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इन आठ पुष्पों से भगवान तुरन्त प्रसन्न होते हैं – पूज्य बापू जी



एक बार राजा अम्बरीष ने देवर्षि नारदजी से पूछाः “भगवान की
पूजा के लिए भगवान को कौन से पुष्प पसंद हैं ?”
नारदजीः “राजन ! भगवान को आठ प्रकार के पुष्प पसंद हैं । उन
पुष्पों से जो भगवान की पूजा करता है, भगवान उसके हृदय में प्रकट हो
जाते हैं । उसकी बुद्धि भगवद्-ज्ञान में गोता लगाकर ऋतम्भरा प्रज्ञा हो
जाती है । उसकी 21 पीढ़ियाँ तर जाती हैं !”
अम्बरीषः “महात्मन् ! कृपा करके जल्दी बताइये । वे पुष्प अगर
बगीचे में नहीं होंगे तो उनके पौधे मँगवाकर उन्हें अपने बगीचे में जरूर
लगवाऊँगा एवं प्रतिदिन उन्हीं पुष्पों से भगवान की पूजा करूँगा ।”
नारद जी मंद-मंद मुस्कराये एवं बोलेः “अम्बरीष ! वे पुष्प किसी
माली के बगीचे में नहीं होते । वे पुष्प तो तुम्हारे हृदयरूपी बगीचे में ही
हो सकते हैं ।”
“महाराज ! अगर मेरे हृदय में वे पुष्प हो सकते हैं तो मैं वहाँ
जरूर बोऊँगा और वे ही पुष्प भगवान को चढ़ाऊँगा । देवर्षि ! जल्दी
कहिये कि जिन पुष्पों से श्रीहरि संतुष्ट होते हैं और पूजा करने वाले को
भगवन्मय बना देते हैं वे कौन से पुष्प हैं ?”
राजा अम्बरीष यह कह टकटकी लगाये देवर्षि की ओर देखने लगे

तब नारद जी ने कहाः “पुण्यात्मा अम्बरीष ! भगवान इन आठ
पुष्पों से प्रसन्न होते हैं एवं इन पुष्पों से पूजा करने पर प्रकट हो जाते
हैं तथा भक्त को अपने से मिला लेते हैं । जैसे तरंग को पानी अपने में
मिला ले, घटाकाश को महाकाश अपने में मिला ले वैसे ही जीव को
ब्रह्म अपने में मिला लेता है । फिर वह बाहर से भले सजा ही दिखे

लेकिन भीतर से परमात्मा साथ एक हो जाता है । ऐसे वे आठ पुष्प हैं

राजा अम्बरीष का धैर्य टूटा । वे बोलेः “देवर्षि ! देर न कीजिये,
अब बता भी दीजिये ।”
नारदजीः “वे आठ पुष्प इस प्रकार हैं-
1.इन्द्रियनिग्रहः व्यर्थ देखने, सूँघने, सोचने, इधऱ-उधर व्यर्थ जगह
पर भटकने की आदत को रोकना – इसको कहते हैं इन्द्रियनिग्रहररूपी
पुष्प ।
2.अहिंसाः मन-वचन-कर्म से किसी को दुःख न देना।
3.निर्दोष प्राणियों पर दयाः मूक एवं निर्दोष प्राणियों को न सताना
। दोषी को अगर दंड भी देना हो तो उसके हित की भावना से देना ।
4.क्षमारूपी पुष्प ।
5.मनोनिग्रह (शम)- मन को एक जगह पर लगाने का अभ्यास
करना, एकाग्र करना ।
6.ध्यानः भगवान का ध्यान करना ।
7.सत्य का पालन ।
8.श्रद्धाः भगवान और भगवान को पाये हुए महापुरुषों में दृढ़
श्रद्धा रखना ।
इन आठ पुष्पों से भगवान तुरंत प्रसन्न होते हैं एवं वे साधक को
सिद्ध बना देते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 7 अंक 364
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आपकी वास्तविक शोभा किसमें है ? – पूज्य बापू जी



भूषणों का भूषण क्या है ? शील । बाहर की सब सम्पत्ति मिलाकर
भी व्यक्ति वह सुख, वह चैन, वह शांति, वह कल्याण नहीं पा सकता
है जो शील से प्राप्त होता है । राजवैभव, स्वर्ग का नंदनवन आदि होते
हुए भी इन्द्र को वह आनंद, वह प्रसन्नता न थी जो शीलवान प्रह्लाद
को थी ।
जिनके पास शील है वे साधन हों तब भी सुखी रह सकते हैं और
साधन नहीं भी हों तो भी सुखी रह सकते हैं और जिनके जीवन में शील
नहीं है उनके पास साधन होते हुए भी वे परेशान होते हैं और कंगालियत
आने पर भी परेशान रहते हैं ।
एक सम्राट के पुत्र का किसी शत्रु की राजकुमारी से मन लग गया
और वह एकांत में उसके साथ रहने लगा । इकलौता बेटा था, बाप को
बड़ा दुःख होता था । उसकी यही चाह थी कि ‘मेरा बेटा कैसे भी करके
आ जाय ।’ बाप मृत्युशैय्या पर था, उसको बुलावा भेजा कि ‘तू केवल
एक बार मेरे पास आ जा ।’
वह राजकुमार अपनी पत्नी को कहता है कि “मेरे पिता मुझे याद
कर रहे हैं, मैं उनके पास जा के आता हूँ । अगर वे स्वस्थ हो गये तो
मुझ पर प्रसन्न होंगे और वे चले गये तो मैं राजा बन जाऊँगा ।”
पत्नीः “तुम राजा बन जाओगे तो मेरा क्या होगा ?”
“मेरे नाम की अंकित अँगूठी है वह तुझे दिये जाता हूँ । मैं तुझे
नहीं भूलूँगा, तुझे बुला लूँगा और वहाँ अपनी पटरानी बना लूँगा ।”
पत्नी ने छुट्टी दे दी ।
आया पिता के पास । पिता ने कहाः “बेटा ! मैं मृत्युशैय्या पर हूँ,
मेरा उत्तराधिकारी तू है । केवल मेरी एक बात मान तो मेरे प्राण सुख से

निकलें । मैं तेरे से कोई और अपेक्षा नहीं करता हूँ, तू मेरा केवल एक
वचन मान । आखिर मैं तेरा पिता हूँ ! भीष्म जी ने अपने पिता के लिए
क्या नहीं किया ! श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता के लिए क्या नहीं
किया !” इस प्रकार के पिताभक्त, माता-पिता भक्त पुत्रों की याद
दिलायी तो उसके मन पर पवित्रता की कुछ छाया आयी ।
उसने कहाः “अच्छा, आप जो बोलेंगे वह एक बात आपकी मान
लूँगा ।”
पिता ने कहाः “गंधर्वराज की कन्या से तू विवाह कर ले और मेरा
राज्य सँभाल ले ।”
राजकुमार गंधर्वराज की कन्या से विवाह के लिए सहमत हो गया

महाराज ! विवाह कर लिया, गंधर्वराज की कन्या मिल गयी,
राजकाज करने लगा । वह अपनी उस रानी को, जिसके साथ दिल लगा
था, भूल गया । उस रानी के पास एक बुद्धिमान दासी थी । उस दासी
ने अन्य 3 दासियों और चौथी रानी को युवकों के वेश में राजा के पास
भेजा और राजा का अंगरक्षक होने के लिए याचना की । उऩका व्यवहार,
शोभा देखकर राजा ने उऩको अपने निकटवर्ती सेवकों के रूप में रखा ।
एक दिन राजा बगीचे में घूमने गया । अंगरक्षक के नाते वे चारों
भी पुरुष के वेश में गयीं । राजा अकेला बैठा था तब उसकी पहली
पत्नी, जो पुरुष के वेश में थी, उदासी पूर्वक राजा के निकट हाथ
जोड़कर जा बैठी ।
राजा ने पूछाः “यह तेरे हाथ पर जो अँगूठी चमक रही है, कहाँ से
लाया तू ? इस पर तो मेरा नाम लिखा है ।”
उसने कहाः “राजन ! यह आप ही ने दी थी ।”

“मैंने तेरे को कब दी ?”
“राजन् ! मेरे को आपने भार्या बनाया था और विदा लेते समय
यादगार के रूप में यह अँगूठी दी थी । मैं वही आपकी पहली पत्नी हूँ
।”
राजा को स्मरण हो आया ।
पर वह कहती हैः “किंतु अब गंधर्वराज की कन्या पटरानी है । मैं
उसका अधिकार नहीं छीनूँगी । आप इजाजत दें तो मैं दासी होकर महल
में रहूँगी । आपकी चाकरी करूँगी और उनकी भी चाकरी करूँगी ।”
राजा उसे महल में ले आया । गंधर्वराज की कन्या जो पटरानी थी,
उससे बातचीत हुई । उसने कहाः “नहीं ये चाकर हो के नहीं रह सकती
है, आपकी प्रथम पत्नी ये है, मैं बाद में हूँ । पटरानी होने के पहला
अधिकार इनका है । मैं इनकी सेविका बन के रहूँगी ।”
वह बोलती है, ‘मैं सेविका हो के रहूँगी…’ यह बोलती है, ‘मैं सेविका
हो के रहूँगी ।’ दोनों की एक-दूसरे के प्रति आदरवृत्ति हुई । यह शील है

जैसे राम जी कहते हैं कि ‘राज्य का अधिकार भरत का है ।’ भरत
कहते हैं- ‘नहीं, राज्य बडे भाई करें ।’ यह शील है ।
कई लोग चाँदी, सोने, प्लेटिनम आदि के तमाम प्रकार के आभूषण
पहनते हैं । लोग यह समझते हैं कि गहने पहनने से हम सुशोभित होते
हैं लेकिन शास्त्रकारों का कहना है, बुद्धिमानों का अनुभव है कि गहने
पहनने से हम सुशोभित नहीं होते हो बल्कि तुम्हारा हाड़-मांस का,
चमड़ेवाला शरीर सुशोभित अथवा थोड़ा सा चमकवाला हो सके तो होता
है । तुम्हारी शोभा इन गहनों से नहीं है, तुम्हारी शोभा इन अलंकारों से
नहीं है अपितु तुम्हारी शोभा जो निखरनी चाहिए वह तो देह के अधिक

लालन-पालन से, देह को टिप-टॉप करने की वृत्ति से दब जाती है और
हाड़-मांस की थोड़ी सी बनावटी चमक-दमक दिखती है । तुम्हारी शोभा
भूषणों से नहीं है, तुम्हारी शोभा शील से है ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 20,21 अंक 364
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हलकी आदतें निकालने में है बहादुरी – पूज्य बापू जी



अपने को देह मानते हैं, देह के नाम को सच्चा मानते हैं और बस
उसी में लगे रहते हैं । और उसी का नाम रहे, कोई ऐसा न कहे कि
‘ऐसा नहीं किया, ऐसी जिम्मेदारी नहीं निभायी’ इसलिए रगड़े जा रहे हैं

जितनी समता ज्यादा और राग-द्वेष कम उतना व्यक्ति ऊँचा ।
जितना कपट, जितनी वैर लेने की भावना गहरी उतना व्यक्ति हलकट
(ओछा, नीच) । वैर लेना, बदला लेना, राग-द्वेष रखना यह हलकट
अंतःकरण की निशानी है । तो हलकट अंतःकरण का हलकटपना
निकालने में बहादुरी है । ऐसा नहीं कि उसकी आदत पूरी हो । कोई
कहेः ‘मैं इससे बदला लूँ ।’ और आप उसको बदला लेने में सफल बना
दो और पूछोः ‘अच्छा, अब खुश हुए ?’ वह बोलेः ‘हाँ, खुश हुआ ।’
लेकिन उसका वह बदला लेने का हलकटपना तो बढ़ गया ! क्षमा सीखो
। वैर भाव मिटाने के लिए क्षमा सीखो । इसलिए राजे-महाराजे राजपाट
छोड़ के भिक्षा लेने जाते और भिक्षा में अपमान हो जाये तो मन को
समझाते थे कि ‘बेटा ! सह ले, मान-अपमान देह का होता है ।…’ ऐसा
थोड़े ही है कि रोटी नहीं मिलती थी इसलिए भिक्षा मँगवाते थे राजाओं
से । जो राग है, पुजवाने की, वाहवाही की आदत है वह मिटे, द्वेष,
बदला लेने की आदत मिटे ।
डाकू अंगुलिमाल महात्मा बुद्ध का शिष्य हो गया और फिर भिक्षा
लेने गया तो लोगों ने देखा कि ‘इसने तो मेरे चाचा कि उँगली काट के
गले में पहनी थी… यह तो मेरे भतीजी की हत्या करने वाला है… यह
तो मेरे फलाने का हत्यारा है…’ तो लोगों ने मिलकर उसको तो पत्थर-
वत्थर मारे, भिक्षा क्या दें ! साधु बन गया तो सिर फोड़ दिया फिर भी

अंगुलिमाल कुछ नहीं बोला क्योंकि बुद्ध ने कहा था कि “सबके प्रति
करुणा का भाव रखना और सबका भला चाहना ।”
गुरु की बात मान के भिक्षा के बदले में सिर फुड़वा के आ गया तो
बड़ा शांत रहा ।
बुद्ध ने पूछाः “यह क्या हुआ ?”
बोलाः “मैं अंगुलिमाल डाकू था न, तब कइयों की उँगली काट के
माला बना के उसे पहनकर घूमता था । भिक्षा लेने गया तो उन सबने
अपना वैर निकालने के लिए मुझे पत्थऱ मारे तो घायल हो गया ।”
इतना सब होने पर भी अंगुलिमाल शांत था । बुद्ध ने देखा वैर
लेने का भाव नहीं है तो बोलेः “तूने तो कई जन्मों का काम कभी निपटा
लिया, वाह !”
अंगुलिमाल बोलाः “भंते ! आपकी कृपा है ।”
“मेरी कृपा तो कइयों पर है परंतु तुमने पचा ली ।”
तो वैर निकाले, आलस्य निकाले… अपनी हलकी आदत आप ही
निकालेगा तभी उन्नति होगी । नहीं तो इतना सत्संग सुना और छुप के
फिर फिल्म देखेंगे तो मेरा सत्संग क्या करेगा ? आप बताओ ! सभी
लोग नहीं किंतु कोई-कोई ऐसे भी हैं जो छुप के बाजारू चीजें खाते हैं तो
बुद्धि वैसे ही चटोरी है फिर और करते रहेंगे । जो पहले की जो आदत
पड़ी है या कई जन्मों का जो जीभ का आकर्षण है, किसी को आँख का
आकर्षण है… जिसको जो भी आकर्षण है उसकी पूर्ति में लगे तो
भटकना चालू रहेगा । जैसे – जो देखने के शौकीन हैं वे देखने का मजा
लेते है तो दूसरे जन्म में पतंगा बना, दीया देख-देख के फिर जा के
जल मरो । चटोरेपन की आदत है तो दूसरे जन्म में फिर मछली बनो,
स्वाद लेते-लेते फँस मरो, मछली या उसके अऩुरूप और भी कई शरीर है

प्रकृति के पास । सम्भोग करने की आदत है और वह वासना खूब है तो
दूसरे जन्म में सूअर बनो या फिर बकरा बनो, दिन में 40 बकरियों के
साथ सम्भोग करो और फिर कसाई के यहाँ कटो । मांस खाने की आदत
है तो गिद्ध बनो या तो कोई दूसरे हिंसक प्राणी बनो । आपकी जो
आदतत तीव्र होती है उसी आदत की पूर्ति के अऩुरूप हो ऐसा शरीर
प्रकृति आपको देगी । अगर परमात्मा को पाने की इच्छा तीव्र है और
अपने मैं को जानने की ललक है तो फिर वैसा ही वातावरण मिलेगा ।
अपने असली मैं को जान लोगे तो फिर कोई मजूरी करनी न पड़ेगी ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2023, पृष्ठ संख्या 16, 17 अंक 364
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