प्रशान्ति-निर्भयता-ब्रह्मचर्यव्रत
पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
नानक जी ने कहा हैः
पूरा प्रभु आराधिया पूरा जा का नाँव।
नानक पूरा पाइया, पूरे के गुन गाँव।।
जब तक पूरे प्रभु का ज्ञान नहीं मिलता, पूरे प्रभु की आराधना नहीं होती, ʹपूरे प्रभु के साथ अपना नित्य संबंध हैʹ ऐसा अनुभव नहीं होता तब तक अपूर्ण प्रकृति में, अपूर्ण परिस्थिति में, अपूर्ण वस्तुओं में, अपूर्ण देश में, अपूर्ण काल में जीव बेचारा अपूर्ण-सा ही रह जाता है।
कितनी ऊँची बात कह दी है नानक जी ने !
पूरा प्रभु आराधिया……
कोई मुहल्ले का नेता होता है तो कोई गाँव का होता है, कोई तहसील का नेता होता है तो कोई जिले का नेता होता है, कोई प्रांत का नेता होता है तो कोई देश भर का नेता होता है लेकिन जो अनंत ब्रह्माण्डों का आधार है उसको आराधें तो अनंत ब्रह्माण्डनायक का सुख मिल जायेगा, कल्याण हो जायेगा। यह सत्य है कि आप यदि पूरे के गुण गायेंगे तो पूरे का ज्ञान पायेंगे। पूरे का चिन्तन करेंगे तो हमारा मन भी पूर्ण सुखी, आनंदित होगा और पूर्ण उपलब्धि करेगा।
आप ध्यान रखें कि जब प्रकृति पूर्ण नहीं है तो प्रकृति की चीजें पूर्ण सुख कैसे दे सकती हैं ? प्रकृति में जो प्राप्त किया है वह पूर्ण कैसे हो सकता है ? प्रधानमंत्री का पद मिल जाये चाहे राष्ट्रपति हो जायें फिर भी भय तो बना ही रहता है। अरे ! चाहे इन्द्र का पद मिल जाये फिर भी खटका तो बना ही रहेगा क्योंकि ये सब छूटने वाले हैं, अपूर्ण हैं।
पूरे की आराधना करनी हो तो क्या करना चाहिए ? किस तरीके से आम आदमी उस पूरे प्रभु की आराधना करे ? इसके लिए भगवान कहते हैं-
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।।
ʹजिसका अन्तःकरण शांत है, जो भयरहित है और जो ब्रह्मचर्यव्रत में स्थित है, ऐसा सावधान योगी मन का संयम करके, मुझमें चित्त लगाता हुआ, मेरे परायण होकर स्थित होवे।ʹ (गीताः 6.14)
भगवान जब ʹमेरे परायण होʹ या ʹमुझे पा लेʹ – ऐसा बोलते हैं तब यह नहीं समझना चाहिए कि अर्जन के रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण को पा लें। उन श्रीकृष्ण को तो शकुनि और दुर्योधन ने कई बार देखा था लेकिन इससे क्या ? ʹमुझको पा लेʹ का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि जहाँ से तुम्हारा ʹमैंʹ उठता है उसमें विश्रान्ति पाने का, उसको अपना स्वरूप जानने का इशारा भगवान कर रहे हैं। वही पूर्ण है।
जैसे घटाकाश महाकाश से अभिन्न है, बिन्दु सिन्धु से अभिन्न है, लहर सागर से अभिन्न है ऐसे ही जीवात्मा परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न है। उस परब्रह्म परमात्मा की जो आराधना करता है, ज्ञान पाकर चिंतन मनन करता है, वह उसीमय हो जाता है। उसी पूर्ण में पूर्णाकार हो जाता है।
यहाँ पर तीन बातें आयी हैं- प्रशान्तात्मा। विगत भीः। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। अर्थात् प्रशान्ति, निर्भयता और ब्रह्मचर्यव्रत। इस प्रकार बुद्धि, मन और शरीर को ध्यान के योग्य, पूरे प्रभु को पाने के योग्य बनाने की व्यवस्था का वर्णन किया है भगवान ने।
अशान्ति क्यों होती है ? राग-द्वेष से। राग-द्वेष मिटने पर शांति स्वतः प्रगट होने लगती है। अरे ! प्रकट क्या होगी ? आपका मूल स्वरूप शांति ही तो है। राग-द्वेष होता क्यों है ? जगत की वस्तुओं से सुख लेने की बेवकूफी से। राग-द्वेष से अन्तःकरण मलिन होता है और मलिन अन्तःकरण में अशान्ति होती है। राग-द्वेष जितना कम होता जायेगा, उतना अंतःकरण शुद्ध होता जायेगा और जितनी राग-द्वेष कम, जितना अंतःकरण शुद्ध, उतना वह प्रशान्तचित्त होता जायेगा और जितनी शांति उतना सामर्थ्य, उतनी योग्यताएँ निखरती जायेंगी।
दूसरी बात है ब्रह्मचर्यव्रत में स्थिति। ब्रह्मचारी का अर्थ यह नहीं कि जो लंगोटी लगाकर बैठा है या जिसने शादी नहीं की है। ऐसे अविवाहित तो कई होते हैं किन्तु सच्चा ब्रह्मचारी तो कोई विरला ही होता है। ब्रह्मचारी का व्रत क्या है ? पाँच विषयों से आकर्षित न होकर, अपने गुरुकुल में विद्याध्ययन करने के लिए तीन गुण और भी ले आता है, मान, बड़ाई और शरीर के आराम से अपने को बचाना।
ब्रह्मचारी देखता तो है लेकिन फिल्म आदि देखकर विषयों का मजा नहीं लेता बल्कि अपनी पुस्तकों को पढ़ता है, अपने सेवाकार्य को देखता है। सुनता है तो ज्ञान पाने के विषयों को ही सुनता है, फालतू का नहीं सुनता। खाता है तो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए, ऐश करने के लिए गुरुकुल में नहीं खाता। सूँघता है तो भगवान का प्रसाद-फूल सूँघता है, परफ्यूम आदि के चक्कर में नहीं पड़ता।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध – ये पाँच विषय हैं। इनमें ब्रह्मचारी फँसता नहीं है अपितु पाँचों इन्द्रियों को संयत करके अपने को विद्याध्ययन के योग्य बनाता है। गुरुकुल में वह मान की इच्छा भी नहीं रखता, बड़ाई की इच्छा भी नहीं रखता और आराम-पसंदगी भी नहीं रखता तभी वह ब्रह्मचारी कहलाता है। जो पूरे प्रभु को पाना चाहता है उसे भी ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थित होना चाहिए।
ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होने वाले व्यक्ति को पूरे प्रभु को पाने में सुगमता होती है और पूरे प्रभु को पाने के बाद अपूर्ण वस्तु का कोई आकर्षण या कोई भय नहीं रहता है।
कभी न छूटे पिण्ड दुःखों से।
जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।।
जब तक पूरे की आराधना नहीं की तब तक चाहे कैसा भी शरीर बन जाये लेकिन कोई-न-कोई दुःख, मुसीबत और मौत तो पीछे लगी ही रहेगी। साधक को चाहिए कि प्रभु की आराधना करते वक्त, ध्यान, भजन करते मन इधर-उधर चला जाये, भूतकाल की घटना या भविष्य की कल्पना में चला जाये तो उस समय ऊँचे स्वर से भगवान का नामोच्चारण शुरु कर दे अथवा गहरे श्वासोच्छवास ले और मन से कहेः “ऐ मेरे मन ! भूतकाल तो बीत गया, अब वह वापस आने वाला नहीं है। उसका क्या चिंतन करता है ? भविष्य भी अपने सामने नहीं है तो भविष्य की कल्पना क्या करना ? अभी तो वर्त्तमान में अपना काम कर। जैसे –विद्यार्थी वर्त्तमान की (जिसकी परीक्षा देनी है उसकी) पुस्तकें पढ़ता है ऐसे ही अभी तो हमें परमात्मा को पाने के लिए ध्यान करना है, परमात्मशांति में शांत होना है। परमात्मा के माधुर्य में मधुर होना है। क्यों तू इधर-उधर जाता है ? रे मन !”
थोड़ी देर मन शांत हो न हो, फिर इधर-उधर भटकेगा। पुनः उसे नाम जप में लगाने का प्रयास करें। जैसे विद्यार्थी का मन इधर-उधर जाता है फिर भी वह उसे प्रयत्नपूर्वक पाठ्य-पुस्तकों में लगाता है वैसे ही भगवद्-ध्यान, भगवद्-भजन के समय मन इधर-उधर जाये तो उसे भी प्रयत्नपूर्वक परमात्मा में लगाना चाहिए। बार-बार अनात्मा से हटाकर मन को आत्मा में लगाना चाहिए। यदि मन भूत-भविष्य में जाता हो तो ध्यान-योग का अभ्यास करने वाले साधकों को सावधान रहना चाहिए।
मन पर निगरानी रखने के साथ ही साथ व्यवहार पर नियंत्रण होना भी अति आवश्यक है। कई लोग ध्यान-भजन तो करते हैं किन्तु जो आया सो खा लिया, जो आया सो बोल दिया, जैसा जी में आया वैसा कर लिया…. नहीं, अपने ध्यान-भजन क समय का ख्याल करके व्यवहार करके व्यवहार करना चाहिए और व्यवहार काल में भी चित्त अशुद्ध न हो इसका ध्यान रखना चाहिए। जो इस प्रकार व्यवहार काल में भी अपने चित्त की शुद्धि का ख्याल रखता है उसका चित्त भगवान में जल्दी लगता है। शरीर एवं वस्तुओं को ʹमैं-मेराʹ मानने से भय होता है कि ʹवस्तुएँ चली न जाये….ʹ लेकिन ये शरीररूपी बुलबुले तो हजारों-लाखों बार मिले और मिट गये। इनका भय न रखें। ʹजो हो गया देख लिया, जो हो रहा है देख रहे हैं और जो होगा देखा जायेगा…. ऐ मेरे मन ! अभी तो तू भगवान के चिंतन में लग।ʹ इस प्रकार भगवान के चिंतन में लगने से अंतःकरण चैतन्य के आनंद से, चैतन्य के माधुर्य से, चैतन्य के ज्ञान से और चैतन्य की शांति से सराबोर हो उठेगा।
दो प्रकार की माताएँ होती हैं- एक निषेधायुक्ति से समझाती हैं और दूसरी विधियुक्ति से समझाती है। बालक खिलौने का आम चूसता है तो एक माँ उस खिलौने का आम छुड़ाने के लिए डाँटती है। डाँट से डरकर बालक आम तो छोड़ देता है लेकिन मन से आम का आकर्षण नहीं छूटता। जैसे ही माँ चली जाती है, बालक धीरे-से खिलौने का आम चूसने लग जाता है। दूसरी माँ असली आम को धोकर उसका थोड़ा सा रस उसे चटा देती है, आम चूसने के लिए दे देती है। जब बालक को असली आम का स्वाद आ जाता है तो वह खिलौने का आम अपने-आप छोड़ देता है।
ʹयह नहीं करो… वह नहीं करो…. ऐसा करोगे तो पाप होगा… नरकों में जाओगे…ʹ ऐसा करके समझाने… की रीति है निषेध युक्ति। कोई महापुरुष मिल जायें और ध्यान-भजन कराते-कराते, भगवदरस का स्वाद चखा दें तो हमारा मनरूपी बच्चा भगवान के स्वाद में लग जाता है। यह है विधि युक्ति। जब असली आम का स्वाद आ जाये तो खिलौने के आम को कोई कब तक चाटेगा ? ऐसे ही जब ध्यान-भजन करके असली भक्ति का सुख मिल गया तो फिर विकारी सुखों में मन जायेगा नहीं…. और कभी –कभार पुरानी आदत से गया भी तो सावधान हो जायेगा।
सुन्दर सदगुरु है सही, सुंदर शिक्षा दीन्ह।
सुंदर वचन सुनाय के, सुंदर सुंदर कीन्ह।।
सदगुरु का जो अनुभव है वह सुन्दर है। सत्य स्वरूप ईश्वर का अनुभव करने वाले जो महापुरुष हैं, उनके वचन सुन्दर हैं।
अतः अपने परम सौंदर्य परमात्मस्वरूप को पाने के लिए शांत बनो। ब्रह्मचर्य का आश्रय लेकर परम निर्भय बनो परमात्म-प्राप्ति की बाजी तुम्हारे हाथ में है।
दृढ़ता से चलो। लड़खड़ाते दीन-हीन होकर मजदूर की नाईं संसार का बोझा नहीं उठाओ वरन् अपने आत्मवैभव को पाओ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 11,12,13 अंक 48
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