मुझे आज से 5-7 वर्ष पूर्व पंचेड़ (रतलाम) आश्रम पर पूज्य श्री द्वारा मंत्रदीक्षा मिली थी परन्तु उस समय मुझे इस अति अनमोल धरोहर के महत्त्व का पता नहीं होने से मैं पता नहीं कैसे, अपना गुरुमंत्र भूल गयी। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ? गुरुमंत्र गुप्त होता है इसलिए मुझे बताने वाला भी कोई नहीं था। मुझमें इतनी हिम्मत भी नहीं कि मैं अपनी इस भारी भूल को पूज्यश्री के समक्ष दोहरा सकूँ। ऐसा लगा कि मैंने अपने जीवन का सर्वस्व खो दिया है। मेरे पास सिवाय पश्चात्ताप के कोई शेष मार्ग नहीं था। फिर भी मुझे पूज्यश्री की निशदिन हम बच्चों पर बरसती कृपा पर अटूट विश्वास था।
मैंने मन-ही-मन प्रतिदिन पूज्यश्री से प्रार्थना करना आरम्भ किया। मुझे पूरा यकीन था कि जब करूणासिंधु गुरुवर सभी की संसारी इच्छाएँ पूर्ण करने में कोई कमी नहीं रखते, किसी को निराश नहीं करते तो मैं जो उनसे माँग रही हूँ वह तो परम दुर्लभ प्रसाद है। बस…. दिन-रात प्रार्थना, पश्चात्ताप में खोयी रहती। आखिरकार पूज्यश्री ने मेरी बिनती स्वीकार कर ली। मेरे निराश, दुःखी मन-मंदिर में गुरुकृपा से आनंद और प्रभुभक्ति के दीप जगमगाये। एक रात्रि को पूज्यश्री ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिये और प्रेम से आँख दिखाते हुए उसी सहज मनोहारी शैली में मुझसे पूछाः “तेरा गुरुमंत्र क्या है?”
मैं कुछ कहने का साहस नहीं कर पायी। तब पूज्यश्री ने मुझे अपना वही गुरुमंत्र स्मरण कराते हुए कहाः “यही है न तेरा मंत्र ?”
इतना सुनते ही मुझे अपना वही गुरुमंत्र पुनः स्मरण आ गया और मेरी खुशी का कोई ठौर नहीं रहा। पूज्यश्री मुस्कराये और बोलेः “बेटा ! अब मत भूलना।”
मेरे हृदय में उस समय इतनी अत्यधिक खुशी हुई कि बरबस मेरी नींद खुल गयी और मेरी आँखें भर आयीं। सचमुच, पूज्यश्री कितने कृपालु हैं ! हम भक्तों पर कैसे-कैसे, किस रूप में कब और कहाँ-कहाँ अपनी कृपा करते हैं इसको आँक पाना अत्यन्त दुष्कर है। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा फिर से एक नया जन्म हुआ। अब मैं प्रतिदिन उसी उत्साह, तत्परता और नियमपूर्वक अपनी साधना करती हूँ।
पूज्यश्री के श्रीचरणों में मेरा कोटिशः नमन……
श्रीमती मनुबहन सोनी, दौलतगंज, रतलाम (म.प्र.)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 1997, पृष्ठ संख्या 29, अंक 52
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