अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न कियाः
अथ केन प्रयुक्तोઽयं पापंच चरति पूरूषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
ʹहे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?ʹ (गीताः3.36)
भगवान श्रीकृष्ण ने कहाः
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।
ʹहे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यही महाशन अर्थात् अग्नि के सदृश भोगों से तृप्त न होने वाला बड़ा पापी है। इस विषय में इसको ही तू वैरी जान।ʹ (गीताः 3.37)
काम और क्रोध जीव को वास्तविक सुख से, वास्तविक जीवन से दूर ले जाते हैं। ये ʹमहापाप्माʹ हैं। जीव का पतन करने वाले हैं। चित्त में अनेक कामनाएं उठती हैं और वह उन कामनाओं की पूर्ति करके सुखी होना चाहता है किन्तु जब कामनापूर्ति करने जाता है तो कामनापूर्ति होने पर लोभ, लालच बढ़ जाते हैं। अगर कामनापूर्ति नहीं होती है और उसमें कोई बड़ा आदमी विघ्नरूप बनता है तो भय होता है, छोटा आदमी विघ्नरूप बनता है तो क्रोध होता है और बराबरी का आदमी विघ्नरूप बनता है तो ईर्ष्या होती है, द्वेष पैदा होता है। सच्चा सुख तो कामना निवृत्त करने से मिलता है।
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
ʹहे अर्जुन ! जिस काल में पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ स्थिर बुद्धिवाला कहा जाता है।ʹ (गीताः 2.55)
वह स्थिरबुद्धि वाला पुरुष ही आत्मशांति को प्राप्त हो सकता है। जैसे सागर में तरंगें उठती रहती हैं वैसे ही जिसके चित्त में इच्छारूपी तरंगें उठती रहती हैं वह आत्मशांति नहीं पा सकता है। वासनायुक्त चित्त से उठती हुई इच्छाओं की पूर्ति करते रहने से इच्छाएँ शांत नहीं होती हैं अपितु बढ़ती चली जाती हैं, चित्त में गहरी उतरती जाती हैं। इसी इच्छापूर्ति में तो आयुष्य पूरा हो जाता है परन्तु इच्छाएँ पूरी नहीं होती हैं। इसलिए भर्तृहरि ने कहा हैः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।
इच्छा-तृष्णा तो जीर्ण नहीं होती है किन्तु हम जीर्ण हो जाते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि, इन्द्रियाँ जीर्ण होती जाती हैं।
जिसको यह बात समझ में आ जाती है वह फिर इच्छापूर्ति में नहीं, इच्छानिवृत्ति में लग जाता है। नासमझ आदमी इच्छापूर्ति में लगा रहता है और अपनी आयुष्य गंवाता रहता है।
मिथिला का राजा निमि भी इच्छापूर्ति करके सुखी होना चाहता था। कामनापूर्ति से कामना बढ़ती है। एक रानी होते हुए भी उसे दूसरी रानी लाने की इच्छा हुई। फिर तीसरी, चौथी, पाँचवीं…. ऐसे कई रानियाँ ले आया। जो जी में आया वह खाया-पिया और भोगा। इस तरह भोगते-भोगते शरीर रोगी हो गया लेकिन कामना नहीं मिटी।
राजा निमि को दाहज्वर हो गया। उसकी हालत देखकर हकीमों ने कहाः
“राजन् ! मृत्यु का समय निकट है। अब केवल एक ही उपाय है। कोई प्रेम से चंदन घिसे और आपके शरीर पर उसका लेप करे तो दाहज्वर में आपको थोड़ा आराम हो सकता है।”
कामनाएँ दाह और तपन पैदा करती हैं। भय, शोक, ईर्ष्या और चिंता पैदा करती हैं। नरकों की यात्रा करने वाली कमबख्त कामनाएँ ही हैं। नहीं तो आपको भला कौन नरक में ले जा सकता है ?
राजा दाहज्वर से पीड़ित अवस्था में सोया हुआ था। रानियाँ प्रेम से चंदन घिसने लगीं। चंदन घिसते वक्त रानियों के हाथ की जो चूड़ियाँ खनकती थीं। राजा को चूड़ियों की आवाज से भी पीड़ा हो रही थी। उसने रानियों सेः “चंदन घिसना है तो घिसो, किन्तु आवाज मत करो।”
पतिपरायणा नारियों ने सौभाग्य की निशानी के रूप में एक-एक चूड़ी रखी। बाकी की चूड़ियाँ उतारकर रख दीं तो चंदन घिसते वक्त जो आवाज हो रही थी, वह बंद हो गई। राजा ने पूछाः
“चंदन घिसना बंद कर दिया क्या ?”
“नहीं। चंदन तो घिस रहे हैं लेकिन आपने कहा इसलिए हमने आवाज बंद कर दी है।”
“कैसे बंद की ?”
“हाथों में चूड़ियाँ ज्यादा थीं तो खनक रही थीं। अब केवल एक ही रखी है, बाकी की चूड़ियाँ उतार दी हैं।”
राजा निमि का पूर्व का कोई पुण्य उदय हुआ। उसे हुआ कि बहुतों में खटपट होती है, अकेले में ही शांति है। वह तो उसी दाहज्वर में उठा। गृहलक्ष्मी और राज्यलक्ष्मी को दूर से प्रणाम करके आत्मलक्ष्मी पाने के लिए गुरु के द्वार जा बैठा।
अमीरी की तो ऐसी की कि सब जर लुटा बैठे।
फकीरी की तो ऐसी की कि गुरु के दर आ बैठे।।
वह ऐसा फकीर बन गया कि उसने इच्छा-वासनाओं की फाकी कर ली, संशय व फिकर की फाकी कर ली। मौत के पहले अमर आत्मपद में स्थित हो गया। भोगसम्राट में से योगसम्राट हो गया।
वास्तव में जीवमात्र योगसम्राट है लेकिन अभागी कामनाएँ ही उसे भोग का कीड़ा बना देती हैं।
सब लोगों की सब कामनाएँ-इच्छाएँ पूरी हो जाएँ, यह संभव नहीं है। यह किसी के वश की बात भी नहीं है। इच्छा पूर्ति में प्रारब्ध चाहिए, पुरुषार्थ चाहिए। साथियों का, समाज का सहयोग चाहिए लेकिन इच्छानिवृत्ति में हम स्वतंत्र हैं। ज्यों-ज्यों इच्छा निवृत्त करते जायेंगे, त्यों-त्यों इच्छारहित आत्मपद में विश्रांति पाते जाएँगे। विश्रांति से सामर्थ्य प्रगट होता है। उस सामर्थ्य के सदुपयोग की कला आ जाए तो सत्यस्वरूप आत्मा की यात्रा पूर्ण हो जायेगी।
यदि इस संसाररूपी दलदल से आप बचना चाहते हैं तो सदा सावधानी रखें। इन्द्रियाँ बार-बार फिसल जाती हैं, कामनाएँ चित्त को घसीटती रहती हैं। इसको रोकने के लिए विवेक-वैराग्य को सदा जागृत रखें।
श्रद्धा, भक्ति, विवेक से हमारी रक्षा होती है। कामनापूर्ति करते-करते तो युग बीत जाते हैं लेकिन जन्म-मरण के चक्कर से हमारा पिंड नहीं छूटता। इसलिए बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह कामना-निवृत्ति में ही लगा रहे। इस संदर्भ में एक कहानी हैः
सिंध देश की बात है। किसी गुंडे आदमी ने एक व्यापारी से 100 रूपये उधार लिये। उस समय के 100 रूपये माने आज के करीब 8000-9000 रूपये या डेढ़ तोला सोना।
कुछ दिन बीतने पर व्यापारी ने उस गुंडे से कहाः
“तुमने मुझसे 100 रूपये लिये थे। मैं तुमसे ब्याज तो नहीं माँगता हूँ लेकिन 100 रूपये दे दो तो ठीक होगा।”
हालांकि व्यापारी जानता था कि वह देने वाला नहीं है, फिर भी मिल जायें तो ठीक।
गुंडे ने कहाः “रूपये तो मैं देना चाहता हूँ किन्तु मेरी एक बात तुम्हें माननी होगी।”
“अरे ! एक तो क्या तीन-तीन बात मान लूँगा। तुम पैसे वापस दे दो, बस।”
“मैं पैसे वापस तो देना चाहता हूँ किन्तु तुम सौ के कर दो साठ।”
“ठीक है चलो, साठ ही सही।”
“आधा कर दो काट।”
“ठीक है। बाकी के 30 तो दे दो !”
“दस देंगे, दस दिलवायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ।”
तो अब बाकी क्या बचा ? कुछ नहीं। ऐसे ही आपके मन में सौ-सौ कामनाएँ उठें तो आप मन से कह दोः “सौ की कर दे साठ। आधा कर दे काट। दस कामनाएँ पूरी करेंगे। दस बाद में पूरी करवायेंगे। दस के लिए हाथ जोड़ेंगे। अभी तो राम में लगने दे, यार ! अभी तो समाहितचित्त होने दे…. अंतर्यामी आत्मा में शांत होने दे।ʹ
मन की ʹयह चाहिए….. वह चाहिए…..ʹ की आदत पुरानी है। जिसकी चाह होगी वह नहीं मिलेगा तो मन अशांत होगा। काम-क्रोध में बह जाएगा। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन को काम-क्रोधादि आवेगों में बहने से बचाकर बार-बार आत्मा में लगाओ। क्योंकि…..
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
काम क्रोधास्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
ʹकाम, क्रोध और लोभ ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं, आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतः इन तीनों को त्याग देना चाहिए।ʹ (गीताः 16.21)
धन के ढेर इकट्ठे करना, सत्ता के ऊँचे शिखरों पर पहुँचने की कामना करना मूर्खता है। मन को कामना-वासनारहित करके प्रारब्धवेग से निष्काम प्रवृत्ति करना या निवृत्ति में रहना बुद्धिमानी है। बुद्धिमान पुरुष बुद्धि की धारा में, विचार की धारा में जीता है लेकिन बुद्धि को जहाँ से सत्ता-स्फूर्ति मिलती है उसी चैतन्य में बुद्धि को स्थित करना चाहिए। विचार की धारा के बीच माने एक विचार उठा, दूसरा उठने को है उसके बीच जो अवकाश है उसमें जो टिकता है वह चैतन्य, साक्षी, शुद्धस्वरूप में जीता है। कामनापूर्ति के पीछे यदि भागता रहे तो उस भागदौड़ का कभी अंत नहीं होगा किन्तु कामनानिवृत्ति में जो लगता है वह देर-सबेर बुद्धत्व को पा लेता है। इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा हैः
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।
ʹइस प्रकार बुद्धि से परे अर्थात् सूक्ष्म तथा सब प्रकार से बलवान और श्रेष्ठ अपने आत्मा को जानकर बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! अपनी शक्ति को समझकर इस दुर्जय कामरूप शत्रु को तू मार।ʹ (गीताः 3.43)
कई जन्मों से हम कामनाओं के पीछे बरबाद होते आ रहे हैं। अब इस जन्म में तो दृढ़ निश्चय कर लो कि अमर आत्मपद को पाकर ही रहेंगे। जिन्होंने भी दृढ़ निश्चय किया और तत्परता से लगे रहे, काम-क्रोधादि से सावधान होकर संयमी जीवन जिये उन्होंने उस आत्मपद को पा लिया। आप भी उस पद को पा सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1996, पृष्ठ संख्या 3,4,5 अंक 46
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hari om prabhuji i need very old rishi prashad year 1990 aur iske pehle ki 1880,81,82, other….