सत्शिष्य के लक्षण

सत्शिष्य के लक्षण


पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू

सत्शिष्य के लक्षण बताते हुए कहा है किः

अमानमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढ़सौहृदः।

असत्वरोर्थजिज्ञासुः अनसूयुः अमोघवाक्।।

ʹसत्शिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममतारहित, गुरु में दृढ़ प्रीति करने वाला, निश्चल चित्त वाला, परमार्थ का जिज्ञासु और ईर्ष्यारहित एवं सत्यवादी होता है।ʹ

इस प्रकार के नवगुणों से जो सुसज्जित होता है ऐसा सत्शिष्य सदगुरु के थोड़े से उपदेश मात्र से आत्म-साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त पद में आरूढ़ हो जाता है।

ऐसे पद को पाये हुए ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य साधक के लिए नितांत आवश्यक। साधक को ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य मिल भी जाये, लेकिन उसमें यदि इन नवगुणों का अभाव है तो उसे ऐहिक लाभ जरूर होता है, किन्तु आत्म-साक्षात्कार के लाभ से वह वंचित रह जाता है।

अमानित्व, ईर्ष्या का अभाव तथा मत्सर का अभाव-इन सदगुणों के समावेश से साधक तमाम दोषों से बच जाता है एवं साधक का तन और मन आत्म-विश्रांति पाने के काबिल हो जाता है।

सत्शिष्यों का यह स्वभाव होता हैः वे आप अमानी रहते हैं और दूसरों को मान देते हैं। जैसे भगवान राम स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान देते थे।

साधक को क्या करना चाहिए ? वह अपनी बराबरी के लोगों को देखकर न ईर्ष्या करे, न अपने से छोटों को देखकर अहंकार करे और न ही अपने से बड़ों के सामने कुंठित हो, वरन् सबको गुरु का कृपापात्र समझकर, सबसे आदरपूर्ण व्यवहार करे, प्रेमपूर्ण व्यवहार करे। ऐसा करने से साधक धीरे-धीरे मान, मत्सर एवं ईर्ष्यारहित होने लगता है। खुद को मान मिले ऐसी इच्छा रखने पर मान नहीं मिलता है तो सुखाभास होता है एवं नश्वर मान की इच्छा और बढ़ती है। इस प्रकार मान की इच्छा मनुष्य को गुलाम बनाती है जबकि मान की इच्छा से रहित होने से मनुष्य स्वतंत्र बनता है। इसलिए साधक को हमेशा मानरहित बनने की कोशिश करनी चाहिए। जैसे मछली जाल में फँसती है तो छटपटाती है, ऐसे ही जब साधक प्रशंसकों के बीच में आये तब उसका मन छटपटाना चाहिए। जैसे, लुटेरों के बीच आ जाने पर सज्जन आदमी जल्दी से वहाँ से खिसकने की कोशिश करता है ऐसे ही साधक की प्रशंसकों, प्रलोभनों एवं विषयों से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

जो तमोगुणी व्यक्ति होता है वह चाहता है कि ʹमुझे सब मान दें और मेरे पैरों तले सारी दुनिया रहे।ʹ जो रजोगुणी व्यक्ति होता है वह कहता है कि ʹहम दूसरों को मान देंगे तो वे भी हमें मान देंगे।ʹ ये दोनों प्रकार के लोग प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से कोशिश करते हैं अपना मान बढ़ाने की ही। मान पाने के लिए वे संबंधों के तंतु जोड़ते ही रहते हैं और इससे इतना बहिर्मुख हो जाते हैं कि जिससे संबंध जोड़ना चाहिए उस अंतर्यामी परमेश्वर के लिए उनको फुरसत ही नहीं मिलती और आखिर में अपमानित होकर जगत से चले जाते हैं। ऐसा न हो इसलिए साधक को हमेशा याद रखना चाहिए कि चाहे कितना भी मान मिल जाये लेकिन मिलता तो है इस नश्वर शरीर को ही और शरीर को अंत में जलाना ही है तो फिर उसके लिए क्यों परेशान होना ?

संतों ने ठीक ही कहा हैः

मान पुड़ी है जहर की, खाये सो मर जाये।

चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख पाये।।

एक बार बुद्ध के चरणों में एक अपरिचित युवक आ गिरा और दंडवत प्रणाम करने लगा।

बुद्धः “अरे, अरे, यह क्या कर रहे हो ? तुम क्या चाहते हो ? मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं।”

युवकः “भन्ते ! खड़े रहकर तो बहुत देख चुका। आज तक अपने पैरों पर खड़ा होता रहा इसलिए अहंकार भी साथ में खड़ा ही रहा और सिवाय दुःख के कुछ नहीं मिला। अतः आज मैं आपके श्रीचरणों में लेटकर विश्रांति पाना चाहता हूँ।”

अपने भिक्षुकों की ओर देखकर बुद्ध बोलेः “तुम सब रोज मुझे गुरु मानकर प्रणाम करते हो लेकिन कोई अपना अहं न मिटा पाया और यह अनजान युवक आज पहली बार में ही एक संत-फकीर के नाते मेरे सामने झुकते-झुकते अपने अहं को मिटाते हुए, बाहर की आकृति का अवलंबन करते हुए अंदर निराकार की शांति में डूब रहा है।”

इस घटना का यही आशय समझना है कि सच्चे संतों की शरण में जाकर साधक को अपना अहंकार विसर्जित कर देना चाहिए। ऐसा नहीं कि रास्ते जाते जहाँ-तहाँ आप लम्बे लेट जाएँ।

अमानमत्सरो दक्षो…..

साधक को चाहिए कि वह अपने कार्य में दक्ष हो। अपना कार्य क्या है ? अपना कार्य है कि प्रकृति के गुण-दोष से बचकर आत्मा में जगना और इस कार्य में दक्ष रहना  अर्थात् डटे रहना, लगे रहना। उस निमित्त जो भी सेवाकार्य करना पड़े उसमें दक्ष रहो। लापरवाही, उपेक्षा या बेवकूफी से कार्य से विफल नहीं होना चाहिए, दक्ष रहना चाहिए। जैसे, ग्राहक कितना भी दाम म करवाने को कहे, फिर भी लोभी व्यापारी दलील करते हुए अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश करता है, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में अपने चित्त को चलित करने के लिए कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ जायें, फिर भी साधक को अपने परम लक्ष्य में डटे रहना चाहिए। सुख आये या दुःख, मान हो या अपमान, सबको देखते जाओ…. मन के विचारों को, प्राणों की गति को देखने की कला में दक्ष हो जाओ।

नौकरी कर रहे हो तो उसमें पूरे उत्साह से लग जाओ, विद्यार्थी हो तो उमंग के साथ पढ़ो, लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में होनी चाहिए। साधक को सदैव आत्मज्ञान की ओर आगे बढ़ना चाहिए। कार्यों को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि आत्मचिंतन का समय ही न मिले। संबंधों को इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि, जिससे संबंध जोड़े जाते हैं उसी का पता न चले।

एकनाथ जी महाराज ने कहा है कि रात्रि के पहले प्रहर और आखिरी प्रहर में आत्म चिंतन करना चाहिए। कार्य के प्रारम्भ में और अंत में आत्मविचार करना चाहिए। दक्ष वह है जो जीवन में इच्छा उठे और पूरी हो जाये तब अपने आप से ही प्रश्न करे किः “आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिलता है ?” ऐसा करने से इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होने वाले दक्ष महापुरुष की नाई निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा।

अगला सदगुण है ममतारहित होना। देह में अहंता और देह के संबंधियों में ममता होती है। जो मनुष्य अपने संबंधों के पीछे जितनी ममता रखता है, उतना ही उसके परिवार वाले उसको दुःख के दिन दिखा देते हैं। अतः साधक को देह एवं देह के संबंधों से ममतारहित बनना चाहिए।

आगे बात आती है-गुरु में दृढ़ प्रीति करने की। मनुष्य क्या करता है ? वास्तविक प्रेमरस को समझे बिना संसार के नश्वर पदार्थों में प्रेम का रस चखने जाता हूँ और अंत में हताशा, निराशा एवं पश्चाताप की खाई में गिर पड़ता है। इतने से भी छुटकारा नहीं मिलता। चौरासी लाख जन्मों की यातनाएँ सहने के लिए उसे बाध्य होना पड़ता है। शुद्ध प्रेम तो उसे कहते हैं जो भगवान और गुरु से किया जाता है। उनमें दृढ़ प्रीति करने वाला साधक आध्यात्मिकता के शिखर पर शीघ्र ही पहुँच जाता है। जितना अधिक प्रेम, उतना अधिक समर्पण और जितना अधिक समर्पण, उतना ही अधिक लाभ।

कबीर जी ने कहा हैः

प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।

राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाय।।

शरीर की आसक्ति और अहंता जितनी मिट जाती है, उतना ही स्वभाव प्रेमपूर्ण बनता जाता है। इसीलिए छोटा-सा बच्चा, जो निर्दोष होता है, हमें बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसमें देहासक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता एवं आसक्ति छोड़कर गुरु में, प्रभु में दृढ़ प्रीति करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। ʹविचारसागरʹ ग्रन्थ में भी आता है कि “गुरु में दृढ़ प्रीति करने से मन का मैल तो दूर होता ही है, साथ ही उनका उपदेश भी शीघ्र असर करने लगता है, जिससे मनुष्य की अविद्या और अज्ञान भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।”

इस प्रकार गुरु में जितनी-जितनी निष्ठा बढ़ती जाती है, जितना-जितना सत्संग पचता जाता है उतना-उतना ही चित्त निर्मल व निश्चिंत होता जाता है।

इस प्रकार परमार्थ पाने की जिज्ञासा बढ़ती जाती है, जीवन में पवित्रता, सात्त्विकता, सच्चाई आदि गुण प्रगट होते जाते हैं और साधक ईर्ष्यारहित हो जाता है।

जिस साधक का जीवन  सत्य से युक्त, मान, मत्सर, ममता एवं ईर्ष्या से रहित होता है, जो गुरु में दृढ़ प्रीति वाला, कार्य में दक्ष एवं निश्चलचित्त होता है, परमार्थ का जिज्ञासु होता है – ऐसा नव गुणों से सुसज्ज साधक शीघ्र ही गुरुकृपा का अधिकारी होकर जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनंद का अनुभव कर लेता है अर्थात् परमात्म-साक्षात्कार कर लेता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 1999, पृष्ठ संख्या 6-9, अंक 79

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