वर्ष के दो भाग होते हैं जिसमें पहले भाग आदान काल में सूर्य उत्तर की ओर गति करता है, दूसरे भाग विसर्ग काल में सूर्य दक्षिण की ओर गति करता है। आदान काल में शिशिर, वसन्त एवं ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं। आदान काल में वर्षा, शरद एवं हेमन्त ऋतुएँ होती हैं। आदान काल के समय सूर्य बलवान और चन्द्र क्षीणबल रहता है।
शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। विसर्ग काल में चन्द्र बलवान और सूर्य क्षीणबल रहता है। चन्द्र पोषण करने वाला होता है। वर्षा ऋतु दौर्बल्यवाली, शरद ऋतु मध्यम बल व हेमन्त ऋतु उत्तम बलवाली होती है।
वसन्त ऋतु
शीत ऋतु व ग्रीष्म ऋतु का सन्धिकाल वसन्त ऋतु का होता है। इस समय में न अधिक सर्दी होती है न अधिक गर्मी होती है। इस मौसम में सर्वत्र मनमोहक आमों के बौर से युक्त सुगन्धित वायु चलती है। वसन्त ऋतु को ऋतुराज भी कहा जाता है। वसन्त पंचमी के शुभ पर्व पर प्रकृति सरसों के पीले फूलों का परिधान पहनकर मन को लुभाने लगती है। वसन्तु ऋतु में रक्तसंचार तीव्र हो जाता है जिससे शरीर में स्फूर्ति रहती है।
वसन्त ऋतु में न तो गर्मी की भीषण जलन तपन होती है और न वर्षा की बाढ़ और न ही शिशिर की ठंडी हवा, हिमपात व कोहरा होता है। इन्हीं कारणों से वसन्तु ऋतु को ʹऋतुराजʹ कहा गया है।
वसन्ते निचितः श्लेष्मा दिनकृभ्दाभिरीरितः।
चरक संहिता के अनुसार हेमन्त ऋतु में संचित हुआ कफ वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से प्रेरित (द्रवीभूत) होकर कुपित होता है जिससे वसन्तकाल में खाँसी, सर्दी-जुकाम, टॉन्सिल्स में सूजन, गले में खराश, शरीर में सुस्ती व भारीपन आदि की शिकायत होने की सम्भावना रहती है। जठराग्नि मन्द हो जाती है अतः इस ऋतु में आहार-विहार के प्रति सावधान रहो।
वसन्त ऋतु में आहार-विहार
इस ऋतु में कफ को कुपित करने वाले, पौष्टिक और गरिष्ठ पदार्थों की मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुए गर्मी बढ़ते ही बन्द कर सादा सुपाच्य आहार लेना शुरु कर देना चाहिए। चरक के अनुसार इस ऋतु में भारी, चिकनाई वाले, खट्टे और मीठे पदार्थों का सेवन व दिन में सोना वर्जित है। इस ऋतु में कटु, तिक्त, कषारस-प्रधान द्रव्यों का सेवन करना हितकारी है। प्रातः वायुसेवन के लिए घूमते समय 15-20 नीम की नई कोंपलें चबा-चबाकर खायें। इस प्रयोग से वर्ष भर चर्मरोग, रक्तविकार और ज्वर आदि रोगों से रक्षा करने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है।
यदि वसन्त ऋतु में आहार विहार के उचित पालन पर पूरा ध्यान दिया जाय और बदपरहेजी न की जाये तो वर्त्तमानकाल में स्वास्थ्य की रक्षा होती है। साथ ही ग्रीष्म व वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य की रक्षा करने की सुविधा हो जाती है। प्रत्येक ऋतु में स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि आहार का महत्त्व है तो विहार भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
इस ऋतु में उबटन लगाना, तैल मालिश, धूप का सेवन, हल्के गर्म पानी से स्नान, योगासन व हल्का व्यायाम करना चाहिए। देर रात तक जागने और सुबह देर तक सोने से मल सूखता है, आँख व चेहरे की कान्ति क्षीण होती है अतः इस ऋतु में देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। हरड़े के चूर्ण का नियमित सेवन करने वाले इस ऋतु में थोड़े से शहद में यह चूर्ण मिलाकर चाटें।
आयुर्वैदिक योग
शरीरपुष्टिः एक गिलास पानी में एक नींबू का रस निचोड़कर उसमें दो किशमिश रात्रि में भिगो दें। सुबह स्नानादि के बाद छानकर पानी पी जाएँ व किशमिश चबा जाएँ। यह एक अदभुत शक्तिवर्धक योग है।
एपेन्डिक्सः दो मिनट और अभ्यास होने पर चार-पाँच मिनट पादपश्चिमोत्तानासन करने से कुछ ही दिनों में एपेन्डिक्स मिट जाता है। यह अनुभूत प्रयोग है।
नकसीर (नाक से रक्त गिरना)- फिटकरी के पानी की कुछ बूँदें नाक में डालने पर नाक से खून आना बंद हो जाता है।
सफेद दागः गाय के मूत्र में तीन ग्राम हल्दी मिलाकर या तुलसी का रस लगाने व 5-7 ग्राम शहद में 10 ग्राम तुलसी का रस पीने से सफेद दाग मिटते हैं।
आयुर्वैदिक चायः गेहूँ के आटे को छानने पर जो चोकर शेष बचता है वह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। 10 ग्राम छान (चोकर) को एक प्याले पानी में अच्छी प्रकार उबालकर कपड़े से छान लें। तत्पश्चात उसमें दूध व मिश्री मिलाकर प्रातः व सायं पियें। इसके निरन्तर सेवन से शरीर दृढ़ व शक्तिशाली बनता है। यदि इसमें पाँच बादाम अच्छी तरह मिला दिये जायें तो वृद्धत्व शीघ्र नहीं आता व दिमाग तेज होता है। नजला, जुकाम, सिरदर्द के लिए गुणकारी है।
गंजापनः सिर पर पत्तागोभी के रस की निरन्तर मालिश की जाय तो गंजापन, बाल झड़ना आदि रोग दूर हो जाते हैं।
पेट के अनेक रोगों के लिएः अजवायन 250 ग्राम व काला नमक 60 ग्राम, दोनों को किसी काँच के बर्तन या चीनी के बर्तन में डालकर इतना नींबू का रस डालें कि दोनों वस्तुएँ डूब जायें। तत्पश्चात इस बर्तन को रेत या मिट्टी से दूर किसी छायादार स्थान पर रख दें। जब नींबू का रस सूख जाय तो पुनः इतना रस डाल दें कि दोनों दवाएँ डूब जायें। इस प्रकार 5 से 7 बार करें। दवा तैयार है। 2 ग्राम दवा प्रातः व सायं भोजन के पश्चात गुनगुने पानी के साथ पी लें। पेट के अनेक रोगों को दूर करने के लिए यह अदभुत दवा है। इससे भूख खूब लगती है। भोजन पच जाता है। अफारा व पेट-दर्द दूर होता है। उल्टी व जी मिचलाने में भी लाभ होता है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 1997, पृष्ठ संख्या 25,32 अंक 50
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