महाशिवरात्रि दिनांक 4 मार्च 2000
संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से
यस्यांकि य विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके।
भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।
सोઽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वाधिपः सर्वदा।
शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्रीशंकरः पातु माम्।।
ʹजिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ सर्वेश्वर, संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याणस्वरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्रीशंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।ʹ
ʹशिवʹ अर्थात् कल्याण-स्वरूप। भगवान शिव तो हैं ही प्राणिमात्र के परम हितैषी, परम कल्याणकारक लेकिन उनका बाह्य रूप भी मानवमात्र को एक मार्गदर्शन प्रदान करने वाला है।
शिवजी का निवास-स्थान है कैलास शिखर। ज्ञान हमेशा धवल शिखर पर रहता है अर्थात् ऊँचे केन्द्रों में रहता है जबकि अज्ञान नीचे के केन्द्रों में रहता है। काम, क्रोध, भय आदि के समय मन-प्राण नीचे के केन्द्र में, मूलाधार केन्द्र में रहते हैं। मन और प्राण अगर ऊपर के केन्द्रों में हो तो वहाँ काम टिक नहीं सकता।
शिवजी को काम ने बाण मारा लेकिन शिवजी की निगाहमात्र से ही काम जलकर भस्म हो गया। आपके चित्त में भी यदि कभी काम आ जाये तो आप भी ऊँचे केन्द्रों में आ जाओ ताकि वहाँ काम की दाल न गल सके।
कैलास शिखर धवल है, हिमशिखर धवल है और वहाँ शिवजी निवास करते हैं। ऐसे ही जहाँ सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, वहीं आत्मशिव रहता है।
शिवजी की जटाओं से गंगा जी निकलती है अर्थात् ज्ञानी के मस्तिष्क में से ज्ञानगंगा बहती है। उनमें तमाम प्रकार की ऐसी योग्यताएँ होती हैं कि जिनसे जटिल-से-जटिल समस्याओं का समाधान भी अत्यंत सरलता से हँसते-हँसते हो जाता है।
शिवजी के मस्तक पर द्वितीया का चाँद सुशोभित होता है अर्थात् जो ज्ञानी हैं वे दूसरों का नन्हा सा प्रकाश, छोटा सा गुण भी शिरोधार्य करते हैं। शिवजी ज्ञान के निधि हैं, भण्डार हैं, इसीलिए तो किसी के भी ज्ञान का अनादर नहीं करते हैं वरन् आदर ही करते हैं।
शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण की है। कुछ विद्वानों का मत है कि ये मुण्ड किसी साधारण व्यक्ति के मुण्ड नहीं, वरन् ज्ञानवानों के मुण्ड हैं।
जिनके मस्तिष्क में जीवनभर ज्ञान के विचार ही रहे हैं, ऐसे ज्ञानवानों की स्मृति ताजी करने के लिए उन्होंने मुण्डमाला धारण की है। कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार शिवजी ने गले में मुण्डों की माला धारण करके हमें बताया है कि गरीब हो चाहे धनवान्, पठित हो चाहे अपठित, माई हो या भाई लेकिन अंत समय में सब खोपड़ी छोड़कर जाते हैं। आप अपनी खोपड़ी में चाहे कुछ भी भरो, आखिर वह यहीं रह जाती है।
भगवान शंकर देह पर भभूत रमाये हुए हैं क्योंकि वे शिव हैं, कल्याणस्वरूप हैं। लोगों को याद दिलाते हैं कि चाहे तुमने कितना ही पद-प्रतिष्ठावाला, गर्व भरा जीवन बिताया हो, अंत में तुम्हारी देह का क्या होने वाला है, वह मेरी देह पर लगायी हुई भभूत बताती है। अतः इस चिताभस्म को याद करके आप भी मोह-ममता और गर्व को छोड़कर अंतर्मुख हो जाया करो।
शिवजी के अन्य आभूषण हैं बड़े विकराल सर्प। अकेला सर्प होता है तो मारा जाता है लेकिन यदि वह सर्प शिवजी के गले में, उनके हाथ पर होता है तो पूजा जाता है। ऐसे ही आप संसार का व्यवहार केवल अकेले करोगे तो मारे जाओगे लेकिन शिवतत्त्व में डुबकी मारकर संसार का व्यवहार करोगे तो आपका व्यवहार भी आदर्श व्यवहार बन जायेगा।
शिवजी के हाथों में त्रिशूल एवं डमरू सुशोभित हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे सत्त्व, रज एवं तम – इन तीन गुणों के आधीन नहीं होते, वरन् उन्हें अपने आधीन रखते हैं और जब प्रसन्न होते हैं तब डमरू लेकर नाचते हैं।
कई लोग कहते हैं कि शिवजी को भाँग का व्यसन है। वास्तव में तो उऩ्हें भुवन भंग करने का यानी सृष्टि का संहार करने का व्यसन है, भाँग पीने का नहीं। किन्तु भंगेड़ियों ने ʹभुवन भंगʹ में से अकेले ʹभंगʹ शब्द का अर्थ ʹभाँगʹ लगा लिया और भाँग पीने की छूट ले ली।
उत्तम माली वही है जो आवश्यकता के अनुसार बगीचे के काँट-छाँट करता रहता है, तभी बगीचा सजा-धजा रहता है। अगर वह बगीचे में काट-छाँट न करे तो बगीचा जंगल में बदल जाये। ऐसे ही भगवान शिव इस संसार के उत्तम माली हैं, जिन्हें भुवनों को भंग करने का व्यसन है।
शिवजी के यहाँ बैल-सिंह, मोर-साँप-चूहा आदि परस्पर विपरीत स्वभाव के प्राणी भी मजे एक साथ निर्विघ्न रह लेते हैं। क्यों ? शिवजी की समता के प्रभाव से। ऐसे ही जिसके जीवन में समता है वह विरोधी वातावरण में, विरोधी विचारों मे भी बड़े मजे से जी लेता है।
जैसे, आपने देखा होगा की गुलाब के फूल को देखकर बुद्धिमान व्यक्ति प्रसन्न होता है किः ʹकाँटों के बीच भी वह कैसे महक रहा है ! जबकि फरियादी व्यक्ति बोलता है किः ʹएक फूल और इतने सारे काँटे ! क्या यही है संसार, कि जिसमें जरा सा सुख और कितने सारे दुःख !ʹ
जो बुद्धिमान है, शिवतत्त्व का जानकार है, जिसके जीवन में समता है, वह सोचता है कि जिस सत्ता से फूल खिला है, उसी सत्ता ने काँटों को भी जन्म दिया है। जिस सत्ता ने सुख दिया है, उसी सत्ता ने दुःख को भी जन्म दिया है। सुख-दुःख को देखकर जो उसके मूल में पहुँचता है, वह मूलों के मूल महादेव को भी पा लेता है।
इस प्रकार शिवतत्त्व में जो जगे हुए हैं उन महापुरुषों की तो बात ही निराली है लेकिन जो शिवजी के बाह्य रूप को ही निहारते हैं वे भी अपने जीवन में उपरोक्त दृष्टि ले आयें तो उनकी भी असली शिवरात्रि, कल्याणमयी रात्रि हो जाये….
महाशिवरात्रि का पूजन
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् महाशिवरात्रि। पृथ्वी पर शिवलिंग के स्थापन का जो दिवस है, भगवान शिव के विवाह का जो दिवस है और प्राकृतिक नियम के अनुसार जीव शिव के एकत्व में मदद करने वाले ग्रह-नक्षत्रों के योग का जो दिवस है – वही है महाशिवरात्रि का पावन दिवस। यह रात्रि-जागरण करने की रात्रि, आराधना-उपासना करने की रात्रि है।
शिवजी की आराधना निष्काम भाव से कहीं भी की जा सकती है किन्तु सकाम भाव से आराधना विधि-विधानपूर्वक की जाती है। जिन्हें संसार से सुख-वैभव लेने की इच्छा होती है वे भी शिवजी की आराधना करते हैं और जिन्हें सदगति प्राप्त करनी होती है, वे भी शिवजी की आराधना करते हैं।
शिवजी की पूजा का विधान यह है कि पहले जहाँ शिवजी की स्थापना की जाती है वहाँ से फिर उनका स्थानांतर नहीं होता, उनकी जगह नहीं बदली जाती। शिवजी की पूजा के निर्माल्य (पत्र-पुष्प, पंचामृतादि) का उल्लंघन नहीं किया जाता। इसीलिए शिवजी के मंदिर की पूरी प्रदक्षिणा नहीं होती क्योंकि पूरी प्रदक्षिणा करने से निर्माल्य उल्लंघित हो जाता है।
शिवलिंग विविध द्रव्यों से बनाये जाते हैं। अलग-अलग द्रव्यों से बने शिवलिंगों के पूजन के फल भी अलग-अलग प्रकार के होते हैं। जैसे, ताँबे के शिवलिंग के पूजन से आरोग्य-प्राप्ति होती है। पीतल के शिवलिंग के पूजन से यश, आरोग्य-प्राप्ति एवं शत्रुनाश होता है। चाँदी के शिवजी बनाकर पूजा करने से पितरों का कल्याण होता है। सुवर्ण के शिवजी बनाकर पूजा करने से तीन पीढ़ियों तक घर में धन-धान्य बना रहता है। मणि-माणेक का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा करने से बुद्धि, आयुष्य, धन, ओज-तेज बढ़ता है लेकिन ब्रह्मचिंतन करने से ये चीजें स्वाभाविक ही प्रगट होने लगती हैं। परमात्मतत्त्व में, शिवतत्त्व में डुबकी मारने से बुद्धि का प्रकाश बढ़ने लगता है, पितरों का उद्धार होने लगता है, चित्त की चंचलता मिटने लगती है, दिल की दरिद्रता दूर होने लगती है एवं मन में शांति आने लगती है। शिवपूजन का महाफल यही है कि मनुष्य शिवतत्त्व को प्राप्त हो जाये।
शिवरात्रि को भक्ति भाव से रात्रि-जागरण किया जाता है। जल, पंचामृत, फल-फूल एवं बिल्वपत्र से शिवजी का पूजन करते हैं। बिल्वपत्र में तीन पत्ते होते हैं जो सत्त्व, रज एवं तमोगुण के प्रतीक हैं। हम अपने ये तीनों गुण शिवार्पण करके गुणों से पार हो जायें, यही इसका हेतु है। पंचामृत पूजा क्या है ? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पंचमहाभूतों का ही सारा भौतिक विलास है। इन पंचमहाभूतों का विलास जिस चैतन्य की सत्ता से हो रहा है उस चैतन्यस्वरूप शिव में अपने अहं को अर्पित कर देना, यही पंचामृत-पूजा है। धूप और दीप द्वारा पूजा माने क्या ? धूप का तात्पर्य है अपने ʹशिवोઽहमʹ की सुवास, ʹआनन्दोઽहम्ʹ की सुवास और दीप का तात्पर्य है आत्मज्ञान का प्रकाश।
चाहे जंगल या मरुभूमि में क्यों न हो, रेती या मिट्टी के शिवजी बना लिये, पानी के छींटे मार दिये, जंगली फूल तोड़कर धर दिय और मुँह से ही नाद बजा दिया तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं एवं भावना शुद्ध होने लगती है।
आशुतोष जो ठहरे ! जंगली फूल भी शुद्ध भाव से तोड़कर शिवलिंग पर चढ़ाओगे तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं और यही फूल कामदेव ने शिवजी को मारे तो शिवजी नाराज हो गये। क्यों ? क्योंकि फूल फेंकने के पीछे कामदेव का भाव शुद्ध नहीं था, इसीलिए शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया। शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं, भाव का मूल्य है।
भावो हि विद्यते देवा….
आराधना का एक तरीका यह है कि पत्र, पुष्प, पंचामृत, बिल्वपत्रादि से चार प्रहर पूजा की जाये। दूसरा तरीका यह है कि मानसिक पूजा की जाये।
कभी-कभी योगी लोग इस रात्रि का सदुपयोग करने का आदेश देते हुए कहते हैः “आज की रात्रि तुम ऐसी जगह पसंद कर लो कि जहाँ तुम अकेले बैठ सको, अकेले टहल सको, अकेले घूम सको, अकेले जी सको। फिर तुम शिवजी की मानसिक पूजा करो और उसके बाद अपनी वृत्तियों को निहारो, अपने चित्त की दशा को निहारो। चित्त मे जो-जो आ रहा है और जो-जो जा रहा है उस आऩे जाने को निहारते-निहारते आने जाने की मध्यावस्था को जान लो।
दूसरा तरीका यह है कि चित्त का एक संकल्प उठा और दूसरा उठने को है, उस शिवस्वरूप व आत्मस्वरूप मध्यावस्था को तुम मैं रूप में स्वीकार कर लो, उसमें टिक जाओ।
तीसरा तरीक यह भी है कि किसी नदी या जलाशय के किनारे बैठकर जल की लहरों को एकटक देखते जाओ अथवा तारों को निहारते-निहारते अपनी दृष्टि को उन पर केन्द्रित कर दो। दृष्टि बाहर की लहरों पर केन्द्रित है औऱ वह दृष्टि केन्द्रित है कि नहीं, उसकी निगरानी मन करता है और मन निगरानी करता है कि नहीं करता है, उसको निहारने वाला मैं कौन हूँ ? गहराई से इसका चिंतन करते-करते आप परम शांति में भी विश्रांति कर सकते हो।
चौथा तरीका यह है कि जीभ न ऊपर हो न नीचे हो बल्कि तालू के मध्य में हो और जिह्वा पर ही आपकी चित्तवृत्ति स्थिर हो। इससे भी मन शांत हो जायेगा और शांत मन में शांत शिवतत्त्व का साक्षात्कार करने की क्षमता प्रगट होने लगेगी।
साधक चाहे तो कोई भी तरीका अपना कर शिवतत्त्व में जगने का यत्न कर सकता है। महाशिवरात्रि का यही उत्तम पूजन है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000, पृष्ठ संख्या 15-18, अंक 86
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