परोपकार की महिमा

परोपकार की महिमा


संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से

‘श्री योग वाशिष्ठ महारामायण’ में आता हैः

‘ज्ञानवान सबसे ऊँचे पद पर विराजता है। वह परम दया की खान होता है। जैसे मेघ समुद्र से जल लेकर वर्षा करते हैं तो उस जल का उत्पत्ति स्थान समुद्र ही होता है, ऐसे ही जितने लोग दयालु दिखते हैं वे ज्ञान के प्रसाद से ही दया करते हैं।’

दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छोड़िये जब लग घट में प्राण।।

जितने भी पृथ्वी पर बलवान हैं, विद्वान हैं, यशस्वी हैं, तेजस्वी हैं उन सबमें ज्ञानवान पूजने योग्य हैं क्योंकि वे भगवद्ज्ञान से सम्पन्न हैं और जिनके हृदय में भगवद्ज्ञान का उदय हुआ है उनके हृदय में दया और शांति बनी रहती है।

जितनी दया और शांति ज्यादा, उतना ही परमात्म-सुख ज्यादा होता है। जितना परमात्म-सुख ज्यादा, उतना ही सामर्थ्य ज्यादा होता है और जितना सामर्थ्य ज्यादा होता है उतनी ही परदुःखकातरता ज्यादा होती है।

अपने दुःख में रोने वाले मुस्कराना सीख ले।

दूसरों के दुःख-दर्द में आँसू बहाना सीख ले।।

जो खिलाने में मजा है आप खाने में नहीं।

जिंदगी में तू किसी के काम आना सीख ले।।

जो दूसरों का दुःख मिटाकर आनंद पाता है उसको अपना दुःख मिटाने हेतु अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती। बिना करुणा के परदुःखकातरता का सदगुण नहीं खिलता, बिना परदुःखकातरता के सत्वगुण नहीं बढ़ता और जब तक जीवन में सत्वगुण नहीं आता, तब तक परमात्म-सुख और शांति नहीं मिलती। जिन्होंने परमात्मज्ञान पाया है उनमें दया और शांति स्वाभाविक ही रहती हैं। जैसे सागर के पानी में जलचर स्वाभाविक ही रहते हैं, ऐसे ही ज्ञानवान के हृदय में शांति और परोपकार की वृत्ति स्वाभाविक ही रहती है।

श्री वशिष्ठजी महाराज ने तो यहाँ तक कहा है कि ‘हे राम जी ! जिस देश में ज्ञानवानरूपी वृक्ष की शीतल छाया न हो उस नगर, उस देश में नहीं रहना।’

जिनके हृदय में परमात्म-सुख प्रकट हुआ है ऐसे संतों के निकट जाने से हमें ज्ञान मिलता है, शांति मिलती है और सत्प्रेरणा मिलती है। सत्यस्वरूप ईश्वर का जिन्होंने अनुभव कर लिया है, ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य की बड़ी भारी महिमा है। कबीर जी ने भी कहा हैः

तीरथ नहाये एक फल संत मिले फल चार।

सदगुरु मिले अनंत फल कहत कबीर विचार।।

जिनको सदगुरु का ज्ञान पच गया है, उनका यह निश्चय रहता है कि आत्मा-परमात्मा ही सत्य है। पुण्यात्मा को सदा पुण्यमय निश्चय में ही रुचि होती है। पुण्यात्मा अपने आत्म-परमात्म स्वभाव का तैलधारवत् चिंतन करते हैं।

जो धर्मात्मा हैं, श्रेष्ठ पुरुष हैं, पवित्रात्मा हैं उनकी रुचि कथा-कीर्तन, हरि-चर्चा, हरि-ध्यान और हरि-ज्ञान में ही रहती है। उनके लिए इस संसार के सुख-दुःख, मान-अपमान और हानि-लाभ सब खेलमात्र हैं।

जो पुण्यात्मा हैं उनकी रुचि स्वभावतः सेवा में, परोपकार में होती है। वे भोग, विकारी सुखों के बिना भी अंदर से तृप्त रहते हैं और ईश्वर को धन्यवाद देते हुए जीते हैं। वे बदनामी सहकर भी भलाई के कार्य करते हैं। वे इल्जाम सहते हैं फिर भी मुस्कराते रहते हैं। दुःख सहते हैं और सुख बाँटते हैं।

जिसको अपने जीवन में उन्नति चाहिए उसको परोपकार करना चाहिए। लौकिक और पारमार्थिक उन्नति का मूल है परोपकार। जो निष्काम सेवा नहीं कर सकता वह ठीक से आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं कर सकता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2002, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 114

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