परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू
हमारा अधिकांश समय कुछ पाने, उसे संभालने और ʹवह नष्ट न हो जायʹ इसकी चिन्ता और मेहनत में ही नष्ट हो जाता है जबकि वास्तविकता तो यह है कि इस क्षणभंगुर मृत्युलोक में ऐसी कोई भी वस्तु और संबंध नहीं है जो सदा बना रहे। हम जो पाना चाहते हैं वह नश्वर है। हम जिसे संभालना चाहते हैं, वह पल-प्रतिपल नष्ट होता है जा रहा है लेकिन विवेक के अभाव में हम अपना अमूल्य मानव देह और समय व्यर्थ गँवा देते हैं और आखिरकार कुछ भी हाथ नहीं लगता। एक परमात्मा के शाश्वत संबंध को छोड़कर कोई भी संबंध सदा नहीं रहता। लेकिन अभागी इच्छा-वासनाओं ने हमें कभी सच्ची शांति का अधिकारी नहीं बनने दिया।
बुद्ध एक विशाल मठ में पाँच मास तक ठहरे हुए थे। गाँव के लोग शाम के समय सत्संग सुनने आते और सत्संग पूरा होता तो लोग बुद्ध के समीप आ जाते और उनके समक्ष अपनी समस्याएँ रखते। किसी को बेटा चाहिए तो किसी को धन्धा चाहिए, किसी को रोग का इलाज चाहिए तो किसी को शत्रु का उपाय चाहिए।
एक बार भिक्षु आनंद ने पूछाः
“भगवन् ! यहाँ श्रीमान लोग भी आते हैं, मध्यम वर्ग के लोग भी आते हैं और छोटे-छोटे लोग भी आते हैं। सब दुःखी ही दुःखी। इनमें कोई सुखी होगा क्या ?”
बुद्धः “हाँ, एक आदमी सुखी है।”
आनंदः “बताइये, कौन है वह ?”
बुद्धः “जो आकर पीछे चुपचाप बैठ जाता है और शान्ति से सुनकर चला जाता है। कल भी आयेगा। उसकी ओर संकेत करके बता दूँगा।”
दूसरे दिन बुद्ध ने इशारे से बताया। आनंद विस्मित होकर बोलाः “भन्ते ! यह तो मजदूर है। कपड़े का ठिकाना नहीं और झोंपड़ी में रहता है। यह सुखी कैसे ?”
बुद्धः “आनन्द ! अब तू ही देख लेना।”
बुद्ध ने सब लोगों से पूछा कि आपको क्या चाहिए ? सभी ने अपनी-अपनी चाह बतायी। किसी को धन, किसी को सत्ता तो किसी को सौन्दर्य चाहिए था। जिसके पास धन था, उसको शांति चाहिए। सभी किसी-न-किसी परेशानी में ग्रस्त थे। आखिर में उस मजदूर को बुलाकर पूछा गयाः “तेरे को क्या चाहिए ? क्या होना है तुझे ?”
मजदूर प्रणाम करते हुए बोलाः “प्रभो ! मुझे कुछ चाहिए भी नहीं और कुछ होना भी नहीं है। जो है, जैसा है, प्रारब्ध बीत रहा है। धन में या धन के त्याग में, वस्त्र और आभूषणों में सुख नहीं है। सुख तो है समता के सिंहासन पर और हे भन्ते ! वह आपकी कृपा से मुझे प्राप्त हो रहा है।”
ʹमुझे यह पाना है…. यह करना है…. यह बनना है….ʹ ऐसी खटपट जिसकी दूर हो गई हो वह अपने राम में आराम पा लेता है। वह सच्ची शांति का अधिकारी हो जाता है। आज आरोग्यता पा लेना दुर्लभ नहीं, सत्ता पा लेना दुर्लभ नहीं, साम्राज्य पा लेना दुर्लभ नहीं। दुर्लभ तो वे हैं जो कुछ पाकर सुखी होने की हमारी मान्यताएँ छुड़ाकर सत् का बोध करा दें, सच्ची शांति का अधिकारी बना दें। ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष दुर्लभ हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1997, पृष्ठ संख्या 31,32, अंक 55
ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ