संतों का संग अमोघ होता है

संतों का संग अमोघ होता है


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

जब-जब हम ईश्वर एवं गुरु की ओर खिंचते हैं, आकर्षित होते हैं तब-तब मानों कोई-न-कोई सत्कर्म हमारा साथ देते हैं और जब-जब हम दुष्कर्मों की ओर धकेले जाते हैं तब-तब मानों हमारे इस जन्म अथवा पुनर्जन्म के दूषित संस्कार अपना प्रभाव छोड़ते हैं। अब देखना यह है कि हम किसकी ओर जाते हैं ? हम पाप की ओर झुकते हैं कि पुण्य की ओर ? संत की ओर झुकते हैं कि असंत की ओर ? जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक संग का रंग लगता रहता है। संग के प्रभाव से साधु असाधु बन जाता है एवं असाधु भी साधु हो जाता है।

किया हुआ भगवान का स्मरण कभी व्यर्थ नहीं जाता। किया हुआ ध्यान-भजन, किये हुए पुण्यकर्म हमें सत्कर्मों की ओर ले जाते हैं। इसी प्रकार किये हुए पापकर्म, हमारे अंदर के अनंत जन्मों के पाप-संस्कार हमें इस जन्म में दुष्कृत्य की ओर ले जाते हैं। फिर भी वे ईश्वर हमें कभी-न-कभी जगा देते हैं जिसके फलस्वरूप पाप के बाद हमें पश्चाताप होता है और वैराग्य आता है। उसी समय यदि हमें कोई सच्चे संत मिल जायें, किन्हीं सदगुरु का सान्निध्य मिल जाय तो फिर हो जाये बेड़ा पार।

स्वार्थ, अभिमान एवं वासना के कारण हमसे पाप तो खूब हो जाते हैं लेकिन संतों का संग हमें पकड़-पकड़कर, पाप में से खींचकर भगवान के ध्यान में ले जाता है। हजार-हजार असंतों का संग होता है, हजार-हजार झूठ बोलते हैं फिर भी एक बार का सत्संग दूसरी बार और दूसरी बार का सत्संग तीसरी बार सत्संग करा देता है। ऐसा करते-करते संतों का संग करने वाले एक दिन स्वयं संत के ईश्वरीय अनुभव को अपना अनुभव बना लेने में सफल हो जाते हैं।

…तो मानना पड़ेगा कि किया हुआ संग चाहे पुण्य का संग हो या पाप का, असंत का संग हो या संत का, उसका प्रभाव जरूर पड़ता है। फर्क केवल इतना होता है कि संत का संग गहरा असर करता है, अमोघ होता है जबकि असंत का संग छिछला असर करता है। पापियों के संग का रंग जल्दी लग जाता है लेकिन उसका असर गहरा नहीं होता है, जबकि संतों के संग का रंग जल्दी नहीं लगता और जब लगता है तो उसका असर गहरा होता है। पापी व्यक्ति इन्द्रियों में जीता है, भोगों में जीता है, उसके जीवन में कोई गहराई नहीं होती इसलिए उसके संग का रंग गहरा नहीं लगता। संत जीते हैं सूक्ष्म से सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में और जो चीज जितनी सूक्ष्म होती है उसका असर उतना ही गहरा होता है। जैसे, पानी यदि जमीन पर गिरता है तो जमीन के अंदर चला जाता है क्योंकि जमीन की अपेक्षा वह सूक्ष्म होता है। वही पानी जमीन में गर्मी पाकर वाष्पीभूत हो जाये, फिर चाहे जमीन के ऊपर आर.सी.सी. बिछा दो तो भी पानी उसे लाँघकर उड़ जायेगा। ऐसे ही सत्संग व्यर्थ नहीं जाता क्योंकि संत अत्यंत सूक्ष्म परमात्मतत्त्व में जगे हुए होते हैं। हमारे घर की पहुँच हमारे गाँव तक होती है, गाँव की पहुँच राज्य तक होती है, राज्य की पहुँच राष्ट्र तक, राष्ट्र की पहुँच दूसरे राष्ट्र तक होती है किन्तु संतों की पहुँच… इस पृथ्वी को तो छोड़ो, ऐसी कई पृथ्वियों, कई सूर्य एवं उसके भी आगे अत्यन्त सूक्ष्म जो परमात्मा है, जो इन्द्रियातीत, लोकातीत, कालातीत है, जहाँ वाणी जा नहीं सकती, जहाँ से मन लौट आता है उस परमात्मपद, अविनाशी आत्म तक होती है। यदि हमें उनके संग का रंग लग जाये तो फिर हम किसी भी लोक-लोकान्तर में, देश-देशान्तर में हों या इस मृत्युलोक में हों, सत्संग के संस्कार हमें उन्नति की राह पर ले ही जायेंगे।

अपनी करनी से ही हम संतों के नजदीक या उनसे दूर चले जाते हैं। हमारे कुछ निष्कामता के, सेवाभाव के कर्म होते हैं तो हम भगवान और संतों के करीब जाते हैं। संत-महापुरुष हमें बाहर से कुछ न देते हुए दिखें किन्तु उनके सान्निध्य से हृदय में जो सुख मिलता है, जो शांति मिलती है, जो आनंद मिलता है, जो निर्भयता आती है वह सुख, वह शांति, वह आनंद विषयभोगों में कहाँ ?

एक युवक एक महान संत के पास जाता था। कुछ समय बाद उसकी शादी हो गई, बच्चे हुए। फिर वह बहुत सारे पाप करने लगा। एक दिन वह रोता हुआ अपने गुरु के पास आया और बोलाः “बाबाजी ! मेरे पास सब कुछ है-पुत्र है, पुत्री है, पत्नी है, धन है लेकिन मैं अशांत हो गया हूँ। शादी के पहले जब आता था तो जो आनंद व मस्ती रहती थी, वह अब नहीं है। लोगों की नजरों में तो लक्षाधिपति हो गया लेकिन बहुत बेचैनी रहती है बाबाजी !”

बाबाजीः “बेटा ! कुछ सत्कर्म करो। प्राप्त संपत्ति का उपयोग भोग में नहीं, अपितु सेवा और दान-पुण्य में करो। जीवन में सत्कृत्य कर करने से बाह्य वस्तुएँ पास में न रहने पर भी आनंद, चैन और सुख मिलता है और दुष्कृत्य करने से बाह्य ऐशो-आराम होने पर भी सुख-शांति नहीं मिलती है।”

हम सुखी हैं कि दुःखी हैं, पुण्य की ओर बढ़ रहे हैं कि पाप की ओर बढ़ रहे हैं-यह देखना हो और लंबे चौड़े नियमों एवं धर्मशास्त्रों को न समझ सकें तो इतना तो जरूर समझ सकेंगे कि हमारे हृदय में खुशी, आनंद और आत्मविश्वास बढ़ रहा है कि घट रहा है। पापकर्म हमारा मनोबल तोड़ता है। पापकर्म हमारी मन की शांति खा जायेगा, हमें वैराग्य से हटाकर भोग में रुचि करायेगा जबकि पुण्यकर्म हमारे मन की शांति बढ़ाता जायेगा, हमारी रुचि परमात्मा की ओर बढ़ाता जायेगा।

जो लोग स्नान-दान, पुण्यादि करते हैं, सत्कर्म करते हैं उनको संतों की संगति मिलती है। धीरे-धीरे संतों का संग होगा, पाप कटते जायेंगे और सत्संग में रूचि होने लगेगी। सत्संग करते-करते भीतर के केन्द्र खुलने लगेंगे, ध्यान लगने लगेगा।

हमें पता ही नहीं है कि एक बार के सत्संग से कितने पाप-ताप क्षीण होते हैं, अंतःकरण कितना शुद्ध हो जाता है और कितना ऊँचा उठ जाता है मनुष्य ! यह बाहर की आँखों से नहीं दिखता। जब ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तब पता चलता है कि कितना लाभ हुआ ! हजारों जन्मों के माता-पिता, पति-पत्नी आदि जो नहीं दे सके, वह हमको संत सान्निध्य से हँसते खेलते मिल जाता है। कोई-कोई ऐसे पुण्यात्मा होते हैं जिनको पूर्वजन्म के पुण्यों से इस जन्म में जल्दी गुरु मिल जाते हैं। फिर ब्रह्मज्ञानी संत का सान्निध्य भी मिल जाता है। ऐसा व्यक्ति तो थोड़े से ही वचनों से रँग जाता है। जो नया है वह धीरे-धीरे आगे बढता है। जिसके जितने पुण्य होते हैं, उस क्रम से वह प्रगति करता है।

जैसे वृक्ष तो बहुत हैं लेकिन चंदन के वृक्ष कहीं-कहीं पर ही होते हैहं। ऐसे ही मनुष्य तो बहुत हैं लेकिन ज्ञानी महापुरुष कहीं-कहीं पर ही होते हैं। ऐसे ज्ञानवानों के संग से हमारा चित्त शांत और पवित्र होता है एवं धीरे-धीरे उस चित्त में आत्मज्ञान का प्रवेश होता है और आत्मज्ञान पाकर मनुष्य मुक्त हो जाता है। जिस तरह अग्नि में लोहा डालने से लोहा अग्निरूप हो जाता है, उसी तरह संत-समागम से मनुष्य संतों की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना सकता है। ईश्वर की राह पर चलते हुए संतों को जो अनुभव हुए हैं, जैसा चिन्तन करके उनको लाभ हुआ है ऐसे ही उनके अनुभवयुक्त वचनों को हम अपने चिंतन का विषय बनाकर इस राह की यात्रा करके अपना कल्याण कर सकते हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 1999, पृष्ठ संख्या 5-7 अंक 82

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