परम शांति

परम शांति


पूज्यपाद संत श्री आशारामजी

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।

ʹहे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा शाश्वत परमधाम को प्राप्त होगा।ʹ श्रीमद् भगवद् गीता 18.62)

शांति तीन प्रकार की होती है।

आधिभौतिक शांति।

आधिदैविक शांति।

आध्यात्मिक शांति।

उपरोक्त तीनों प्रकार की शांति हमारे व्यवहार में दिखती है।

किसी भी प्रकार का उपद्रव होवे और वह दूर हो जाये  कहेंगे किः ʹहाशઽઽઽ…..! शांति……!ʹ यह है आधिभौतिक शांति।

किसी देवी देवता का कोप हुआ हो, नौकरी नहीं मिलती हो, लड़के लड़की की शादी की चिंता सताती हो, आदि। जब ये विघ्न हट जाते हैं तो कहेंगे किः ʹहाशઽઽઽ…. ! शांति….!ʹ यह है आधिदैविक शांति।

ये शांतियाँ तो बेचारी दिन में कितनी ही बार आएँ और फिर चली जायें लेकिन एक बार परम शांति मिल जाय तो मौत भी तुमको अशांत नहीं कर सकेगी, इन्द्र का वैभव भी तुमको प्रलोभन में नहीं डाल सकेगा और शुकदेवजी जैसी कौपीनधारी अवस्था भी तुमको अपने में दीनभाव उत्पन्न नहीं करने देगी।

धन से जो गरीब है वह गरीब नहीं है, सत्ता से जो गरीब है वह गरीब नहीं है लेकिन विचारों से जो गरीब है, वह महादरिद्र है और विचारों से जो सेठ है वो सेठों का भी सेठ है।

राजा परीक्षित कोई साधारण राजा न थे। उनके पास सात द्वीपों का स्थायी राज्य था और अनेक राजाओं पर उन्होंने विजय प्राप्त की थी। इतना विशाल राज्य और सैन्यबल होते हुए भी परीक्षित कहते हैं कि कोई महापुरुष मिले और ईश्वर-तत्त्व का प्रसाद दे तभी मुझे परम शांति मिलेगी, बाकी सब तो मैंने देख लिया।

जब शुकदेवजी महाराज मिले तब परीक्षित पहला प्रश्न करते हैं- “जब मृत्यु निकट हो तब जीव को क्या करना चाहिए ?”

शुकदेवजी कहते हैं- “इन्द्रियों के भोगों में रत जीवों के लिए सात दिन तो क्या सात जन्म भी कम हैं लेकिन तुझ जैसे बुद्धिमान के लिए  सात दिन भी अधिक हैं। जो नश्वर पदार्थों को नश्वर जानते हुए शाश्वत में प्रीति रखें, ऐसों के लिए तो सात दिन भी अधिक हैं। हे परीक्षित ! तू  भगवान की शऱण जा।”

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।

गाँधी जी के जीवन में भी जब चमत्कार होते तब गाँधी जी वे अनुभव लोगों को सुनाते थे। गोलमेज कार्यक्रम में भाग लेने आईऩ्स्टीन जर्मनी से आये थे और गाँधी जी भारत से गये थे। उसमें गाँधीजी ने इतना सुन्दर व्याख्यान किया कि उनका उपहास करने वाले लोग भी उऩसे प्रभावित हो गये तथा उऩकी हँसी उड़ाने वाले अंग्रेजों ने भी तालियाँ बजाईं और उऩका अनुमोदन किया।

लोगों ने गाँधी जी से पूछाः “आप ऐसा प्रवचन कहाँ से पढ़कर आये ? यह सब तैयारी कैसे की ?”

गाँधी जी कहते हैं- “मैं जब बोलता हूँ तब मैं नहीं रहता, भगवान की शरण चला जाता हूँ। मेरे बोलने के पीछे मेरे राम का हाथ होता है इसलिए मेरी बोली प्रभावयुक्त होती है।”

हम भी शिष्टाचार में कह देते हैं कि मेरे काम के पीछे ईश्वर का हाथ है लेकिन यदि सफल हुए तो भीतर ʹमैंʹ बैठा ही होता है कि ʹयह तो मैंने कियाʹ और यदि विफल हुए तो कहेंगे कि ʹइसकी गलती…. उसकी गलती….ʹ या ʹजो भगवान की मर्जी….ʹ मानो भगवान ही काम बिगाड़ते को बैठे हैं।

वस्तुतः जीव के प्रत्येक कार्य के पीछे ईश्वर की सत्ता है। ईश्वर की सत्ता जब तक महसूस नहीं होती तब तक मनुष्य अहं में, जीवभाव में बैठा होता है। जब तक मनुष्य सत्संग नहीं करता तब तक उसे ईश्वर के रस की अनुभूति नहीं होती। जब तक ईश्वरीय रस की अनुभूति नहीं होती तब तक बाहर के रस का आकर्षण-विकर्षण एवं अशांति नहीं मिटती एवं दुःख निर्मूल नहीं होते। दुनिया की सब चीजें एक व्यक्ति को दे दो। खुशियों का उसे सरताज पहना दो, सारा सौन्दर्य, सारा धन एक व्यक्ति को दे दो लेकिन जब तक उसके जीवन में गीता रूपी ज्ञान नहीं होगा, उपनिषदों का अमृत नहीं होगा तब तक उसका दुर्भाग्य तो उसके साथ ही रहेगा। मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है बार-बार जन्मना और बार-बार मरना। बड़े में बड़ा सौभाग्य हैः

लभ्ध्वा ज्ञानं परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति।

उस आत्मज्ञान की उपलब्धि होवे तो परम शांति। शुकदेव जी उस परम शांति को प्राप्त हुए महापुरुष थे। परीक्षित के सभामंडप में पहुँचने से पहले कुछ अज्ञानी लोगों ने उनका अपमान किया, पत्थर उछाले लेकिन उनके चित्त में अशांति नहीं हुई और सोने के सिंहासन पर बिठाकर परीक्षित उनका अर्घ्य-पाद्य से पूजन करते हैं तब भी शुकदेव जी को हर्ष नहीं होता।

जैसे सूर्य के निकट रात्रि नहीं जा सकती, सूर्य को दीमक नहीं लग सकती,  ऐसे ही जिसको परम शांति हो गई हो, आत्मा-परमात्मा का जिसको अनुभव हो चुका हो, ज्ञान का दीपक जिसमें एक बार प्रकाशित हो चुका हो उसे कोई आँधी नहीं बुझा सकती। उसी की प्राप्ति के लिए मनुष्य को बुद्धि मिली है। सच में सुखी भी वही रह सकता है जिसने परम शांति का अनुभव कर लिया है।

लभ्ध्वा ज्ञानं परां शांतिम्…..

अधिकांश लोग कहते हैं- “बाबा जी ! समय नहीं मिलता…. समय का अभाव है।ʹʹ अरे भाई ! आपके पास जो काम है, उससे भी अधिक काम पुराने समय के राजाओं के पास रहता था और आप लोगों के पास जितनी सुविधाएँ हैं, पुराने व्यक्तियों के पास उतनी न थीं। अभी हम बस में, रेल में, हवाई जहाज में सफर कर कार्य शीघ्रता से पूरा कर सकते हैं। पुराने समय में तो बैलगाड़ी जोतनी पड़ती थी। कहीं दूर जाना हो तो हफ्ताभर पहले से तैयारियाँ करनी पड़ती थीं।

गाड़ा जोतते-जोतते पटेल शहर जाय।

गाम का लाय और घर का भूल आय।।

ऐसा करते हुए भी लोग समय बचाते थे। गलाडूब व्यवहार में रहते हुए भी राजा-महाराजा लोग समय बचाकर गुरुओं के द्वार पर जाते थे और आत्मज्ञान पाते थे। आत्मतेज से वे तेजस्वी रहते थे और परम शांति पाते थे।

साधुओं का नाम लेवें तो शुकदेव जी महाराज का नंबर पहले आता है। ऐसे शुकदेव जी महाराज के गुरु राजा जनक योगशक्ति से सम्पन्न अठारह वर्षीय युवती सुलभा का पूजन करते हैं।

सुलभा जब राजा जनक के दरबार में पहुँची  उसके निर्दोष, संयमी व प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं ज्ञाननिष्ठा को देखकर राजा जनक की दृष्टि स्थिर हो गई। उन्होंने पूछाः “तुम क्या चाहती हो ?”

सुलभा ने कहाः “राजन् ! में आपसे शास्त्रार्थ करना चाहती हूँ। आपको राजकाज के गलाडूब व्यवहार में परमशांति कैसे हुई ? अगर मेरा परिचय पूछो तो ʹसुलभाʹ मेरा नाम है। क्षत्रिय कुल में मेरा जन्म हुआ है।”

संतशिरोमणी शुकदेव जी के गुरु आनंदित होकर योगिनी सुलभा का पूजन करते हैं। यह आत्मविद्या कैसी है ! जनक जैसे राजा बारह वर्षीय अष्टावक्र का पूजन करते हैं। यह आत्मविद्या की ही महिमा है।

बारह वर्षीय अष्टावक्र के शरीर में आठ चक्र हैं। ठिगना कद, काला रंग व टेढ़े मेढ़े अंग….. एकदम कुरुप…. और चलें  तो ऐसा लगे कोई विचित्र प्राणी आया। फिर भी उऩमें आत्मविद्या चमकती है और उऩकी पूजा होती है।

हम सब भी अपने ʹमैंʹ रूपी अहंकार का विसर्जन करते हुए उस परमेश्वर की, परमेश्वर के अनुभव का रसपान कराने वाले आत्मविद्या के समर्थ आचार्य किसी सदगुरु की शऱण लेकर उस परम शांति व परमानंद को प्राप्त करने का यत्न करें जिसकी प्राप्ति के बाद और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता तथा जिससे बढ़कर अन्य कोई लाभ नहीं होता, हम उसी की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प करें…..

ૐ आनंद… ૐ शांति….. ૐ…..ૐ…..ૐ…..

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1997, पृष्ठ संख्या 2,3,4 अंक 53

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