आत्म-साक्षात्कार – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

आत्म-साक्षात्कार – पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू


दिनांकः 14 अक्तूबर 1996 पूज्य श्री के आत्मसाक्षात्कार दिवस पर विशेष

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

ʹहे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है। इसलिए मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।ʹ (गीताः 18.73)

आदमी तब तक स्थिर नहीं होता जब तक उसका संदेह दूर नहीं होता। संदेह तब तक दूर नहीं होता जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता। तत्त्वज्ञान तब तक हजम नहीं होता जब तक एकाग्रता, संयम और साधना नहीं होती।

यह ब्रह्म विद्या समय पाकर परिपक्व होती है। अधीर व्यक्ति के हृदय में तत्त्वज्ञान प्रतिष्ठित नहीं होता, समय पाकर ही होता है। तत्त्वज्ञान के लिए अभ्यास की जरूरत है और अभ्यास भी कैसा ? तैलधारवत्। यदि ब्रह्मविद्या का अभ्यास तैलधारवत् किया जाये तो जीव जन्म-मरण के दुःखों से पार होकर परम शान्ति को पा लेता है। परम शांति ऐसा सुख है, ऐसी उपलब्धि है कि जिसकी बराबरी किसी के साथ नहीं की जा सकती। जैसे, पृथ्वी का भार और किसके साथ तौला जाये ? सूर्य के प्रकाश की तुलना किस प्रकाश से की जाये ? ऐसे ही संसार में तो क्या पूरे ब्रह्मांड में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसकी तुलना आत्मज्ञान के साथ की जा सके।

जब तक जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं हुआ तब तक कोई भी अवस्था आ जाये किन्तु व्यक्ति पूर्ण निश्चचिंत नहीं होता। अपने-आपका बोध हो जाये, अपने आपका पता चल जाये इसे आत्म-साक्षात्कार बोलते हैं।

यह साक्षात्कार किसी अन्य का नहीं वरन् अपना ही साक्षात्कार है, इसीलिए इसको आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक व्यक्ति चाहे तैंतीस करोड़ क्राइस्ट या तैंतीस करोड़ श्रीकृष्ण के बीच रहे फिर भी उसको पूर्ण विश्रान्ति नहीं मिलती।

आत्म-साक्षात्कार का तात्पर्य क्या है ? भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि नाम-रूप और रंग जहाँ नहीं पहुँचते, ऐसे परब्रह्म में जिसने विश्रान्ति पायी है, वह जीते जी मुक्त है। नानक जी कहते हैं-

रूप न रंग न रेख कछु प्रभु त्रेय गुणा ते भिन्न।

रूप, रंग, रेख जो कुछ भी है वह स्थूल शरीर में है, मन में है, सूक्ष्म बुद्धि में, संस्कार में हैं। यदि देवी-देवता भी आकर दिख जायें तब भी वे होंगे माया-विशिष्ट चैतन्य में ही। उनसे पूरी विश्रान्ति नहीं मिलेगी। यह स्थूल जगत, सूक्ष्म जगत, जीव जगत और ईश्वर – ये सब हैं माया के ही अंतर्गत। आत्म-साक्षात्कार है माया से परे। जिसकी सत्ता से ये जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को ʹमैंʹ रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना, इसका नाम है आत्म-साक्षात्कार। जीव की हस्ती, जगत की हस्ती और ईश्वर की हस्ती जिसके आधार से दिखती है और जो टिकती नहीं है, बदलती रहती है फिर भी जो अबदल आत्मा है उसे ज्यों का त्यों जानना, इसको आत्म-साक्षात्कार कहते हैं।

हकीकत में जीव का असली स्वरूप ब्रह्म से अलग नहीं है। जैसे तरंग, का असली स्वरूप पानी से भिन्न नहीं है, गहनों का असली स्वरूप सोने से भिन्न नहीं है ऐसे ही हम अपने असली स्वरूप को जान लें, इसका नाम है आत्म-साक्षात्कार। अभी तक हमें अपने असली स्वरूप को नहीं देख पाये, इसीलिए कई नकली स्वरूप धारण किये और जो भी नकली स्वरूप मिला उसे ही ʹमैंʹ मान बैठे। जिस जन्म में जैसा सूक्ष्म शरीर रहा वैसे ही विचार रहे, जिस जन्म में जैसा स्थूल शरीर रहा वैसे ही विचार रहे और वासना रही लेकिन उनके पीछे भटक-भटककर युग बीत गये। कबीर जी कहते हैं-

भटक मूँआ भेदू बिना पावे कौन उपाय।

खोजत-खोजत युग गये पाव कोस घर आय।।

जीवमात्र यही चाहता है कि मेहनत थोड़ी करूँ और सुख ज्यादा मिले। वह सुख भी कैसा ? वह सुख स्थायी हो, टिकने वाला हो।

माँग कब होती है ? जब कोई चीज होती है तभी उसकी माँग होती है। तो अपना-आपा ऐसी ही चीज है जो बिना मेहनत के मिलता है और एकबार मिल जाय तो फिर कभी जाता नहीं। इसी को बोलते हैं आत्म-साक्षात्कार।

अपने स्वरूप का, अपनी आत्मा का पता चल जाना यह बड़े में बड़ी उपलब्धि है। इसके अतिरिक्त जितनी भी उपलब्धियाँ हैं फिर चाहे सब देवी-देवता ही खुश क्यों न हो जायें, तब भी यात्रा अधूरी ही रहेगी। नरसिंह मेहता ने ठीक ही कहाः

ज्यां लगी आत्मा तत्त्व चीन्यो नहीं।

त्यां लगी साधना सर्व झूठी।।

जब तक आत्म-तत्त्व को नहीं पहचाना तब तक सब साधनाएँ झूठी हैं।

जब तक आत्मज्ञान नहीं हुआ तब तक सब ऐसे ही है…. कोई लोहे की हथकड़ी है तो कोई ताँबे की, कोई पीतल की है तो कोई सोने की लेकिन हैं  सब हथकड़ी ही। जन्म चाहे महारानी के गर्भ से हो चाहे दासी के गर्भ से, जन्म तो जन्म ही है। गर्भ में जीव तब तक पड़ता ही रहता है, जब तक उसे अपने स्वरूप की स्वतन्त्रता का बोध नहीं होता।

पुराणों में, शास्त्रों में भी जिन साधु-संतों की गाथाएँ आती हैं उनमें भी कोई विरला ही तत्त्व को उपलब्ध हुआ बाकी तो ऋदि-सिद्धि या साकार भगवत् दर्शन तक पहुँचे। जिसे भाल के भाग्य अत्यंत भले होते हैं उसको ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलते हैं और जिसको अत्यंत वैराग्य होता है उसी को समाधि मिलती है अर्थात् उसको समाधान होता है, अपने स्वरूप में विश्रान्ति मिलती है और जिसे अपने स्वरूप में विश्रान्ति मिल जाती है फिर उसका मोह नष्ट हो जाता है।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा……

श्रीकृष्ण के दर्शन हुए अर्जुन को, फिर भी उसका मोह नहीं गया। उस जमाने में बल, बुद्धि और सामर्थ्य में जितना ऊँचा, आदमी हो सकता था वैसा ऊँचा था। अर्जुन। उसे श्रीकृष्ण का, साक्षात् नारायण का साथ था, विराट रूप के दर्शन भी किये, किन्तु मोह नष्ट नहीं हुआ। मोह तो तब नष्ट हुआ जब अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार हुआ। फिर अर्जुन कहता हैः

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।

स्थितोस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

अपने स्वरूप में संदेह रहता है कि मैं सचमुच चैतन्य स्वरूप, अनंत ब्रह्माण्डों में व्यापक आत्मा हूँ कि नहीं ? यह संदेह आखिरी समय तक रहता है। लेकिन जब अपना पुरुषार्थ होता है और सदगुरु की कृपा पचती है तब जीवत्व की भ्रांति टूटती है।

जीव गया और शिव को पाया…

जान लिया हूँ शान्त निरंजन।

लागू मुझे न कोई बंधन।।

यह जगत सारा है नश्वर।

मैं ही शाश्वत एक अनश्वर।।

दीद हैं दो पर पर दृष्टि एक है।

लघु गुरु में वही एक है।।

जैसे देखने के विषय अनेक देखने वाला एक, सुनने के विषय अनेक सुनने वाला एक, चखने के विषय अनेक, चखने वाला एक, मन के संकल्प-विकल्प अनेक लेकिन मन का दृष्टा एक, बुद्धि के निर्णय अनेक लेकिन उसका अधिष्ठान एक। उस एक को जब ʹमैंʹ रूप में देख लिया वे घड़ियाँ सुहावनी हैं, मंगलकारी हैं। वे ही आत्म-साक्षात्कार की घड़िया हैं।

एक इंच भी परमात्मा हमसे दूर नहीं है फिर भी आज तक मुलाकात नहीं हुई।

पानी बीच मीन प्यासी रे,

सुन-सुन बतिया आये मोहे हाँसी…..

हम ब्रह्म-परमात्मा में उत्पन्न होते हैं, ब्रह्म परमात्मा में रहते हैं, परमात्मा में जीते हैं, खाते-पीते हैं, परमात्मा में देखते सुनते हैं, परमात्मा में बोलते हैं और आज तक परमात्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ। कितना अटपटा मामला है ! इस अटपटे मामले को झटपट समझा नहीं जाता लेकिन जब प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद श्रीलीलाशाहजी बापू जैसे कोई ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु मिल जाते हैं तो जन्म-मरण की खटपट मिट जाती है।

ૐ शांति….. ૐ शांति…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 9,10 अंक 46

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