वास्तविक कल्याण का मार्ग

वास्तविक कल्याण का मार्ग


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

2 मई, 1999-नारद जयंती पर विशेष

एक दिन राजा उग्रसेन ने भगवान श्रीकृष्ण से कहाः “जनार्दन ! सब लोग नारदजी के गुणों की प्रशंसा करते हैं। अतः तुम मुझसे उनके गुणों का वर्णन करो।”

सच ही है, जो अपनी प्रशंसा स्वयं नहीं करता, सर्वत्र नारायण के नाम-कीर्तन व गुणगान में ही अनुरक्त रहता है, उसकी प्रशंसा सभी लोकों में विस्तरित हो जाती है तथा भगवान स्वयं उसका गुणगान करते हैं।

वास्तव में गुणहीन पुरुष ही अधिकतर अपनी तारीफ के पुल बाँधा करते हैं। वे अपने में गुणों की कमी देख दूसरे गुणवान पुरुषों के दोष बताकर उन पर आक्षेप किया करते हैं। उनका यह कृत्य निंदनीय साबित होता है। किन्तु जो दूसरों की निंदा व अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा सर्वगुण-संपन्न विद्वान ही यश का भागी होता है।

फूलों की पवित्र एवं मनोहर सुगंध बिना बोले ही महककर अनुभव में आ जाती है तथा सूर्य भी बिना कुछ कहे ही आकाश में सबके समक्ष  प्रकाशित हो जाता है। इसी प्रकार विद्वान पुरुष गुफा में छिपा रहे, आत्मप्रशंसा न करे तो भी उसकी प्रसिद्धि सर्वत्र हो जाती है जबकि मूर्ख मनुष्य अपनी तारीफ की पुलें बाँधता रहता है, फिर भी संसार में उसकी ख्याति नहीं होती। नारदजी मनुष्य, देव, दानव सबको सम्मान रूप से प्रिय हैं। संपूर्ण गुणों से सुशोभित, कार्यकुशल, समय का मूल्य समझने वाले और आत्मतत्त्व के ज्ञाता नारदजी के गुणों की चर्चा भगवान श्री कृष्ण करते हैं-

एक समय गालव मुनि ने कल्याण प्राप्ति की इच्छा से अपने आश्रम पर पधारे हुए ज्ञानानंद से परिपूर्ण व मन को सदा अपने वश में रखने वाले देवर्षि नारद से पूछाः

“भगवन ! आप उत्तम गुणों से युक्त और ज्ञानी हैं। लोकतत्त्व के ज्ञान से शून्य और चिरकाल से निवारण सर्वगुणसम्पन्न आप जैसे ज्ञानी महात्मा ही कर सकते हैं।

शास्त्रों में बहुत से कर्तव्य-कर्म बताये गये हैं। उनमें से जिसके अनुष्ठान से ज्ञान में मेरी प्रवृत्ति हो सकती है, उसका मैं निश्चय नहीं कर पाता हूँ। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप कृपा करके मुझे श्रेय (कल्याण) के वास्तविक मार्ग का उपदेश कीजिये।”

नारदजी कहते हैं- “तात ! जो अच्छी तरह कल्याण करने वाला और संशय से रहित हो, उसे ही ʹश्रेयʹ कहते हैं। पापकर्म से दूर रहना, पुण्यकर्मों का निरन्तर अनुष्ठान करना, सत्पुरुषों के साथ रहकर सदाचार का ठीक-ठाक पालन करना, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति कोमल एवं व्यवहार में सरल होना, मीठी वाणी बोलना, देवताओं, पितरों और अतिथियों को उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करने योग्य व्यक्तियों का त्याग न करना-यह श्रेय का निश्चित साधन है।

सत्य बोलना ही श्रेयस्कर है। मैं तो उसे ही सत्य कहता हूँ, जिससे प्राणियों का अत्यंत हित होता हो।

अकेले रहकर धर्म का पालन, धर्माचरण पूर्वक वेद वेदान्तों का स्वाध्याय तथा उनके सिद्धान्तों को जानने की इच्छा कल्याण का अमोघ साधन है।

जिसे कल्याण-प्राप्ति की इच्छा हो उस मनुष्य को शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-इन विषयों को अधिक सेवन नहीं करना चाहिए।

रात में घूमना, दिन में सोना, आलस्य, चुगली, गर्व, अधिक परिश्रम करना अथवा परिश्रम से बिल्कुल दूर रहना-ये सब बातें श्रेय चाहने वाले के लिए त्याज्य है।

दूसरों की निंदा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अपने में जो विशेषता है, वह उत्तम गुणों द्वारा ही प्रकट होना चाहिए।

मनुष्य को सदा धर्म में लगे रहने वाले साधु-महात्माओं तथा स्वधर्मपरायण उदार पुरुषों के समीप निवास करने का प्रयास करना चाहिए।

किसी कर्म का आरंभ न करने वाला और जो कुछ मिल जाये उसी से संतुष्ट रहने वाला पुरुष भी पुण्यात्माओं के साथ रहने से पुण्य का और पापियों के संसर्ग में रहने से पाप का भागी होता है।

जैसे जल और अग्नि के संसर्ग से क्रमशः शांत और उष्ण स्पर्श का अनुभव होता है, उसी प्रकार पुण्यात्माओं और पापियों के संग से पुण्य एवं पाप दोनों का संयोग हो जाता है।

जो पुरुष अपनी रसना का विषय समझकर स्वादु-अस्वादु का विचार रखते हुए भोजन करते हैं उन्हें कर्मपाश में बँधे हुए समझना चाहिए। रसास्वादन की ओर दृष्टि न रखकर जीवन-निर्वाह के लिए भोजन करना ही श्रेय है।”

निन्दक और पाखण्डियों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए देवर्षि नारदजी ʹमोक्षधर्म पर्वʹ में कहते हैं-

आकाशस्थ ध्रुवं यत्र दोष ब्रुयुर्विपश्चिताम्।

आत्मपूजाभिः कामो वै को वसेत्तत्रः पण्डितः।।43।।

यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रावशो धर्मसेतवः।

प्रदीप्तमिव चैलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत्।।44।।

“जहाँ के लोग बिना किसी आधार के ही विद्वानों पर दोषारोपण करते हों, उस देश में आत्मसम्मान की इच्छा रखने वाला कौन मनुष्य निवास करेगा ?”

जहाँ लालची मनुष्यों ने प्रायः धर्म की मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़े की भाँति उस देश को कौन नहीं त्याग देगा ?”

पापकर्म से जीविकोपार्जन करने वाले लोगों के संग से दूर रहने का उपदेश देते हुए कहते हैं किः

कर्मणा यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः।

त्यवधावेत्ततस्तूर्ण ससर्पाच्छरणादिवं।।47।।

“जहाँ जीवन की रक्षा के लिए लोग पापकर्म से जीविका चलाते हों, सर्पयुक्त घर के समान उस स्थान से तुरंत दूर हट जाना चाहिए।”

अन्त में, पापकर्म से दूर रहने की प्रेरणा देते हुए नारदजी साधकों को सावधान करते हैं किः

येन खटवां समारूढ कर्मणानुशयी भवेत्।

आदि तस्तन्न कर्त्तव्यमिच्छता कुभवमात्मेनः।।48।।

“अपनी उन्नति की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि जिस पापकर्म के संस्कारों से युक्त हुआ मनुष्य खाट पर पड़कर दुःख भोगता है, उस कर्म को पहले से ही न करें।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 1999, पृष्ठ संख्या 5,6 अंक 77

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