तीर्थ में पालने योग्य 12 नियम – पूज्य बापू जी

तीर्थ में पालने योग्य 12 नियम – पूज्य बापू जी


अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।

लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेतत्फलम्।।

ʹहजारों अश्वमेध यज्ञ, सैंकड़ों वाजपेय यज्ञ और लाखों बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो फल होता है, वही फल एक बार कुम्भ स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।ʹ

तीर्थ में 12 नियम अगर कोई पालता है तो उसे तीर्थ का पूरा फायदा होता हैः

हाथों का संयमः गंगा में गोता भी मारा और अनधिकार किसी की वस्तु ले ली या ऐसी-वैसी कोई चीज उठाकर मुँह में डाल ली तो पुण्य प्राप्ति का आनंद नहीं होगा।

पैरों का संयमः कहीं भी चले गये मौज-मजा मारने के लिए…. नहीं, अनिचत जगह पर न जायें।

मन को दूषित विचारों व चिंतन करने से बचाकर भगवच्चिंतन करना।

सत्संग व वेदांत शास्त्र का आश्रय लेनाः ऐसा नहीं कि शरीर में बुखार है और दे मारा गोता। पुण्यलाभ करें और फिर हो गया बुखार या न्यूमोनिया और आदमी मर गया, ऐसा नहीं करना चाहिए। देश काल और शरीर की अवस्था देखनी चाहिए।

तपस्या।

भगवान की कीर्ति, भगवान के गुणों का गान कुम्भ-स्थान पर करना चाहिए।

परिग्रह का त्यागः कोई कुछ चीज दे तो तीर्थ में दान नहीं लेना चाहिए। तीर्थ में दूसरों की सुविधाओं का उपयोग करके अपने ऊपर बोझा न चढ़ायें। दान का खाना, अशुद्ध खाना, प्रसाद में धोखेबाजी करके बार-बार लेना…. अशुद्ध व्यवहार पुण्य क्षीण और हृदय को मलिन करता है। एक तरफ पुण्य कमा रहे हैं, दूसरी तरफ बोझा चढ़ा रहे हैं। यह न करें।

जैसी भी परिस्थिति हो, आत्मसंतोष होना चाहिए। हाय रे ! धक्का-धक्की है, बस नहीं मिली…. ऐसा करके चित्त नहीं बिगाड़ना। ʹहरे-हरे ! वाह ! यार की मौज ! तेरी मर्जी पूरण हो ! – इस प्रकार अपने चित्त को संतुष्ट रखें।

किसी प्रकार के अहंकार को न पोसें- ʹमैं तो तीन बजे उठा था, तो मैं इतने मील पैदल गया और मैंने तो 10 डुबकियाँ लगायीं…ʹ ऐसा अहंकार पुण्य को क्षीण कर देता है। भगवान की कृपा है जो पुण्यकर्म हुआ, उसको छुपाकर रखो।

यह करूँगा, यह भोगूँगा, इधर जाऊँगा, उधर जाऊँगा…ʹ इसका चिंतन न करें। ʹमैं कौन हूँ ? जन्म के पहले मैं कौन था, अभी कौन हूँ और बाद में कौन रहूँगा ? तो मैं वही चैतन्य आत्मा हूँ। मैं जन्म के पहले था, अभी हूँ और बाद में भी रहूँगा।ʹ – इस प्रकार अपने स्वभाव में आने का प्रयत्न करें।

दम्भ, दिखावा न करें।

इन्द्रिय लोलुपता नहीं। कुछ भी खा लिया कि मजा आता है, कहीं भी चले गये… तो मौज-मजा मारने के लिए कुम्भ-स्नान नहीं है। सच्चाई, सत्कर्म और प्रभु स्नेह से तपस्या करके अंतरात्मा का माधुर्य जगाने के लिए और हृदय को प्रसन्नता दिलाने के लिए तथा सत्संग के रहस्य का प्रसाद पाने के लिए कुम्भ-स्नान है।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2013, पृष्ठ संख्या 26, अंक 242

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