गुरु की चाह

गुरु की चाह


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

ऋषि कहते हैं-

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

जो ब्रह्मा की नाईं हमारे हृदय में उच्च संस्कार भरते हैं, विष्णु की नाईं उनका पोषण करते हैं और शिवजी की नाईं हमारे कुसंस्कारों एवं जीवभाव का नाश करते हैं, वे हमारे गुरु हैं। फिर भी ऋषियों को संतोष नहीं हुआ अतः उन्होंने आगे कहाः

गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

ब्रह्मा जी ने तो सृष्टि की रचना की, विष्णु जी ने पालन-पोषण किया और शिवजी संहार करके नई सृष्टि की व्यवस्था करते हैं लेकिन गुरुदेव तो इन सारे चक्करों से छुड़ाने वाले परब्रह्मस्वरूप है, ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।

पुष्पों के इर्द-गिर्द मँडराने से क्या फायदा होता है, किसी भ्रमर से पूछो। जल में क्या मजा आता है, किसी जलचर से पूछो। ऐसे ही संत-महापुरुषों के सान्निध्य से क्या लाभ होता है, यह किसी सत्शिष्य से ही पूछो।

सम्राट के साथ राज्य करना भी बुरा है, न जाने कब रुला दे !

फकीरों के साथ भीख माँगकर रहना भी अच्छा है, न जाने कब मिला दे !

आज दुनिया में जो थोड़ी बहुत रौनक दिख रही है, वह ऐसे सदगुरुओं एवं सत्शिष्यों के कारण ही है। थोड़ा-बहुत जो आनंद है वह ऐसे फकीरों की करुणा का ही प्रसाद है।

आज दुनिया में जो थोड़ी-बहुत रौनक दिख रही है, वह ऐसे सदगुरुओं एवं सत्शिष्यों के कारण ही है। थोड़ा-बहुत जो आनंद है वह ऐसे फकीरों की करुणा का ही प्रसाद है।

भक्त लोग जो हनुमानजी से प्रार्थना करते हैं-

जय जय हनुमान गोसाईं। कृपा करो गुरुदेव की नाईं।।

यह देवता जैसी कृपा करने की याचना नहीं है, गुरुदेव जैसी कृपा करते हैं वैसी कृपा की याचना है। गुरुदेव कैसी कृपा करते हैं ? जीव शिव से एक हो जाये-ऐसी गुरुदेव की निगाहें होती हैं। आनंदस्वरूप गुरुदेव अपने शिष्य को भी उसी आनंद का दान देना चाहते हैं जो आनंद किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा परिस्थिति से आबद्ध नहीं है, जो आनंद कहीं आता-जाता नहीं है।

ऐसे सदगुरुओं के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का जो दिन है-वही है गुरुपूर्णिमा, व्यासपूर्णिमा।

संसारी मित्रों एवं संबंधियों से बहुत मेहनत के बाद भी वह चीज नहीं मिलती जो संतों के द्वारा, महापुरुषों के द्वारा, ब्रह्मवेत्ताओं के द्वारा मिलती है। यदि हम उसका बदला कुछ न कुछ चुकाएँ नहीं तो हम कृतघ्नता के दोष हो जायेंगे। हम कृतघ्नता के दोष से बचें और कुछ न कुछ अभिव्यक्त करें। उनसे जो मिला है उसका बदला तो नहीं चुका सकते हैं फिर भी कुछ न कुछ भाव अभिव्यक्त करते हैं और यह भाव अभिव्यक्त करने का जो दिन है, उसे व्यासपूर्णिमा कहा जाता है।

ऐसा ही कोई दिन था, जब हृदय भावों से भर गया और प्रेम उमड़ पड़ा। गुरुजी के पैर पकड़कर मैंने कहाः “गुरुजी ! मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा दीजिए।”

गुरुजीः “सेवा करेगा ? जो कहूँगा वह करेगा ?”

मैने कहाः “हाँ, गुरुजी ! आज्ञा कीजिए, आज्ञा कीजिये।”

गुरुजीः “जो माँगू वह देगा ?”

मैंने कहाः “हाँ, गुरुजी ! जरूर दूँगा।”

गुरुजी चुप हो गये और मनीराम सोचने लगाः “गुरुजी क्या माँगेंगे क्या पता ? गुरुजी समाज की सेवा के लिए, आश्रम के लिए दो-तीन लाख रूपये माँगेंगे तो वह तो मेरे बड़े भाई के हाथ में है। यदि भाई नहीं देगा तो मैं भाई से कह दूँगा कि, हमारी सम्पत्ति का आधा-आधा हिस्सा कर लें। फिर मेरे हिस्से के रूपये गुरु जी को दे दूँगा।

यह सोच ही रहा था कि इतने में गुरुजी ने कहाः “जो माँगूँ वह देगा ?” मैंने कहाः “हाँ, गुरुजी !”

गुरुजीः तू आत्मज्ञान पाकर मुक्त हो जा और दूसरों को भी मुक्त करते रहना। इतना ही दे।

सदगुरु की कितनी महिमावंत दृष्टि होती है ! हम लोगों का मन होता है कि ʹगुरुजी शायद यह न माँग लें….ʹ अरे, यदि सब कुछ देने के बाद भी अगर सदगुरु-तत्त्व हजम होता है तो सौदा सस्ता है। न जाने कितनी बार किन किन चीजों के लिए हमारा सिर चला गया ! एक बार और सही। ….और वे सदगुरु यह पंचभौतिक सिर नहीं लेते, वे तो हमारी मान्यताओं का, कल्पनाओं का सिर ही लेते हैं ताकि हम भी परमात्मा के दिव्य आनंद का, प्रेम का, माधुर्य का अनुभव कर सकें।

गुरु जी ने नाम रखा है-आसाराम। हम आपकी हजार-हजार अँगड़ाईयाँ इसी आस से मानते आये हैं, हजार-हजार अँगड़ाईयाँ इसी आस से सह रहे हैं कि आप भी कभी न कभी हमारी बात मान लो। ….और मेरी बात यही है कि तत्त्वमसि। तुम वही हो। सदैव रहने वाला तो एक चैतन्य आत्मा ही है। वही तुम्हारा अपना आपा है, उसी में जाग जाओ। मेरी यह बात मानने के लिए तुम भी राजी हो जाओ।

बाहर से देखो तो लगेगा किः ʹआहाहा…. बापू जी को कितनी मौज है ! कितनी फूल मालाएँ ! हजारों लोगों के सिर झुक रहे हैं…. हजारों-हजारों मिठाईयाँ आ रही हैं…. बाप जी को तो मौज होगी !ʹ

ना ना… इन चीजों के लिए हम बाप जी के नहीं हुए हैं। इन चीजों के लिए हम हिमालय का एकांत छोड़कर  बस्ती में नहीं आये हैं। फिर भी तुम्हारा दिल रखने के लिए…. तुमको जो आनंद हुआ है, तुम्हें जो लाभ हुआ है, उसकी अभिव्यक्ति तुम करते हो, जो कुछ तुम देते हो वह देते-देते तुम अपना ʹअहंʹ भी दे डालो, इस आशा से हम तुम्हारे फल-फूल आदि स्वीकार करते हैं।

तुम गुरुद्वार पर आते हो तो गुरु की बात भी तो माननी पड़ेगी। गुरुद्वार की बात यही है कि तुम्हारी पद-प्रतिष्ठा हमको दे दो, तुम्हारी जो जात-पाँत है वह दे दो, तुम फलाने नाम के भाई या माई हो वह दे दो और मेरे गुरुदेव का प्रसाद ʹब्रह्मभावʹ तुम ले लो। फिर देखो, तुम विश्वनियंता के साथ एकाकार होते हो कि नहीं।

सारे ब्रह्माण्ड को जो नाच नचा रहा है उसके साथ मिलकर सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी अपने परमात्मा को पा लो, इसीलिए लेना-देना होता है। तुम कुछ-कुछ देते हो लेकिन मैं चाहता हूँ कि ये कुछ-कुछ लेने देने के सौदे में शायद कोई असली सौदा भी हो जाय ! ૐ…ૐ….ૐ…..

तुम्हारा यह सब स्वीकार कर रहे हैं तो तुमसे प्रार्थना है कि यदि मेरे गुरुदेव का प्रसाद लेने की तुम्हारी तैयारी न हो तो इऩ चीजों को लेकर मत आना। तुम्हें भी परिश्रम होता है, हमें भी परिश्रम होता है और सँभालने वाले को भी परिश्रम होता है। यह परिश्रम हम तभी सहने को राजी हैं जब हमारे गुरुदेव का प्रसाद हजम करने की तुम्हारी तैयारी हो।

जिसको सच्ची प्यास होती है वह प्याऊ खोज ही लेता है। फिर उसके हिन्दू-मुसलमान, ईसाई-पारसी, वाद-संप्रदाय नहीं बचता है। प्यासे को पानी चाहिए। ऐसे ही यदि तुम्हें परमात्मा की प्यास है और तुम जिस मजहब, मत-पंथ में हो, उसमें यदि प्यास नहीं बुझती है तो उस मत-पंथ के बाड़े तोड़कर किसी फकीर तक  पहुँच जाओ। शर्त यही है कि प्यास ईमानदारीपूर्ण होनी चाहिए, ईमानदारी पूर्ण पुकार होनी चाहिए।

तुम्हें जितनी प्यास होगी, काम उतना जल्दी होगा। यदि प्यास नहीं होगी तो प्यास जगाने के लिए संतों को परिश्रण करना पड़ेगा और संतों का परिश्रम तुम्हारी प्यास जगाने में हो, उसकी अपेक्षा जगी हुई प्यास को तृप्ति प्रदान करने में हो तो काम जल्दी होगा। इसीलिए तुम अपने भीतर झाँक-झाँककर अपनी प्यास जगाओ ताकि वे ज्ञानामृत पिलाने का काम जल्दी से शुरु कर दें। अब वक्त बीता जा रहा है। न जाने कब, कहाँ, कौन चल दे ? कोई पता नहीं।

तुमको शायद लगता होगा कि तुम्हारी उम्र अभी दस साल और शेष हैं। लेकिन मुझे पता नहीं कि कल का दिन मैं जीऊँगा कि नहीं। मुझे इस देह का भरोसा नहीं है। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि इस देह के द्वारा गुरु का कार्य जितना हो जाय, अच्छा है। गुरु का प्रसाद जो कुछ बँट जाय, अच्छा है और मैं बाँटने को तत्पर भी होता हूँ। रात्रि को साढ़े बारह-एक बजे तक आप लोगों के बीच होता हूँ। सुबह तीन-चार बजे भी बाहर निकलता हूँ, घूमता हूँ। तुम सोचते होगे कि ʹबापू थक गये हैं।ʹ ना, मैं नहीं थकता हूँ। मैं देखता हूँ कि तुम्हारे अंदर कुछ जगमगा रहा है। उसको देखकर ही मेरी थकान उतर जाती है। मैं निहारता हूँ कि तुम्हारे अंदर कोई ईश्वरीय नूर झलक रहा है, तो मेरी थकान उतर जाती है। फिर भी कहीं थकान आती है तो खिड़की बंद करके पानी पीकर आत्मा में गोता मार लेता हूँ। फिर तुमको श्रद्धा और तत्परता से युक्त पाता हूँ तो मैं ताजा हो जाता हूँ। सुबह सात बजे से रात्रि के बारह एक बजे तक तुम्हारे बीच होता हूँ और ताजे का ताजा दिखता हूँ… केवल इसी आशा से कि ताजे में ताजा जो परमात्मा है, जिसको कभी थकान नहीं लगती है, उस चैतन्यस्वरूप आत्मा में शायद तुम भी जाग जाओ….

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 3-6, अंक 79

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