पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू
हर एक मनुष्य आनंद चाहता है, हर एक मनुष्य सुख चाहता है, हर एक मनुष्य मुक्ति चाहता है। कोई भी बंधन नहीं चाहता है।
मानवजात का एक समूह है। उसमें चार प्रकार के मनुष्य हैं। सब मनुष्य आनंद चाहते हैं, हृदय की शांति और शीतलता चाहते हैं। कोई ऐसा नहीं चाहता कि मेरा हृदय अशांत हो… मैं पापी होऊँ… मैं सुख से दूर चला जाऊँ। सब सुख की तरफ ही भाग रहे हैं। कई लोग सुख की तरफ इस तरह भागते हैं कि वहाँ सुख मिलता नहीं, दुःख ही दुःख मिलता है, मुसीबत ही मुसीबत मिलती है।
जैसे ऊँची गरदन होने से ऊँट अच्छा घास छोड़कर कँटीले वृक्षों के पत्तों को खाता है। काँटे मुँह में लगने से खून निकलता। ऊँट समझता है कि कितना मजेदार है ! उसे यह पता ही नहीं यह मजा अपने लिए सजा है।
ऐसे ही हम सुख चाहते हैं, हृदय की तृप्ति चाहते हैं लेकिन विषय-विकारों का कँटीला सुख चाहते हैं। शुरूआत में तो अच्छा लगता है किन्तु बाद में ऊँट जैसा हाल होता है। विषयों का सुख दाद की खुजली जैसा सुख है। उसे खुजलाते हैं तो मजा आता है लेकिन बाद में सत्यानाश कर देता है।
कुछ लोग जल्दी सुख लेने जाते हैं। जहाँ सुख है उस अंतरात्मा की तरफ नहीं जाते बल्कि सुख के बहाने सुख से दूर चले जाते हैं। परिणाम का विचार नहीं करते। ऐसा बोलने से, ऐसा करने से, ऐसा भोगने से क्या परिणाम आयेगा यह नहीं सोचते। उनको पामर कहते हैं।
दूसरे प्रकार के लोग होते हैं विषयी। कथा में जायेंगे, सत्संग सुनेंगे तो कहेंगे कि ʹमहाराजजी की बात तो ठीक है, ज्ञान तो अच्छा है लेकिन क्या करें यार ! संसार में रहते हैं…. जरा इतना कर लें फिर देखा जायेगा।ʹ इनको विषयी कहते हैं।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ज्ञान की बात सुनते हैं तो थोड़ा उधर चलते भी हैं। जो उत्तम जिज्ञासु हैं, बुद्धिमान हैं, वे तो बस, गलती को समझकर विषय-विकारों से अपने को बचाकर सच्चे सुख की तरफ चल पड़ते हैं। थोड़े ही दिनों में उनको भगवदसुख की प्राप्ति हो जाती है। वे अपने घर में आ जाते हैं। अपना घर क्या है ? चित्त की विश्रान्ति प्रसाद की जननी है। चित्त की विश्रान्ति प्रभुरस को प्रकट करने वाली कुँजी है। चित्त की विश्रान्ति से सामर्थ्य प्रकट होता है और सामर्थ्य का सदुपयोग करने से निर्भयता आती है।
जो कपट करके यश चाहते हैं या सामर्थ्य का दुरुपयोग करके सुखी होना चाहते हैं, उनका सामर्थ्य नष्ट होते ही हाल-बेहाल हो जाता है।
सामर्थ्य का सदुपयोग करो। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताएँ कम करो। अपने व्यक्तिगत व्यापार का ज्यादा विस्तार मत करो।
जो सामर्थ्य मिला है उससे औरों की सेवा करके अपना कर्जा उतारो। संसार के सुख-भोग की इच्छा छोड़कर अपने लिए अंदर का सुख खोजो और बाहर से सुख की साधन-सामग्री का उपयोग औरों के लिये करो। यह सामर्थ्य का सदुपयोग हुआ। ऐसे ही बुद्धि का भी सदुपयोग करो, वस्तु का भी सदुपयोग करो और विचारों का भी सदुपयोग करो।
ध्यान-भजन करने बैठते हैं तो फालतू विचार बार-बार आयेंगे। उन फालतू विचारों के पीछे भगवान की भावना करो। भगवान अपना शुद्ध ज्ञान मनुष्यों को देते हैं। उसे लेकर उस भगवद्ज्ञान से अपने विचारों को भर दो।
मान लो, विचार पानी के आयें तो पानी की गहराई में प्रभु की चेतना है। जल के, थल के, तेज के, वायु के, आकाश के विचार आये तो उन जल, थल, तेज, वायु और आकाश-इन सबकी गहराई में प्रभु ! तू है…. ऐसे विचारों को भर दो। इस भावना से विचारों का सदुपयोग हो जायेगा। मनोराज्य की खटपट से बचकर मन विश्रान्ति की तरफ आयेगा।
भगवान की भाषा में कहें तो….
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
ʹहे धनंजय ! मेरे सिवाय किंचिन्मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है, यह संपूर्ण जगत सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गूँथा हुआ है।ʹ भगवदगीताः 7-7
जैसे सूत की मणियों में सूत का धागा, सोने की मणियों में सोने का तार पिरोया जाता है, ऐसे ही सारा जगत भगवद चेतना में और भगवद चेतना सारे जगत में पिरोयी हुई है।
एक बार अखंडानंद सरस्वती साबरमती में गांधी जी का चित्र देखने गये थे। चित्र क्या था ? सूत का बना हुआ था। सब सूत ही सूत था, लेकिन ऐसी कला थी कि उसमें गाँधी जी दिख रहे थे। जब चश्मा भी सूत और गांधी जी की आँखें भी सूत। उनके हाथ में डंडा है वह भी सूत और उनकी चप्पल भी सूत। सूत में डिजाईन थी। सब सूत ही सूत था। ऐसे ही ब्रह्म में जो जगत की डिजाईन है वह सब ब्रह्म ही ब्रह्म है….ʹ ऐसा जो चिंतन करता है वह संयमी और पवित्र रहता है। उसका अंतःकरण जल्दी शुद्ध हो जाता है।
आप सृष्टि में मंगलमय देखने लग जाओ, चित्त जल्दी पवित्र होगा, शांत होगा। इस पर दोष, उस पर दोष…. इसके-उसके अवगुणों का चिंतन करोगे तो आपका मन दूषित होगा।
जो मंजिल चलते हैं वे शिकवा नहीं किया करते।
और जो शिकवा करते हैं वे मंजिल नहीं पहुँचा करते।।
फरियाद हटाकर तुम धन्यवाद दो। हर हाल में तुम उसकी करूणाकृपा को देखो। इससे तुम जल्दी कल्याण को प्राप्त होगे।
दंडकारण्य में भगवान श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी रहे थे। तब वहाँ के सिख्खड़ साधुओं ने सोचा कि अपन नाहक अनासक्त होकर, विरक्त होकर जंगलों में अकेले पड़े हैं। अपन भी शादी विवाह कर लेते और अपनी-अपनी सीता लाते तो अपन भी मजे से भजन करते। लखन कंदमूल ले आता और सीता जी सेवा कर देतीं, पैरचंपी करती और अपन आराम से भजन करते।
उनके मन में ये विचार कुछ दिनों तक तो रहे, लेकिन फिर जब रावण सीता जी को ले गया तो रामजी ʹहाय सीते ! हाय सीते ! सीते…. सीते…!ʹ करने लगे तब साधु बाबाओं ने कहाः “राम जैसे राम को भी रोना पड़ता है तो अपना क्या हाल होता भैया ? अपन तो ऐसे ही भले, ऐसे ही चंगे।”
भगवान का रामावतार मनुष्य को सीख देता है कि भगवान भी अगर आसक्ति करेंगे तो भगवान भी दुःखी होंगे फिर औरों की तो बात ही क्या ?
जब-जब भय, शोक, दुःख होता है तो आसक्ति से ही होता है, पक्कड़-अक्कड़ से ही होता है। मनुष्य अगर पक्कड़-अक्कड़ छोड़ दे तो दुःख और भय को जगह ही नहीं मिलेगी।
चित्त की विश्रान्ति से पक्कड़-अक्कड़ छूटती है। जो करना चाहिए और जो कर सकते हो उसे कर डालो और जो नहीं करना चाहिए और नहीं कर सकते। उसकी इच्छा छोड़ दो। उसे हृदय से निकाल दो। उससे चित्त की विश्रान्ति मिलती है।
तुमको जो करना चाहिए वह तुम कर डालोगे तो पिया को तुम्हारे लिए जो करना होगा, वह भी कर देगा, उसमें देर नहीं लगेगी।
तू मुझे उर आंगन दे दे। मैं अमृत की वर्षा कर दूँ।
तू तेरा अहं दे दे। मैं परमात्मा का रस भर दूँ।।
अगर ऐसा कहें कि अहं तो नहीं देंगे, अहं तो हम अपने पास रखेंगे, लेकिन आप रस भर दो… तो भैया !
इश्क करना और जाँ बचाना, यह भी कभी हो सकता है क्या ?
जैसे सूत की मणि, सूत के धागे से पिरोयी हुई है, जैसे तरंग भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी सब जल ही जल है, मिट्टी के बर्तन भिन्न-भिन्न दिखने पर भी सब मिट्टी ही मिट्टी है, शक्कर के खिलौने सब भिन्न-भिन्न होते हुए भी सब शक्कर ही शक्कर है, ऐसे ही व्यक्तियों के आकार (Model) भिन्न-भिन्न, उनके विचार भिन्न-भिन्न, उनके कर्म भिन्न-भिन्न, उनके स्वभाव भिन्न-भिन्न, लेकिन उन सबमें अभिन्न एक आत्मा ज्यों का त्यों है… ऐसा जो सुमिरन करता है उसको विश्रान्ति मिलती है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 21,22,23 अंक 55
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