Monthly Archives: January 1997

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कबीर जी कहते हैं-

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…..

बख्खड़ ऊपर गौ वीयाई उसका दूध बिलोता है।।

मक्खन मक्खन साधु खाये छाछ जगत को पिलाता है।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

निरंजन वन में…. अंजन माने इन्द्रियाँ। जहाँ इन्द्रियाँ न जा सके वह है निरंजन। उस निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। उस वन में किसी साथी, किसी व्यक्ति का साथ में प्रवेश नहीं हो सकता। कई लोग तो सुबह के सुंदर वातावरण में घूमने जाते हैं तब भी अकेले नहीं जाते। अरे ! जन्म लेना अकेले, मरना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले, नींद करनी अकेले, पाप-पुण्य का फल भोगना अकेले। जब अकेले ही करना है तो किसी दूसरे पर भरोसा क्या करता ? अतः साधना-पथ में अकेले ही जाना चाहिए। इसीलिए कबीरजी ने कहा होगाः निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है। अतः अकेला आगे बढ़ना चाहिए।

ये शब्द बहुत सीधे-सादे हैं लेकिन पूरा वेदान्त कूट-कूटकर भर दिया है कबीर जी ने। वे पूरे अनुभव की बात कर रहे हैं। अज्ञानी मनुष्य दो भी होंगे तो हजार बातें होंगी लेकिन हजार ज्ञानी मिलकर भी बोलेंगे तो एक ही अनुभव की बात आ जाती है।

बख्खड़ ऊपर गो वियाई उसका दूध बिलोता है…

जैसे गाय बियाती है तो दूध देती है ऐसे ही इड़ा और पिंगला के मध्य स्थित सुषुम्ना का द्वार जब खुलता है तब वृत्ति ब्रह्मानंद देती है। ʹबख्खड़ ऊपरʹ तात्पर्य है ऊँची अवस्था। मक्खन मक्खन साधु खाये…. वास्तव में होना तो ऐसा चाहिए कि साधु खुद छाछ पियें और दूसरों को मक्खन खिलायें किन्तु यहाँ साधु स्वयं मक्खन खाते हैं और दूसरों को छाछ पिलाते हैं। यह कैसे ? वास्तव में कबीर जी यहाँ यह आध्यात्मिक मर्म बताना चाहते हैं कि शुद्ध ईश्वरीय मस्ती तो साधु लेते हैं और उनके अनुभव को छूकर आती हुई वाणी का लाभ लोग लेते हैं। जैसे मक्खनवाली छाछ में कुछ कण मक्खन के रह ही जाते हैं ऐसे ही शुद्ध ब्रह्मानुभव है मक्खन और उस अनुभव को छूकर आती हुई वाणी है छाछ। साधु स्वयं तो ब्रह्मानुभवरूपी मक्खन का स्वाद लेता है और कभी-कभार लोकहितार्थ कुछ बोल देता है तो उस छाछरूपी वाणी का पान करने का लाभ लोगों को मिल जाता है। अगर वे छाछ भी हजम कर लें तो उनका बेड़ा पार हो जाता है।

कबीर जी आगे कहते हैं-

तन की कुण्डी मन का सोटा हरदम बगल में रखता है।

पाँच-पच्चीस मिलकर आवे उनको घोंट मिलाता है।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

तन की कुण्डी मन का सोटा अर्थात् जैसे खरल दस्ते में ठण्डाई घोंटते हैं ऐसे ही साधु पुरुष तन-मनरूपी खरल दस्ते का उपयोग करके आत्मज्ञानरूपी ठण्डाई घोंट-घोंट कर लोगों को पिलाते हैं। जैसे खरल दस्ते को हम अपना साधन समझकर अपने नियंत्रण में रखते हैं वैसे ही साधु पुरुष तन-मन को बगल में रखते हैं अर्थात् अपने नियंत्रण में रखते हैं, अपने आदेश में रखते हैं। अपनी आज्ञा में ही क्यों रखते हैं ? क्या अहंकार सजाने के लिए ? नहीं नहीं, कोई आ जाये परमात्म-रस पीने वाले तो उनके लिए तन-मन का प्रयोग करके रामनाम का रस पिलाने के लिए तन-मन को अपनी आज्ञा में रखते हैं।

आगे कबीर जी कहते हैं-

कागज की एक पुतली बनायी उसको नाच नचाता है।

आप ही नाचे आप ही गावै आप ही ताल मिलाता है।।

निरंजन वन में साधु अकेला खेलता है…

कागज की एक पुतली बनायी अर्थात् अपनी आत्माकार वृत्ति बनायी। कागज नाम क्यों दिया ? क्योंकि वृत्ति कोई भी हो वह ठोस नहीं होती, उसमें शाश्वतता नहीं होती। जैसे कागज की पुतली ठोस नहीं होती। साधु आत्माकार वृत्ति बनाकर उसको अपनी आत्मसत्ता से नचाता है। जैसे तरंग को सत्ता पानी की है ऐसे ही अपनी वृत्ति को वृत्ति के आधार परमात्मा की, आत्मा की सत्ता है। ʹआप ही नाचे…..ʹ उस वृत्ति में फिर वह स्वयं ही गाता है, स्वयं ही नाचता है और स्वयं ही ताल मिलाता है।

जैसे तरंग सरोवर से भिन्न नहीं, वैसे ही वृत्ति अपने अधिष्ठान परमात्मा से भिन्न नहीं होती। जैसे तरंगें भिन्न-भिन्न दिखती हैं वैसे ही एक ही वृत्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं। उस सच्चिदानंद परमात्मा से जो वृत्ति फुरती है, वह वृत्ति जब मनन करती है तब उसे ʹमनʹ कहते हैं, निश्चय करती है तब उसे बुद्धि कहते हैं, चिंतन करती है तब उसे ʹचित्तʹ कहते हैं, देह में अहं करती है तब उसे ʹअहंकारʹ कहते हैं और देह के साथ जुड़कर जब जीने की इच्छा रखती है तब उसे ʹजीवʹ कहते हैं।

ऐसा नहीं है कि मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और जीव – ये पाँच अंदर घुसे हुए हैं वरन् चैतन्य से फुरने वाली वृत्तियों के ही ये भिन्न-भिन्न नाम हैं। साधना करने की वृत्ति है तो साधक, भक्ति करने की वृत्ति है तो भक्त, योग करने की वृत्ति है तो योगी, भोग करने की वृत्ति है तो भोगी, त्याग करने की वृत्ति है तो त्यागी, साधना का जतन करने की वृत्ति है तो जति और तप करने की वृत्ति है तो तपस्वी। चैतन्य से स्फुरित होने वाली वही वृत्ति है किन्तु जैसे-जैसे संस्कार और गुण उससे जुड़ जाते हैं वैसा-वैसा उस मनुष्य का नाम हो जाता है। है सब वृत्तियों का ही खेल।

कभी-कभी शांत होकर वृत्तियों के खेल का निहारना चाहिए। ऐसा नहीं कि सारा दिन ʹराम… राम… राम…ʹ ही करते रहे। नहीं, कभी शांत होकर बैठें और जो वृत्ति उठे उसे देखें कि ʹअच्छा, मनन कर रही है, इसीलिए तेरा नाम मन पड़ा। तुझे सत्ता तो मैं ही दे रहा हूँ।ʹ इस प्रकार का प्रयोग करने से ऐसा अदभुत लाभ होगा कि महाराज ! तपस्वियों को 12-12 वर्ष तप करने से भी कई बार वैसा लाभ नहीं हो पाता।

हम वृत्ति के साथ जुड़ जाते हैं, वृत्तियाँ इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती हैं और इन्द्रियाँ जगत के साथ जुड़ जाती हैं, हमारा पतन हो जाता है। सबसे पहले है हमारा चैतन्य स्वरूप परमात्मा। फिर वृत्तियाँ। फिर इन्द्रियाँ और फिर जगत। इन्द्रियाँ मन को खींचे और उसके पीछे चले बुद्धि तो जीव हो गया अज्ञानी। लेकिन बुद्धि शुद्ध-अशुद्ध का निर्णय करके परमात्मा की ओर चले, मन उसमें सहयोग दे और इन्द्रियाँ उसके पीछे चलें तो हो जायेगा ज्ञान। बस, इतना ही है, ज्यादा कुछ नहीं है। इसी मे सब साधनाओं का सार आ गया। फिर चाहे तुम ʹहरि ʹ करो या ʹनमो अरिहंताणंʹ करो, ʹझूलेलालʹ करो या ʹराम-रामʹ करो। ये सब सात्त्विक स्थितियाँ हैं। अंत में परम लक्ष्य तो केवल परमात्मज्ञान ही है।

जैसे सरोवर की सत्ता से लहर उठती है वैसे ही अपना जो वास्तविक स्वरूप है, चैतन्यस्वरूप है, उसी की सत्ता से वृत्ति फुरती है। यदि वह वृत्ति निर्णयात्मक फुरती है तो उसे बुद्धि कहते हैं। वह परमात्मा के ज्यादा करीब है। परमात्मा के सबसे निकट हृदय होता है, फिर बुद्धि होती है, बाद में मन, इन्द्रियाँ और जगत होता है। संसार का सब कुछ त्याग करके भी जिसने परमात्मभाव बना लिया उसने लाभ का सौदा किया क्योंकि संसार की चीजें साथ में नहीं चलेंगी। साथ में चलेगा परमात्मभाव, साथ में चलेगा स्वभाव। रूपये, मकान बिगड़े तो बिगड़े लेकिन अपना स्वभाव नहीं बिगड़ना चाहिए और ʹस्वʹ माना ʹआत्माʹ अतः ʹआत्माʹ का भाव ʹस्वभावʹ नहीं बिगड़ना चाहिए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 9,10,27 अंक 48

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करो सेवा मिले मेवा….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

बड़ौदा में गायकवाड़ का राज्य था। उनके कुल की महिला शांतादेवी स्वामी शांतानंद जी के दर्शन करने गयी। आश्रम में जाकर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति गौशाला में सफाई कर रहा है। शांतादेवी ने उससे कहाः “मुझे पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने हैं।”

उसने कहाः “यहाँ कोई गुरुदेव नहीं रहते।”

आगे जाकर उन्होंने किसी दूसरे से पूछाः “स्वामी शांतानंदजी महाराज क्या इधर नहीं हैं?”

वह बोलाः “इधर ही है। क्या आपने उन्हें गौशाला में नहीं देखा ?”

शांतादेवीः “वे तो मना कर रहे हैं ?”

उसने कहाः “गौशाला में सेवा करने वाले स्वयं ही पूज्यपाद स्वामी शांतानंद जी महाराज हैं।”

यह सुनकर वह पुनः गौशाला की ओर दौड़ी एवं प्रणाम करते हुए बोलीः “मुझे पता नहीं था की आप ही पूज्यपाद गुरु देव हैं और गौशाला में इतनी मेहनत कर रहे हैं।”

स्वामी शांतानंदः “तो क्या साधु या संन्यासी वेश परिश्रम से इऩ्कार करता है ?”

“आज मैं आपके दर्शन करने एवं सत्संग सुनने के लिए आयी हूँ।”

“अच्छा ! सत्संग सुनना है तो सेवा कर। ले यह लकड़ी का टुकड़ा और मिट्टी का तेल। इन छोटे-छोटे बछड़ों के खुरों में कीड़े पड़ गये हैं। उन्हें लकड़ी से साफ करके मिट्टी का तेल डाल।”

शांतादेवी ने बड़े प्रेम से बछड़ों के पैर साफ किये और हाथ-पैर धोकर स्वामी शांतानंदजी के चरणों में सत्संग सुनने जा बैठी। उनके दो वचन सुनकर शांतादेवी ने कहाः “महाराज ! आज सत्संग से मुझे जो शांति मिली है, जो लाभ मिला है ऐसा लाभ, ऐसी शांति जीवन में कभी नहीं मिली।”

स्वामी शांतानंदजीः “आज तक तूने मुफ्त में सत्संग सुना था। आज कुछ देकर फिर पाया है, इसलिए आनंद आ रहा है।”

गुरु तो अपना पुरा खजाना लुटाना चाहते हैं किन्तु…

शिष्य को चाहिए कि तत्परता से सेवा करके अपना भाग्य बना ले तो वह दिन दूर नहीं, जब वह गुरु के पूरे खजाने को पाने का अधिकारी हो जायेगा। सत्संग के साथ-साथ यदि साधक के जीवन में सेवा का समन्वय भी हो तो फिर उतने परिश्रम की आवश्कता भी नहीं होती। सेवा से अन्तःकरण शुद्ध होता है और शुद्ध अन्तःकरण में परमात्मा का प्रकाश शीघ्र होता है।

कर्मों का फल

एक बार महर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ कहीं जा रहे थे। गर्मियों के दिन थे। एक प्याऊ से उऩ्होंने पानी पिया और पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से पच्चीस तीस बकरों को लेकर गुजरा। उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था ʹशगालचन्द सेठ।ʹ दुकानदार का ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो चार घूँसे मार दिये। बकरा ʹबैंઽઽઽ बैंઽઽઽʹ करने लगा और उसके मुँह से सारे मठ गिर पड़े।

देवर्षि नारद ने जरा सा ध्यान लगाकर देखा और जोर से हँस पड़े। तुम्बरू पूछने लगाः ʹʹगुरुजी ! आप क्यों हँसे ? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप  दुःखी हो गये थे किन्तु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इसमें क्या रहस्य है ?”

नारदजी ने कहाः “छोड़ो भी.. यह सब तो कर्मों का फल है, छोड़ो।”

तुम्बरूः “नहीं गुरूजी ! कृपा करके बताइये।”

नारदजी कहते हैं- “इस दुकान पर जो नाम लिखा है ʹशगालचंद सेठʹ वह शगालचंद सेठ स्वयं बकरा होकर आया है। यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। शगालचंद सेठ मरकर बकरा हुआ है और अपना पुराना संबंध समझकर दुकान पर मठ खाने गया। उसके बेटे ने ही उसको मारगर भगा दिया। मैंने देखा की बीस बकरों में से कोई नहीं गया और यह क्यों गया कम्बख्त ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना संबंध था।”

पुत्र ने तो बकरे के कान पकड़कर घूँसे जमा दिये और कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः “जब इस बकरे को तू हलाल करे तो मुण्डी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मठ खा गया है।”

जिस बेटे के लिए शगालचंद ने इतना कमाया था, वही बेटा मठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिया है तो मुण्डी माँग रहा है बाप की। इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही है कि अपने-अपने कर्मों का फल तो प्रत्येक प्राणी को भुगतना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 49

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जहँ राम तहँ नहीं काम….


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

मन की पाँच अवस्थाएँ होती हैं- क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ़, एकाग्र और निरूद्ध। क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये आम मन की अवस्थाएँ हैं एवं एकाग्र और निरूद्ध ऊँचे मन की अवस्थाएँ हैं। भारत के ऋषि-मुनियों ने एकाग्र और निरूद्ध मन का अनुसंधान करके ही समाधिसुख पाया है, दिव्य सृष्टि का अनुभव एवं आत्मदेव का साक्षात्कार किया है जबकि आज के मनोवैज्ञानिकों ने केवल मानव मन की क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ इन तीन अवस्थाओं पर ही ध्यान दिया है।

इस प्रकार रूग्ण मन का अनुसंधान करके मनोवैज्ञानिकों ने अपने निष्कर्ष में संयम, ब्रह्मचर्य इत्यादि बातों को व्यर्थ बताकर सांसारिक काम-व्यवहार को सत्य साबित करना चाहा है। मनोवैज्ञानिकों की कल्पना ʹसंभोग से समाधिʹ को यदि हम सच मान लें तो क्या सांसारिक काम-चेष्टा में दिन रात रत रहने वाले सूअर, कबूतर, बकरियाँ आदि समाधि के आनंद में होते हैं ? क्या मनुष्य शादी करके, काम-विकार की मायाजाल में फँसकर दिव्य तत्त्व का साक्षात्कार करता है ? नहीं।

जीवन में संयमरूपी ʹब्रेकʹ और विवेकरूपी ʹलाल बत्तीʹ की खूब आवश्यकता है। संयम और विवेक से शादी करके बच्चों को जन्म देकर शास्त्रकथनानुसार जीवन बिताना ठीक है, अच्छा है किंतु खुद को तथा पत्नी को भोग की मशीन बनाकर स्वयं को रोगी बनाना कहाँ तक उचित है ?

तुलसीदास जी ने कहा हैः

जहँ काम तहँ नहीं राम जहँ राम तहँ नहीं काम।

तुलसी दोनों रह न सके रवि-रजनी एक ठाम।।

रामायण में एक प्रसंग आता हैः जब रावण श्रीरामचन्द्रजी की सेना से परेशान हो गया तब आखिर में दूसरा रास्ता न मिलने पर उसने भाई कुंभकर्ण को नींद में से जगाया। इस अवसर पर कुंभकर्ण ने रावण से कहाः

“एक सीता के लिए तुम इतने सारे योद्धाओं को मरवा रहे हो एवं मेरी भी नींद बिगाड़ रहे हो ? तुम्हारे पास तो कितनी सारी कलाएँ हैं। कोई भी आजमा ली होती ?”

रावणः “मुझे पागल कुत्ते ने नहीं काटा। मैं सब युक्तियाँ आजमाकर थक गया हूँ। तुम्हें नींद से जगाने पर तुम नाराज होते हो यह मैं जानता हूँ, किंतु मेरे भाई ! दूसरा कोई चारा भी तो नहीं था।”

कुंभकर्णः “तुम्हारे पास तो रूप बदलने की कला है और सीता तुम्हारी ही अशोक वाटिका में है। तुम राम का रूप लेकर सीता के पास सरलता से पहुँच सकते थे।”

रावणः “मैं यह पापड़ भी बेलकर आया हूँ। मैं जब राम का रूप लेने के लिए राम का चिंतन करता हूँ तब तेरी भाभी (पत्नी मंदोदरी) भी मुझे देवी जैसी लगती है तो फिर मैं सीता के पास कैसे जा सकता हूँ ?”

राम नाम इतना पवित्र है कि उसके चिंतनमात्र से रावण जैसे दुष्ट, पापी, अधम का हृदय भी परिवर्तित हो जाता है। राम नाम लेने से मोह, वासना आदि शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और  हृदय में भगवदभक्ति का संचार होने लगता है।

योगियों ने यही बात अपने ढंग से बतायी है। हमारे शरीर में सात मुख्य केन्द्र हैं। प्रथम केन्द्र को मूलाधार केन्द्र, काम-केन्द्र कहते हैं, जो शरीर की नींव बनाने वाला है। प्रारंभ के सात वर्ष तक मूलाधार केन्द्र का विकास होता है। मूलाधार केन्द्र के विकास के बाद ऊपर के केन्द्रों का विकास होता है। मनुष्य धीरे-धीरे ईश्वरीय दिव्यता का अनुभव करने लगता है। जब सहस्रार केन्द्र का विकास होता है तब राम की समाधि का सुख प्राप्त होता है। जीव जब काम-विकाल में लीन होता है तब शरीर से दुर्गन्ध निकलती है और जब जीव राम के रस में लीन होता है तब शरीर से दिव्य प्रकाश, दिव्य दुर्गन्ध निकलती है।

ये तो हुई मन की अवस्थाएँ लेकिन जो तुम्हारे मन को देख रहा है वह साक्षी, चैतन्य, तुम्हारे रोम-रोम में रमने वाला राम तुम्हारा आत्मा है। अगर उस रामतत्त्व को जान लिया तो फिर काम की क्या ताकत है कि तुम्हें विचलति कर सके….. परेशान कर सके ?

संतों की सहिष्णुता

सिंधी जगत के महान तपोनिष्ठ ब्रह्मज्ञानी संत श्री टेऊंरामजी ने जब अपने चारों ओर समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को हटाने का प्रयत्न किया, तब अनेकानेक लोग आत्मकल्याण के लिए सेवा में आने लगे। जो अब तक समाज के भोलेपन और अज्ञान का अनुचित लाभ उठ रहे थे, समाज का शोषण कर रहे थे, ऐसे असामाजिक तत्त्वों को तो यह बात पसन्द ही न आई। कुछ लोग डोरा, धागा, तावीज का धन्धान करने वाले थे तो कुछ शराब, अंडा, माँस, मछली आदि खाने वाले थे तथा कुछ लोग ईश्वर पर विश्वास न करने वाले एवं संतों की विलक्षण कृपा, करूणा व सामाजिक उत्थान के उनके दैवी कार्यों को न समझकर समाज में अपने को मान की जगह पर प्रतिष्ठित करने की इच्छावाले क्षुद्र लोग थे। वे संत गी प्रसिद्धि और तेजस्विता नहीं सह सके। वे लोग विचित्र षडयंत्र बनाने एवं येन केन प्रकारेण लोगों कीक आस्था संत जी पर से हटे ऐसे नुस्खे आजमा कर संत टेऊँरामजी के ऊपर कीचड़ उछालने लगे। उनको सताने में उन दुष्ट हतभागी पामरों ने जरा भी कोरकसर न छोड़ी। उनके आश्रम के पास मरे हुए कुत्ते, बिल्ली और नगरपालिका की गन्दगी फेंकी जाती थी। संतश्री एवं उनके समर्पित व भाग्यवान शिष्ट चुपचाप सहन करते रहे और अन्धकार में टकराते हुए मनुष्यों को प्रकाश देने की आत्मप्रवृत्ति उऩ्होंने न छोड़ी।

संत कंवररामजी उस समय समाज-उत्थान के कार्यों में लगे हुए थे। हतभागी, कृतघ्न, पापपररायण एवं मनुष्यरूप में पशु बने हुए लोगों को उनकी लोक-कल्यामकारक उदात्त सत्प्रवृत्ति पसन्द न आई। फलतः उनकी रुफसु स्टेशन पर हत्या कर दी गई। फिर भी संत कंवररामजी महाराज महान संत के रूप में अभी भी पूजे जा रहे हैं। सिंधी जगत बड़े आदर के साथ आज भी उऩ्हें प्रणाम करता है लेकिन वे दुष्ट, पापी व मानवता के हत्यारे किस नरक में अपने नीच कृत्यों का फल भुगत रहें होंगे तथा कितनी बार गंदी नाली के कीड़े व मेढक बन लोगों का मल-मूत्र व विष्ठा खाकर सड़कों पर कुचले गये होंगे, पता नहीं। इस जगत के पामरजनों की यह कैसी विचित्र रीति है !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 1997, पृष्ठ संख्या 21,21 अंक 49

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