पूज्यपाद संत श्री आशाराम जी बापू
कलियुगे के आदमी का जीवन कोल्हू के बैल जैसा है। उसके जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है। किसी ने कलियुग के मानव की दशा पर कहा हैः
पैसा मेरा परमेश्वर और पत्नी मेरी गुरु।
लड़के-बच्चे शालिग्राम अब पूजा किसकी करूँ।।
लोग इतने अल्प मति के हो गये हैं कि जिधर का झोंका आया उधर मुड़ जाते हैं। अपनी इष्ट की, गुरु की पूजा कभी नहीं करते हैं, उपासना नहीं करते हैं, पर किसी ने लिख दिया किः
ʹजय संतोषी माँ…. यह पत्र पढ़कर, ऐसे और पत्र आप लिखोगे तो आपका कल्याण होगा। अगर इसका अनादर करोगे तो आपका बहुत बुरा होगा….ʹ तो आदमी भयभीत हो जाते हैं और पत्र लिखने लग जाते हैं। संतोषी माँ की पूजा भी करने लग जाते हैं, पाठ भी करने लग जाते हैं
वेदव्यासजी ने अपनी दीर्घदृष्टि से यह जान लिया था कि कलियुग के आदमी में इतनी समता, इतनी शक्ति न होगी कि वह घर-बार छोड़कर ऋषियों के द्वार पर जाए और सेवा-सुश्रुषा करके हृदय शुद्ध कर सके….. ऋषियों के पास जाकर नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके आत्मज्ञान, आत्मशांति के विषय में प्रश्न पूछे। इसलिए उऩ्होंने कृपा करके श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने के साथ साथ तत्त्वज्ञान की, आत्मज्ञान की बातें भी जोड़ दीं। ग्वालों के साथ गाय चराईं, मक्खन चुराया, गोपियों के चीर हरण किये, कभी तो बंसी बजाई, कभी धेनकासुर-बकासुर को यमसदन पहुँचाया। ऐसी बातों से हास्यरस, श्रृंगाररस, विरहरस, वीररस जैसे रस भरकर रसीला ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ बनाया। इस ग्रंथ की रचना करके वेदव्यास जी ने जगत पर बड़ा उपकार किया है।
ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना के पहले वेदव्यास जी ने कई ग्रन्थों की रचना की थी, पुराणों का संकलन किया था, पर उनके मन में कुछ अभाव खटकता रहता था।
एक बार नारदजी पधारे, तब वेदव्यासजी ने अपनी मनोव्यथा सुनाई। उन्होंने कहाः “देवर्षि ! मैंने पुराण लिखे, ब्रह्मसूत्र की रचना की, कई भाष्य लिखे, उपनिषदों का विवरण लिखा, लेकिन अभी भी मुझे लगता है कि मेरा कार्य अभी पूरा नहीं हुआ है। कुछ अधूरा रह गया है, कुछ छूट गया है। मुझे आत्मसंतोष नहीं मिल रहा है।”
नारदजी ने कहाः “तुम्हारा कहना ठीक ही है, तुम्हारा कार्य सचमुच में अधूरा है। ये ʹब्रह्मसूत्रʹ उपनिषद सब लोग समझ नहीं पायेंगे। जिनके पास विवेक-वैराग्य तीव्र होगा, मोक्ष की तीव्र इच्छा होगी उनके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ जरूरी है। जैसे, किसी आदमी का गला पकड़कर पानी में डुबा दें और वह बाहर निकलने के सिवाये और कुछ नहीं चाहता-ऐसी जिसमें ईश्वर प्राप्ति की इच्छा हो, उसके लिए ʹब्रह्मसूत्रʹ अच्छा है। लेकिन जिन लोगों में परमात्म प्राप्ति की तड़प नहीं है, जो संसार में रचे पचे हैं और जो संसार को सत्य मानते हैं, संसार को ही सार मानते हैं, देह में जिनकी आत्मबुद्धि है, जगत में सत्यबुद्धि है और परमात्म-प्राप्ति के लिए जिनके पास समय नहीं है-ऐसे लोगों में ब्रह्मसूत्र और उपनिषद पढ़ने की रूचि नहीं होगी। कदाचित् वे पढ़ेंगे तो समझ भी नहीं पायेंगे। विवेक-वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मोक्ष की इच्छा-इन चार साधनों से युक्त आदमी वेदान्त को सुनेगा, ब्रह्मसूत्र सुनेगा तो उसे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा। लेकिन जो साधन-चतुष्टय से सम्पन्न नहीं होगा, वह कितना भी सुनेगा, उस पर असर नहीं होगा। जगत में प्रायः ऐसे लोग ही ज्यादा होते हैं। आपने उन लोगों के उत्थान के लिए क्या उपाय किया है ?
ईश्वर को पाने की तड़पवाला तो कोई विरला ही होगा, बाकी लोग तो यूँ ही अपना समय गँवा देते हैं। आप कोई ऐसे ग्रंथ की रचना कीजिये जिसमें वीरों के लिए वीररस भी हो, विनोद चाहने वालों के लिए हास्यरस भी मिले, भक्तिमार्गवालों के लिए भक्तिरस भी मिले, जो सँसार में प्रेम रखते हैं उनको कुछ प्रेम की बातें मिल जायें और साथ में तत्त्व का चिंतन भी हो। सब प्रकार के लोगों की मनोदशा का विचार करके ऐसा ग्रंथ बनाया जाये जो सब प्रकार के रसों में सराबोर करते हुए तत्त्वज्ञान का रास्ता दिखाकर परमात्मरस तक पहुँचा सके।”
नारदजी की बात व्यासजी को सौ प्रतिशत जँची। व्यासजी ने समाधि में बैठकर श्लोकों की रचना की। भागवत में तीन सौ पैंतीस अध्याय और अठारह हजार श्लोक हैं। ऐसा नहीं कि वेदव्यासजी श्रीकृष्ण के पीछे लेखनी लेकर घूमे और ग्रंथ की रचना की। समाधि में बैठने पर उन्हें युग-युगान्तर में, कल्प-कल्पान्तर में श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आदि जो जो दिखा उसे लिखने के लिए उन्होंने गणपति जी का आवाहन किया। वेदव्यासजी श्लोक बोलते गये और गणपति जी लिखते गये। गणपति जी तो ऋद्धि सिद्धि के दाता हैं। उन्होंने श्लोक लिखने में मदद की और इस तरह ʹश्रीमद् भागवतʹ का ग्रंथ तैयार हो गया।
वेदव्यासजी ने वृद्धावस्था में ʹश्रीमद् भागवतʹ की रचना की थी। उऩ्हें लगा कि वे खुद इसका प्रचार नहीं कर पायेंगे इसलिए उऩ्हें चिन्ता हुई किः ʹयह शास्त्र मैं किसको दूँ ?ʹ आखिर उऩ्होंने शुकदेवजी को पसंद किया। शुकदेव जी जन्म से ही विरक्त थे, निर्विकार थे। जन्म से ही उन्हें संसार के विषयों में राग नहीं था। वेदव्यास जी ने यह ग्रंथ शुकदेव जी को पढ़ाया और उन्हीं के द्वारा इस ग्रंथ का प्रचार हुआ।
शुकदेवजी ने इस पवित्र ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ की कथा परिक्षित को सुनाई। शुकदेवजी उत्तम वक्ता थे और परीक्षित उत्तम श्रोता थे।
इस कथा के प्रारम्भ में आता है कि भक्तिरूपी स्त्री रो रही हैः “मेरे ज्ञान और वैराग्यरूपी दो पुत्र अकाल वृद्ध हो गये हैं और मूर्च्छित होकर पड़े हैं।”
जवान माँ के बेटे अकाल वृद्ध होकर मृतप्रायः हो रहे हैं – यह कुछ मर्म की बात है।
कलियुग के आदमी के पास भक्ति तो होगी परन्तु ज्ञान और वैराग्य बेटे अगर मूर्च्छित होंगे तो भक्ति रोती रहेगी। भक्ति को स्त्री का रूप देकर और ज्ञान-वैराग्य को बेटों का रूप देकर ऐसी कथा बनाकर लोगों को जगाने का प्रयास जिन्होंने किया है, उन वेदव्यासजी की दृष्टि कितनी ऊँची होगी ! कितनी विशाल होगी !
आज तो कोई भागवत की कथा करवाते हैं तो उसका फल ऐहिक ही चाहते हैं और इसकी कथा करने वाला भी अगर लोभी होगा तो कथा के द्वारा भी धन पाना चाहेगा। ʹआज तो श्रीकृष्ण का जन्म है… चाँदी का पालना ले आओ… आज तो श्रीकृष्ण की शादी है….. रुक्मणि के लिए गहने लाओ….ʹ ऐसा कहकर कथाकार धन कमाना चाहेगा। इसलिए वेदव्यासजी ने ʹभक्तिरूपी स्त्री के ज्ञान-वैराग्य दो बेटे मूर्च्छित हैं…ʹ ऐसा उदाहरण देकर लोगों को समझाया है कि ज्ञानसहित, वैराग्यसहित दृढ़ भक्ति करोगे तो शीघ्र ही कल्याण होगा।
इस ग्रंथ के और भी कई नाम हैं। एक नाम है ʹभागवत महापुराणʹ शेष 17 पुराणों को पुराण कहते हैं लेकिन इस भागवत को महापुराण कहा जाता है क्योंकि इसमें जगह-जगह पर उस महान तत्त्व का चिन्तन और ज्ञान की बातें विशेष मिलती हैं। दूसरा नाम है ʹपरमहंस संहिताʹ। शुकदेव जी जैसे आत्मानंद में मस्त रहने वाले व्यक्ति को भी भागवत के श्लोक और भागवत के आधाररूप मुख्य पात्र श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन बड़ा आनंदमयी लगता है। इसका एक और नाम है ʹकल्पद्रुमʹ। जो मनोकामना रखकर श्रवण-मनन करोगे तो वह तुम्हारी मनोकामना देर-सबेर पूरी होगी ही। ऐसे ग्रंथ ʹश्रीमद् भागवतʹ में श्रीकृष्ण की लीलाओं के साथ तत्त्वज्ञान की बातें इस ढंग से लिखी गई हैं कि पढ़ने वाले और सुनने वाला इसमें सराबोर हो जाता है और आनंद को पा लेता है।
कई पुण्यशाली लोग अनेक प्रसंगों पर ʹभागवतʹ की कथा का आयोजन करते हैं। जहाँ भी ʹभागवत सप्ताहʹ होता है, ʹभागवतʹ की कथा होती है वहाँ कथा के चौथे दिन श्रीकृष्ण का जन्म मनाया जाता है। ऐसा नहीं है कि श्रीकृष्ण का जन्म बारह महीने में एक बार ही मनाते हैं। जब-जब, जहाँ-जहाँ ʹभागवत कथाʹ होती है तब-तब श्रीकृष्ण का जन्म मनाते हैं। सुबह को भी मनाते हैं, शाम को भी मनाते हैं, अमावस्या को भी मनाते हैं, पूनम को भी मनाते हैं। वैसे तो ऐतिहासिक ढंग से लोग भादों (गुजरात-महाराष्ट आदि के अनुसार श्रावण) मास की कृष्ण-अष्टमी की रात को बारह बजे श्रीकृष्ण-जन्म मनाते हैं, पर भक्त लोग तो जब अनुकूलता हुई, जब मौका मिला कि श्रीकृष्ण-जन्म मनाने को उत्सुक रहते हैं। जब पुण्य जोर पकड़ते हैं, जब हृदय से ʹमेरे-तेरेʹ का भाव मिट जाता है, तब हृदय में आनंदरूपी श्रीकृष्ण प्रकट हो जाते हैं। हृदय में कृष्णतत्त्व का आनंद छलकने लगता है।
आपकी मति सुसंस्कृत हो जाये, आत्मज्ञान के रंग से रंग जाये, आपकी मति आत्मदेव के कृष्णतत्त्व के प्रकाश से प्रकाशित हो जाये-इसके लिए जिन ग्रन्थकारों ने, आत्मवेत्ता महापुरुषों ने, वेदव्यासजी जैसे नामी-अनामी ऋषियों ने, महर्षियों ने अपना सर्वस्व लुटा दिया, आपको जगाने के लिए ही अपने जीवन का हर क्षण गुजार दिया उन महापवित्र आत्माओं के चरणों में हमारे हजारों-हजारों प्रणाम हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 25-28, अंक 79
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