Tag Archives: Vivek Vichar

रोग से छुट्टी भी और रुग्णावस्था का सदुपयोग भी – पूज्य बापूजी


मन की अस्वस्थता के समय भी आप दिव्य विचार करके लाभान्वित हो सकते हैं । आपके शरीर को रोग ने घेर लिया हो, आप बिस्तर पर पड़ें हो अथवा आपको कोई शारीरिक पीड़ा सताती हो तो इन (निम्नलिखित) विचारों को अवश्य दोहराना । इन विचारों को अपने विचार बनाना । अवश्य लाभ होगा । ऐसे समय में अपने-आपसे पूछोः ‘रोग या पीड़ा किसे हुई है ?’ ‘शरीर को हुई है । शरीर पंचभूतों का है, इसमें तो परिवर्तन होता ही रहता है । दबी हुई कोई अशुद्धि रोग के कारण बाहर निकल रही है अथवा इस देह मे जो मेरी ममता है उसको दूर करने का सुअवसर आया है । पीड़ा इस पंचभौतिक शरीर को हो रही है, दुर्बल तन-मन हुए हैं, इनकी दुर्बलता को, इनकी पीड़ा को जानने वाला मैं इनसे पृथक हूँ । प्रकृति के इस शरीर की रक्षा अथवा इसमें परिवर्तन प्रकृति ही करती है । मैं परिवर्तन से निर्लेप हूँ । मैं प्रभु का, प्रभु मेरे । मैं चैतन्य आत्मा हूँ, परिवर्तन प्रकृति में है । मैं प्रकृति का भी साक्षी हूँ । शरीर की आरोग्यता, रुग्णता या मध्यावस्था – सबको देखने वाला हूँ ।’ ‘ॐ… ॐ… ॐ…’ का पावन रटन करके अपनी महिमा में, अपनी आत्मशुद्धि में जाग जाओ । फिर रोग के बाप की ताकत नहीं कि आपको सताय और ज्यादा समय टिके । अरे भैया ! चिंता किस बात की ? क्या तुम्हारा कोई नियंता नहीं है ? हजारों तन बदलने पर, हजारों मन के भाव बदलने पर भी सदियों से तुम्हारे साथ रहने वाला परमात्मा, द्रष्टा, साक्षी, वह अबदल आत्मा क्या तुम्हारा रक्षक नहीं है ? क्या पता, इस रुग्णावस्था से भी कुछ नया अनुभव मिलने वाला हो, शरीर की अहंता और संबंधों की ममता तोड़ने के लिए तुम्हारे प्यारे प्रभु ने यही यह स्थिति पैदा की हो तो ? तू घबरा मत, चिंता मत कर बल्कि ‘तेरी मर्जी पूरण हो !…’ ऐसा भाव रख । यह शरीर प्रकृति का है, पंचभूतों का है । मन और मन के विचार एवं तन के संबंध स्वप्नमात्र हैं । उन्हें बीतने दो भैया ! ॐ शांति… ॐ आनंद… ॐ… ॐ… इस प्रकार के विचार करके रुग्णावस्था का पूरा सदुपयोग करें, आपको खूब लाभ होगा । खान-पान में सावधानी बरतें, पथ्य-अपथ्य का ध्यान रखें, निद्रा जागरण-विहार का ख्याल रखें, उचित उपचार करें और यह (उपरोक्त) प्रयोग करें तो आप शीघ्र स्वस्थ हो जायेंगे । स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 34 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शरीर की दवाई कम करो, मन की दवाई करो – पूज्य बापूजी


शरीर की बीमारी कोई बड़ी बीमारी नहीं, मन की बीमारी नहीं आनी चाहिए । अमेरिका के एक स्पीकर को 21 साल की उम्र में टी.बी. की बीमारी हो गयी थी, जो तीसरे दर्जे में आ गयी थी । अस्पताल में उसने सोचा कि ‘अब तो टी.बी. में बहुत पीड़ा झेलते-झेलते मरना है, इससे तो जहर पी के मर जाऊँ ।’ घातक जहर की 2 छोटी-छोटी बोतलें उसने मँगा रखी थीं । उसका मित्र मिलने आया । उसने उन बोतलों को देखा तो सोचा कि ‘ये दो बोतलें क्यों मँगायी होंगी ?’ पूछने पर मित्र बोलाः “दिल खोल के बता देता हूँ कि बस, अब ऐसे दुःखद जीवन से मर जाना अच्छा है ऐसा विचार बन रहा है ।” मित्र ने कहाः “टी.बी. तुम्हारे फेफड़ों में है, तुम्हारे शरीर में है, तुम्हारे मन पर इसका असर न होने दो । ‘मुझे टी.बी. नहीं है, फेफड़ों में टी.बी. है’ ऐसा चिंतन करके तुम प्रसन्न रहो और मनोबल से तुम यह विचार करो कि ‘टी.बी. चली जायेगी । टी.बी. की क्या ताकत है जो मुझे मारेगी !’ तुम दुर्बलता के विचार करके अपनी ही मौत को बुलाते हो, यह ठीक नहीं है । तुम्हारे अंदर अथाह शक्ति है, तुम बल के विचार करो ।” उसका कहना बीमार मित्र ने मान लिया । बल के विचार करते-करते स्वयं तो ठीक हो गया, साथ-साथ उस टी.बी. हॉस्पिटल में और जो भी जो पीड़ित थे उनमें भी प्राण फूँकने लग गया । उसके बलप्रद विचारों को जिन्होंने माना वे लोग भी ठीक हो गये । ऐसे ही एक घऱ में किसी व्यक्ति की टी.बी. से मौत हो गयी थी । तीसरा होने के बाद उसका एक मित्र और एक संबंधी, जो बाहर गाँव रहते थे, वे उसके घरवालों से मिलने आये । घर छोटा था तो जहाँ उस व्यक्ति की टी.बी. से मृत्यु हुई थी उसमें अनजान मेहमान (मित्र) को रखा और घर के बाहर जो बरामदा था वहाँ उस संबंधी को रखा कि “आइय, आप तो घर के व्यक्ति हैं, बरामदे में सोयेंगे तो हर्ज नहीं ।” तो जो बरामदे में सोया था उसने सोचा कि ‘यहाँ चाचा टी.बी. के रोग से मर गये हैं, उनके किटाणु लगेंगे । मैं तो मर जाऊँगा, बीमार हो जाऊँगा… मर जाऊँगा, बीमार हो जाऊँगा… ।’ और जो मेहमान था उसको पता नहीं था कि यहाँ इस कमरे में मरे हैं या उस कमरे में मरे हैं । मेहमान तो उस कमरे में सोया था जिसमें उस व्यक्ति की मृत्यु हुई थी । मेहमान को कुछ नहीं हुआ लेकिन जिसने सोचा कि ‘मेरे को कुछ हो जायेगा, कुछ हो जायेगा’ उसको दूसरे दिन ही रोग ने पकड़ लिया । तो मन में बड़ी शक्ति है । आपका मन एक कल्पवृक्ष है । आप जिस समय जैसा सोचते हैं उस समय आपको वैसा ही दिखेगा । इसलिए आप शरीर की दवाई कम करो तो हर्ज नहीं पर अपने मन की दवाई अवश्य करो । मन की दवाई करके मन को अगर तंदुरुस्त कर लिया तो योगी का योग सिद्ध हो जाता है, तपी की तपस्या सिद्ध हो जाती है, जपी का जप सिद्ध हो जाता है, ज्ञानी का ज्ञान सिद्ध हो जाता है क्योंकि यह मन ही बंधन का कारण है और मन ही मुक्ति का कारण है, मन ही मित्रता का कारण है और मन ही शत्रुता का कारण है । इसलिए आप अपने मन पर थोड़ी निगरानी रखो। स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 25 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

रोग का रहस्य और निरोगता का मूल


रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है । रोग पर वही विजय प्राप्त कर सकता है जो शरीर से असंगता का अनुभव कर लेता है । प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिंतन, अप्राप्त की रुचि और प्राप्त से अरुचि – यही मानसिक रोग है । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और आशारहितता ही आरोग्यता है । देहभाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । रोग प्राकृतिक तप है । उससे डरो मत । भोग की रुचि का नाश तेथा देहाभिमान गलाने के लिए रोग आता है । इस दृष्टि से रोग बड़ी आवश्यक वस्तु है । रोग का वास्तविक मूल तो किसी-न-किसी प्रकार का राग ही है । रागरहित करने के लिए ही रोग के स्वरूप में अपने प्यारे प्रभु प्रीतम का ही मिलन होता है । हम प्रमादवश उन्हें पहचान नहीं पाते और रोग से भयभीत होकर छुटकारा पाने के लिए आतुर तथा व्याकुल हो जाते हैं, जो वास्तव में देहाभिमान का परिचय है, और कुछ नहीं । भोजन की रुचि ने सभी को रोगी बनाया है । यद्यपि भोजन परिवर्तनशील जीवन का मुख्य अंग है परंतु उसकी रुचि अनेक रोग भी उत्पन्न करती है । असंगता सुरक्षित बनी रहे और भूख तथा भोजन का मिलन सहजभाव से होता रहे तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक बहुत-से रोग मिट जाते हैं । रोग राग का परिणाम है, और कुछ नहीं, चाहे वर्तमान राग हो या पूर्वकृत । देहजनित सुख की दासता का अंत करने के लिए रोग के रूप में तुम्हारे ही प्रीतम आये हैं । उनसे डरो मत अपितु उनका आदरपूर्वक स्वागत करो और विधिवत् उनकी पूजा करो । भोग के राग का अंत कर रोग अपने-आप चला जायेगा । स्वरूप से तुम किसी भी काल में रोगी नहीं हो । केवल देह की तद्रूपता से ही तुम्हें अपने में रोग प्रतीत होता है । रोगावस्था में शांत तथा प्रसन्न रहना अनिवार्य है । चित्त में प्रसन्नता तथा हृदय में निर्भयता रहने से प्राणशक्ति सबल हो जाती है । प्राणशक्ति सबल होने पर प्रत्येक रोग स्वतः नष्ट हो जाता है । भोग का त्याग कराने के लिए रोग आता है। इस दृष्टि से रोग भोग की अपेक्षा अधिक महत्त्व की वस्तु है । स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2022, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 358 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ