है ।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसंकल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ।।
‘जिस समय जिज्ञासु इन्द्रियों के विषयों में और कर्मों में आसक्त
नहीं होता उस समय वह समस्त संकल्पों का त्याग करने वाला योगारूढ़
कहा जाता है ।’ (गीताः 6.4)
कितनी सीधी सरल बात है ! संकल्प या कामना तो मिटने वाली
चीज हैः आगमापायिनोऽनित्याः । इसको सह लो, बस- तांस्तितिक्षस्व
(गीताः 2.14) । चाहा हुआ हो गया तो वाह-वाह, नहीं भी हुआ तो वाह-
वाह ! आप जीवन्मुक्त हो जाओगे । सोऽमृतत्वाय कल्पते (गीताः 2.15)
– आप में परमात्मप्राप्ति का सामर्थ्य आ जायेगा । आपके अंतःकरण में
महान आनंद, महान शांति अपने आप आ जायेंगे । यह जीवन की
ज्वलंत सच्चाई है कि अपने उद्योग से किया हुआ ठहरता नहीं और

अपने आप जो स्वतः स्वाभाविक है वह जाता नहीं, जरा विचार कर देखो

समय का पता नहीं है । काल सबको खा जाता है । अच्छा विचार
हो तो काल खा जायेगा और बुरा विचार हो तो भी काल खा जायेगा ।
शुभ काम करने का संकल्प हो जाय तो उसको जल्दी शुरु कर देना
चाहिएः शुभस्य शीघ्रम् । फिर करेंगे ऐसा नहीं । यदि मन में बुरा विचार
आ जाय तो थोड़ा ठहरो, ‘थोड़ा ठहरो…’ ऐसा करने से फिर वह नहीं
रहेगा ।
अपना संकल्प छोड़ दो अशांति रहेगी ही नहीं । अपना कोई संकल्प
मत रखो तो शांति के सिवाय क्या रहेगा ? केवल शांति, शुद्ध शांति
रहेगी और आगे चलकर परम शांति की प्राप्ति हो जायेगी ।
बुद्धिमान मनुष्य सब फुरनों को पसार होने देता है, उनसे जुड़कर
‘ऐसा बनूँ… ऐसा बनूँ… ऐसा बनूँ…’ ऐसे संकल्प नहीं करता ।
‘बाबा ! संकल्प छूटते नहीं… संकल्पों का त्याग कैसे हो ?
सरल, सुन्दर उपाय हैः ‘हरि ॐ’ का प्लुत (खूब लम्बा) उच्चारण
करना । जितनी देर उच्चारण करो उतनी देर चुप बैठो तो संकल्पों की
भीड़ कम हो जायेगी । कम होते-होते 2 सेकंड, 4 सेकेंड भी निःसंकल्प
रहे तो अच्छी अवस्था आयेगी । फिर 5-10 करते-करते 25 सेकंड
निःसंकल्प हो गये तो और अच्छी अवस्था है । ऐसा नहीं कि सुन्न-
मुन्न हो गये, सजग रहें । ऐसे निःसंकल्प अवस्थावाले का संकल्प एक
बार हो जाय तो
यदि वह संकल्प चलाये, मुर्दा भी जीवित हो जाये ।।
एक बार जो दर्शन पाये, शांति का अनुभव हो जाये ।।
निःसंकल्प पुरुष केवल एक दृष्टि डालें तो सबके मन में शांति !

उठना है, जाना है लेकिन जाने का मन नहीं होता । गुरु जी बोलेः
‘बाबा ! अब चलें ?’ तो चेला जी बोलेः
जरा ठहरो गुरुदेवा ! अभी दिल भरा ही नहीं…
कैसे दिल भरा नहीं ? अरे, गुरु जी ने अपनी कृपा का संकल्प डाल
दिया है, दिल में आनंद, शांति बरस रहे हैं – बरस रहे हैं तो दिल क्या
भरेगा, वह तो कहेगा – और, और, और… । सिद्ध पुरुषों कृपादृष्टि में
यह ताकत होती है । जिनके संकल्प निःसकंल्प नारायण में शांत होते हैं
वे ही सिद्ध पुरुष होते हैं । जो संकल्प का गुलाम होता है वह तो तुच्छ
होता है । निःसंकल्प पुरुष न तो रागी होते हैं न द्वेषी होते हैं, न
अहंकारी होते हैं न निरहंकारी भाव वाले होते हैं । गुणातीत, देशातीत,
कालातीत, वस्तु-अतीत तत्त्व में वे तो… फिर वहाँ शब्द नहीं जाते । यह
राज समझ में तो आता है, समझाया नहीं जाता । हरि ओऽऽऽऽ…म्..
हरि ओऽऽऽ…म्… इस प्रकार प्लुत उच्चारण करके रोज होते जाओ थोड़ा
निःसंकल्प । जो संकल्पों को पीछे नहीं पड़ते और ध्यान करके
निःसंकल्प नारायण में स्थिर होते हैं वे सर्वसंकल्पत्यागी पुरुष योगी
कहलाते हैं व पूर्णकाम हो जाते हैं, जीवन्मुक्त हो जाते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 357
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संकल्प की शक्ति – पूज्य बापू जी



शुभ संकल्प में क्या ताकत है उसका बयान मैं नहीं कर सकता हूँ
। गंगाराम हो गये सिंधी साँईं, उन्होंने मेरे गुरु जी पूज्यपाद लीलाशाह
जी प्रभु का गांधी जी से जुड़ा एक प्रसंग बताया ।
महात्मा गांधी ने हरिजन-हित के लिए उपवास रखा था और वे
सच्चे आदमी थे । उनकी तबीयत लड़खड़ा गयी । यह बात शहदादपुर में
मेरे गुरु जी को पता चली तो उन्होंने लोगों को बुलाकर कहाः “महात्मा
गांधी की तबीयत बहुत गिर गयी है । चलो, संकल्प करें कि वे जीवित
रहें । देश का भला होगा, भारत आजाद होगा ।
मेरे गुरु जी का संकल्प दृढ़ था । लोगों को निमित्त बनाकर उनसे
भी संकल्प करवायाः ‘गांधी स्वस्थ हों, स्वस्थ हों, स्वस्थ हों ! मोहनदास
करमचंद गांधी स्वस्थ हों, गांधी जी स्वस्थ हों !’ प्रार्थना व संकल्प
करवा के फिर बोलेः “सुबह शाम कहो, गांधी जी बच जायें, जब भी
आपस में मिलो तो यही कहो कि ‘गांधी जी स्वस्थ हों’ । तुम्हारे संकल्पों
से भी देश की सेवा करने वाले गांधी जी स्वस्थ हो जायेंगे ।
और गांधी जी वास्तव में स्वस्थ हो गये । ऐसे स्वस्थ हुए कि
हरिजन-उद्धार में तो सफल हुए ही, भारत के शोषकों को भगाने में भी
गांधी जी सफल हुए और अपने हयातीकाल में यह सब देख के गये ।
मेरे गुरुदेव भगवत्पाद लीलाशाह जी बापू के संकल्प में और लोक-संकल्प
में कैसी शक्ति छुपी है !
हमारे गुरु जी का ऐसा दृढ़ संकल्प कि चलती रेलगाड़ी को रोक
दिया ! नीम के पेड़ को स्थान बदलने का आदेश दिया तो वह सही
जगह पर पहुँच गया । कैसा दृढ़ संकल्प है !
तुम्हारे संकल्प को कौन टाल सकता है !

मेरा स्वास्थ्य जो टनाटन हो रहा है इसमें क्या मेरे साधकों का
संकल्प नहीं काम कर रहा है ? उन्हीं का है संकल्पः ‘बापू हमारे स्वस्थ
रहें, आयु लम्बी हो…’ तो कैसा टनाटन हो रहा हूँ ! लम्बा भी जी रहा
हूँ । जो जिसके लिए जैसा संकल्प करता है घूम-फिर के वह संकल्प
संकल्पकर्ता को भी वैसा ही फल देता है । मैं किसी के लिए कहूँ कि
‘यह अशांत हो, दुःखी हो, मरे-मरे…’ तो अशांति और दुःख मेरे को भी
घेर लेंगे और कहूँ, ‘इसका मंगल हो, भला हो, इसका ऐसे-ऐसे हित हो…’
तो मेरा मन भी मंगल होगा । तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । तो मंगल
संकल्प, शुभ संकल्प करो । आप यह संकल्प कर सकते हो । परस्परं
भावयन्तु ।
तुम्हारे संकल्प है कि ‘बापू जी हमारे बीच आयें ।’ तो उनको कौन
टाल सकता है ? निष्काम भावना के संकल्प को कौन टाल सकता है ?
दुष्ट लगे रहते हैं तो दुष्ट संकल्प भी पूरे कर लेते हैं तो साधकों के शुभ
संकल्प भी पूरे होंगे ही ।
(बापू जी हमारे बीच आयें… बापू जी हमारे बीच आयें…’ यह शुभ
संकल्प सभी साधकों को नियमित रूप से दृढ़ता से करना चाहिए । जैसे
हमारे पूज्य दादागुरुजी ने गांधी जी के स्वास्थ्य के लिय़ संकल्प कराया
था वैसे ही हम सभी सुबह-शाम, जब भी आपस में मिलें तब यही कहें
कि ‘बापू जी हमारे बीच आयें… बापू जी हमारे बीच आयें…’ गुरुदेव की
कृपा से हमारा शुभ संकल्प अवश्य पूरा होगा । – संकलक)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 20 अंक 357
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परिप्रश्नेन



सबसे ऊँची विद्या क्या है ? – पूज्य बापू जी
आप अपने आत्मा-परमात्मा में बैठो ।
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।
आजकल लोग बोलते हैं कि ‘उच्च शिक्षा-प्राप्त’ – विज्ञान में, कोई
डॉक्टरी में, कोई किसी में उच्च शिक्षा-प्राप्त… । ऊँची शिक्षा का अर्थ तो
यह है कि वह विद्या जिसके द्वारा प्राप्त ऊँचाई से बढ़कर फिर और
कोई ऊँचाई देखने को न मिले । ब्रह्मविद्या विद्यानाम्…
सारी विद्याओं में ऊँची विद्या है ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या । इससे
बढ़कर कोई ऊँची विद्या नहीं है । आजकल जो पढ़ायी जाती है वह
संसारी विद्या है, पेटपालू विद्या है लेकिन व्यास भगवान या ब्रह्मज्ञानी
संतों के पास जो मुक्त कराने वाली विद्या मिलती है वह ब्रह्मविद्या है
। ब्रह्मविद्या ही वास्तव में ऊँची विद्या है । जो सुख-दुःख की चोटों से
छुड़ा दे, जो जन्म-मरण के चक्कर से छुड़ा दे, जो मान-अपमान के
प्रभावों से आपको विनिर्मुक्त कर दे, जो काल के प्रभाव से आपको पार
कर दे, जो कर्म-बंधन के प्रभाव से पार कर दे वही उच्च विद्या है
वास्तव में ।
आजकल तो जिस किसी के नाम में जोड़ देते हैं ‘उच्च शिक्षा-प्राप्त’
। यह लौकिक विद्या तो पेटपालू विद्या है । ऊँचे-में-ऊँचा जो सार तत्त्व
है उसको जानने की विद्या उच्च विद्या है । इस विद्या को पाने के
लिए राजे-महाराजे राजपाट छोड़ देते थे और गुरुओं के द्वार पर रहने के
लिए भिक्षा माँगकर खाना स्वीकार करते थे । पहले यह उच्च विद्या
गुरुकुलों में मिलती थी । रंक का पुत्र और राजा का पुत्र एक ही

बिछायत पर बैठते, एक ही कक्ष में बैठते और ऐहिक विद्या, जिसको
गणित, विज्ञान आदि कहते हैं, के साथ-साथ उच्च विद्या भी पाते थे ।
जैसे श्री रामचन्द्र जी महर्षि वसिष्ठ जी के आश्रम में ऐहिक विद्या
के साथ-साथ उच्च विद्या भी पाते थे । धनुर्विद्या आदि सीखते थे तब
भी उसमें से समय निकालकर आत्मविद्या, उच्च विद्या पाने में लगते
थे । जीवात्मा को परमात्मा के स्वरूप के साथ स्वतःसिद्ध एकत्व का
अनुभव करा दे ऐसी यह ऊँची विद्या है । इस उच्च विद्या का श्रवण
करने का सौभाग्य भी बड़े पुण्यों से मिलता है । इस उच्च विद्या को
सुनने-सुनाने वाला, समझने-समझाने वाला भी देवताओँ से सम्मानित
होता है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2022, पृष्ठ संख्या 21 अंक 357
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