परमात्मप्राप्ति के सात सचोट उपाय

परमात्मप्राप्ति के सात सचोट उपाय


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

कथा कीर्तन कलियुगे, भवसागर की नाव।

कह कबीर भव तरन को और नाहि उपाय।।

कलियुग में परमात्म-प्राप्ति के लिए वे साधन, वातावरण अथवा शरीर अभी आपके पास नहीं है जो अन्य युगो थे जिससे तप करके समाधि करके परमात्म-प्राप्ति की जा सके। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कलियुग में परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। मनुष्य जन्म का उद्देश्य ही परमात्म-साक्षात्कार कर मुक्ति प्राप्त करना है। इस कलिकाल में भी परमात्म-प्राप्ति के कुछ सचोट उपाय हैं।

प्रथम उपायः परमात्म तत्त्व की कथा का श्रवण करें।

कथा कीर्तन जा घर भयो, संत भयो मेहमान।

वा घर प्रभु वासा कीन्हा, वो घर है वैकुण्ठ समान।।

एक पंडित जी कथा कर रहे थे। कथा के बीच में उन्होंने कहाः राम नाम भव सिंधु तरहि। राम नाम ऐसा है कि वह भवसिंधु से तार देता है।

एक ग्वालिन दूध बेचकर वहाँ से गुजर रही थी। उसके कान में कथा की यह बात आ गई कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है।ʹ वह ग्वालिन दो घड़े सिर पर रखकर दूध बेचने जाती और लौटते समय उन खाली घड़ों में सामान भर लेती थी। उस दिन लौटते समय नदी के किनारे पर पहुँच कर वह सोचने लगीः “आज नाव वाला नहीं है और पंडित जी ने कहा था कि ʹराम नाम भवसिंधु तार देता है…. राम नाम से तो पत्थर भी तैरते हैं।ʹ दूध बेचने वाली उस ग्वालिन ने आगे सोचाः ʹपत्थर भी तैर सकते हैं, फिर मैं तो मनुष्य हूँ। पानी में पत्थर जितना भार तो मनुष्य का होता भी नहीं।ʹ

ʹजय श्रीरामʹ करके वह तो चल पड़ी नदी में। ऐसी चली ऐसी चली कि जाकर दूसरे किनारे लगी। उसने सोचाः ʹहाय राम ! रोज-रोज इतना पैसा मैं नाव वाले को देती थी ! अब वे पैसे पंडित जी की कथा में चढ़ाऊँगी।ʹ अब वह ग्वालिन नाव के बजाय रोज रामनाम के बल पर नदी पार करके दूध बेचने जाने लगी। नाव के पैसे बचने लगे। आने का पैसा और जाने का पैसा दोनों इकट्ठा करते-करते जब एक महीना बीत गया, तब वह पोटली भरकर पंडित जी के पास गई। पंडित ने कहाः “इतना सारा पैसा !ʹʹ ग्वालिन बोलीः “पंडितजी ! आपके वचन से मुझे लाभ हुआ है।”

पंडित जीः “कैसे वचन ?”

माई बोलीः “पंडित जी ! आपने कथा में कहा था कि राम नाम भवसिंधु तरहिं।

राम नाम से मनुष्य भव-सागर तर जाता है। आपके ये वचन मैंने सुने तब से मैं नाव में नहीं बैठती। रोज पानी पर चलकर नदी पार कर लेती हूँ। नदी में डूबती नहीं हूँ। पानी तो लोगों को दिखता है पर मेरे लिए तो मानो…. बस, क्या कहूँ… महाराज !” इतना कहकर माई गदगद हो गई।

पंडित ने सोचाः ʹअरे ! मेरी कथा से ग्वालिन का रोज आने-जाने का खर्च बच रहा है ! मुझे भी उस गाँव में जाना है।ʹ दो दिन बाद पंडितजी नदी किनारे पहुँच गये।

इतने में माई आयी और जय श्री राम कहकर चल पड़ी। माई को देखकर पंडित के आश्चर्य का ठिकाना न रहा ! उन्होंने अपने दो चार आदमियों को बुलाकर कहाः “देखो राम-नाम में शक्ति तो है। मैं भी राम-नाम लेकर तर तो जाऊँगा लेकिन यदि गड़बड़ हो तो मेरी कमर में तुम रस्सी बाँध दो, अगर डूबने लगूँ तो तुम मुझे खींच लेना।”

पंडित और मसालची दोनों बूझे नाहिं।

औरों को उजाला करे आप अंधेरे माहिं।।

वह माई पंडित के वचन पर श्रद्धा करके बिना नाव के नदी पार कर जाती थी लेकिन पंडित वर्षों से भागवत की कथा करता था पर भगवत्तत्त्व का, रामतत्त्व का ज्ञान नहीं था। उसमें संशय था।

ʹराम-रामʹ कहकर नदी में उतरते ही वह तो डूबने लगा। लोगों ने रस्सी खींचकर उसे बाहर निकाला।

संशय सबको खात है संशय सबका पीर।

संशय की जो फाकी करे वा ना फकीर।।

दूसरा उपायः परमात्मप्राप्ति के लिए दूसरी बात है सत्पुरुषों के सान्निध्य में रहें। जैसा संग वैसा रंग। संग का रंग अवश्य लगता है। यदि सज्जन व्यक्ति भी दुर्जन का अधिक संग करे तो उसे कुसंग का रंग अवश्य लग जायेगा। इसी प्रकार यदि दुर्जन से दुर्जन व्यक्ति भी महापुरुषों का सान्निध्य ले तो देर-सबेर वह भी महापुरुष हो जायेगा। वालिया लुटेरे ने नारदजी का संग किया और महर्षि वाल्मीकि बन गया।

तीसरा उपायः प्रेमपूर्वक नामजप-संकीर्तन करें। तुलसीदासजी कहते हैं-

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।

यदि मंत्र किसी ब्रह्मवेत्ता सदगुरु द्वारा प्राप्त हो और नियमपूर्वक उसका जप किया जाय तो कितना भी दुष्ट अथवा भोगी व्यक्ति हो, उसका जीवन बदल जायेगा। दुष्ट की दुष्टता सज्जनता में बदल जायेगी। भोगी का भोग योग में बदल जायेगा।

चौथा उपायः प्रसन्न चित्त से सुख-दुःख को भगवान का विधान समझें। परिस्थितियों को आने जाने वाली समझकर बीतने दें। घबड़ाये नहीं या आकर्षित न होवें।

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-

समदुःखसुखः क्षमी।

जिनको अपने आत्मा का प्रकाश नहीं है ऐसे मनुष्य सुख में भी स्वस्थ नहीं रहते और दुःख में भी स्वस्थ नहीं रहते। सुख आये तो उसे टिकाये रखना चाहते हैं और दुःख को दूर करना चाहते हैं। इसलिए सुख और दुःख दोनों में अस्वस्थ रहते हैं लेकिन जिनको आत्मा का प्रकाश मिला है वे सुख-दुःख में स्वस्थ रहते हैं। जो स्वस्थ है उसको दुःख भयभीत नहीं कर सकता। जो संपूर्ण स्वस्थ है, वह जहर को भी पचा लेता है। भीम को जहर दिया गया तो उसकी शक्ति और बढ़ गयी।

जो स्वस्थ है उनको संसार में जहर के कड़वे घूँट मिलें तो भी उऩकी योग्यता बढ़ती है और संसार का प्यार मिलें तो भी वे आनंद में रहते हैं। भक्तिमति मीरा को जहर का प्याला मिला फिर भी वे स्वस्थ रहीं तो जहर भी उनके लिए अमृत बन गया और वे ʹमेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई…ʹ कहकर कन्हैया के प्रेम में ही मस्त रही।

प्रसन्नचित्त से सुख-दुःख को भगवान का प्रसाद समझते हुए सम रहना योग है।

मुस्कुराकर गम का जहर, जिनको पीना आ गया।

यह हकीकत है कि जहाँ में उनको जीना आ गया।।

पाँचवाँ उपायः सबको भगवान का अंश मानकर सबके हित की भावना करें। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही हो जाता है इसलिए कभी शत्रु को भी बुरा नहीं सोचना चाहिए बल्कि प्रार्थना करनी चाहिए कि परमात्मा उसे सदबुद्धि दे, सन्मार्ग दिखायें। ऐसी भावना करने से शत्रु की शत्रुता भी मित्रता में बदल सकती है।

छठा उपायः ईश्वर को जानने की उत्कण्ठा जागृत करें। जहाँ चाह वहाँ राह। जिसके हृदय में ईश्वर के लिए चाह होगी, उस रसस्वरूप को जानने की जिज्ञासा होगी, उस आनन्दस्वरूप के आनंद के आस्वादन की तड़प होगी, प्यास होगी वह अवश्य ही परमात्म-प्रेरणा से संतों के द्वार तक पहुँच जायेगा और देर-सबेर परमात्म-साक्षात्कार कर जन्म–मरण से मुक्त हो जायेगा।

सदगुरु की सेवा किये, सबकी सेवा होये।

सदगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय।।

सातवाँ उपायः एकान्त में प्रार्थना और ब्रह्माभ्यास करें। यदि इन सात बातों को जीवन में उतार लें तो अवश्य ही परमात्मा का अनुभव होगा।

यदि आप चाहो कि सब आपको प्यार करें तो आप दूसरों के काम आओ, दूसरे तुम्हें स्नेह करेंगे और भगवान के, गुरु के दैवी कार्य में भागीदार होंगे तो वह भजन हो जायेगा। कुछ पाने की आशा नहीं रखोगे तो मुक्ति मिल जायेगी। रूचिपूर्ति के चक्कर में न पड़कर रूचि की निवृत्ति करना चाहिए। इच्छाओं की पूर्ति में तो बँधन है, इसके लिए अनेक लोगों की गुलामी भी करनी पड़ती है। लेकिन इच्छाओं की निवृत्ति कर, ईश्वर में विश्रांति पाकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने में आप स्वतंत्र हैं। अनुकूलता की लालच  न रखें तो दोनों आपके दास हो जायेंगे और आप सच्चे सुख के स्वामी बन जायेंगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 1997, पृष्ठ संख्या 6,7,20 अंक 56

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