पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
किसी व्यक्ति ने एक महात्मा के पास जाकर कहाः
“बाबा जी ! सनातन धर्म के प्रति कुप्रचार करने वाले लोग कहते हैं कि ʹरामायण सच्ची नहीं है।ʹ वे लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं यह तो हम जानते हैं लेकिन बाबाजी ! जब हम बार-बार सुनते हैं तो कभी-कभी लगता है कि यह बात सच्ची है क्या ?”
वे एक सुलझे हुए महात्मा थे। वे बोलेः “मैं यह तो नहीं जानता कि रामायण सही है या गलत लेकिन इससे मेरा जीवन सही हो गया है और जो इसका अध्ययन करता है उसका जीवन सही होता है। यही प्रमाण सच्चा है। रामायण के अनुकरण से मेरे कुटुम्ब में स्नेह बढ़ गया है, भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र में मर्यादा और स्नेह बढ़ गया है। अतः रामायण के विषय में ʹवह सही है या गलतʹ – यह सोचना ही बेवकूफी है।”
अगर दोषदृष्टि से ही देखना हो तो भगवान श्रीकृष्ण में दुर्गुण दिख जायेंगे पापी को और राम में भी दोष दिख जायेंगे, संत-महापुरुषों में भी दोष दिख जायेंगे निगुरों को। अगर निंदा ही करनी हो तो कोई भी निमित्त उत्पन्न करके आरोपर लगाने लगेंगे निंदक…..
कवि गेटे एक सज्जन व्यक्ति थे। उनकी एक पुस्तक सज्जनों को तो बहुत अच्छी लगी किन्तु जरूरी नहीं है कि अच्छी बात सभी को अच्छी लगे। अतः कुछ निंदकों ने कवि गेटे पर ऐसे-ऐसे आरोप लगाने शुरु किये, जिसे सुनकर गेटे के प्रशंसकों को आघात लगा कि ʹइतने महान् कवि के लिए यह क्या अनर्गल बोला जा रहा है ?ʹ अतः कुछ सज्जन लोग मिलकर कवि गेटे के पास आये और बोलेः
“आपकी पुस्तक अत्यंत बढ़िया है फिर भी आरोपियों ने उसकी धज्जियाँ उड़ाई हैं। उनकी नीच प्रवृत्ति आपके श्रेष्ठ कार्य को नहीं देख सकती अतः अगर आप संकेत करें हम उनके आरोपों का मुँहतोड़ जवाब दे देवें।”
तब गेटे ने कहाः “जिन लोगों को मेरे प्रति प्रेम है और जो मेरे स्वभाव को जानते मानते हैं, वे लोग यदि ऐसे कुप्रचार करने वाले हजार लोग और भी बढ़ जायें, तब भी विचलित होने वाले नहीं हैं। जिसने मुझे नजदीक से देखा है, उसकी मेरे प्रति श्रद्धा, कितना भी कुप्रचार होने पर भी कम नहीं होगी। वह कुप्रचार का शिकार नहीं बनेगा। बैठो, मैं आप लोगों को एक कविता सुनाता हूँ।”
कवि गेटे ने उनको टॉलस्टाय की एक कविता सुनायी, जिसका आशय थाः ʹजब कोई तुम्हारी कड़ी आलोचना करता है, तब तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारा फूल सुविकसित है इसीलिए भौंरे डंक मारने आ रहे हैं। इसी प्रकार जब तुम्हें निंदकों के डंक लगने लगें यह समझ लेना कि तुम्हारा कार्य सुविकसित हुआ है। अर्धविकसित फूल पर भ्रमर कहाँ बैठता है ?ʹ
इसलिए जब आलोचक अऩाप-शऩाप आलोचना करने लगें तब तुम्हें संतोष मानना चाहिए कि तुम्हारा पुरुषार्थ और सेवाकार्यरूपी पुष्प इतना सुविकसित हुआ है कि उन बेचारों को तकलीफ हो रही है…. हालाँकि तुम्हारा इरादा उऩ्हें तकलीफ देने का नहीं है।
लेकिन हाँ, तुम सावधान जरूर रहना। श्रद्धाहीन व्यक्तियों के चक्कर में आकर अपनी श्रद्धा को कभी ढीला म करना, सत्संग मत छोड़ना, ध्यान-भजन, जप-स्वाध्यायादि का त्याग मत करना। जैसे दमा, टी.बी. आदि से ग्रस्त मरीज की हम सेवा तो करते हैं लेकिन उसके कीटाणु हमें न लगें इस बात की सावधानी भी रखते हैं। ऐसे ही जो अश्रद्धा के कीटाणु से ग्रस्त हों रहे हों, ऐसे लोगों के बीच रहे, उऩकी ʹहाँʹ में हाँ मिलाते रहें तो फिर तुम्हारी श्रद्धा को भी आँच आने लगेगी और ध्यान-भजन में रूचि कम होती जायेगी।
उन व्यक्तियों से, उन वस्तुओं से, उन परिस्थितियों से, उन बातों से और संसर्ग से बचो जो तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति और प्रेमरस को सुखाते हों। उन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों का अवलंबन लो जिनसे तुम्हारे हृदय में श्रद्धा, भक्ति और प्रेम का स्रोत प्रगट होने में मदद मिले। श्रीकृष्ण कहते हैं-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
श्रद्धालु ही उस परम ज्ञान को पाता है और ज्ञान से परम शांति का अनुभव यहीं कर लेता है।
सुधन्वा के पिता, चम्पकपुरी के नरेश हंसध्वज ने एक बार अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़कर बाँध दिया तथा राजगुरु शंख एवं लिखित की आज्ञा से यह घोषणा कर दी गयी कि नियत समय तक सब योद्धा रणक्षेत्र में उपस्थित हो जायें। जो ठीक समय पर नहीं पहुँचेगा, उसे उबलते हुए तेल के कढ़ाहे में डाल दिया जायेगा।
आदेश का पालन करते हुए बाकी के सब योद्धा एवं अन्य राजकुमार तो निश्चित समय पर पहुँच गये, किन्तु सबसे छोटे राजकुमार सुधन्वा किसी कारणवश नहीं पहुँच सके। भक्त सुधन्वा को थोड़ी देर हो गयी अतः आज्ञा के मुताबिक सुधन्वा को खौलते कढ़ाहे में डाला गया, किन्तु हरिचिंतन के प्रभाव से सुधन्वा का बाल तक बाँका न हुआ।
सुधन्वा जान गये थे कि ʹमेरे पिता को चढ़ाने-भढ़काने वाले दो मंत्री हैं- शंख और लिखित। इन दोनों के कारण मेरे पिता को इतना क्रोध आ गया है।ʹ सुधन्वा भगवदभक्त तो थे ही, प्रभु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी अतः उन्होंने प्रार्थना कीः ʹयदि मैं निष्कपट भाव से हरि को अपना और अपने को हरि का मानता हूँ तो हरि सर्वत्र हैं, वे ही मेरी सहायता करें….ʹ
सुधन्वा के लिए तेल शीतल हो गया और उनका एक रोम तक न झुलसा ! लोगों को आश्चर्य हुआ कि यहाँ कोई षडयंत्र तो नहीं है। तब कढ़ाहे में नारियल फैंका गया और ज्यों ही नारियल कढ़ाहे में गिरा, त्यों ही दो टुकड़े होकर इतने जोर से उछला कि एक टुकड़ा दूर खड़े शंख के सिर पर और दूसरा टुकड़ा लिखित के सिर पर जा गिरा।
दोनों को परिचय मिल गया कि श्रद्धावान भक्तों के जीवन में हस्तक्षेप करने का परिणाम बड़ा खतरनाक होता है।
संत सताये तीनों जाये तेज बल और वंश।
ऐड़ा ऐड़ा कई गया रावण कौरव केरो कंस।।
हो सके तो भगवान के भक्तों की सेवा करो अन्यथा किनारे रहो, किन्तु उऩ्हें सताओ मत। यदि तुम सताओगे तो तुम्हारा सताना वे तो थोड़ा सह लेंगे लेकिन श्रीहरि की प्रकृति जब करवट लेगी तो बहु-बहुत भारी पड़ जायेगी।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 1997, पृष्ठ संख्या 19,20,25 अंक 51
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