संतकृपा से चित्रकेतु का मोहभंग

संतकृपा से चित्रकेतु का मोहभंग


संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग-प्रवचन से

सदगुरु मेरा शूरमा, करे शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।

ʹमैं शरीर हूँ… यह मेरा नाम है… यह मेरी नात-जात है…. यह मेरी पत्नी है… यह मेरा पुत्र-परिवार है…. यह मेरा कर्त्तव्य है….ʹ ये सब भरम हमारे अंदर घुस गये हैं। ʹहम जी रहे हैं…ʹ यह भी भरम है और ʹहम मर जायेंगे….ʹ यह भी भरम है। ʹहम माई हैं…. हम भाई हैं…. हम निर्धन हैं… हम पापी है… हम पुण्यात्मा हैं….. हम अच्छे हैं.. हम बुरे हैं…ʹ इस प्रकार न जाने कितने-कितने भरमों में हम उलझे रहते हैं और वास्तव में हम क्या हैं इसका हमें पता ही नहीं है।

जिनको वेदों, शास्त्रों और परमात्मा का ज्ञान नहीं है – ऐसे लोगों से जो हम सुनते हैं, वही अपने को मान लेते हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

ʹइस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है।ʹ

आप सनातन हो, जन्मने-मरने वाले नहीं हो। व्यवहार में जो दिखता है कि ʹयह माई है… यह भाई है….ʹ यह सब कल्पित है और कल्पनाएँ बदलती रहती हैं जबकि आप तो अबदल, एकरस आत्मा हो।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः।

पिता नैव मे नैव माता न जन्म।

न बन्धुनः मित्रं गुरुर्नैव शिष्य।

चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्।।

जहाँ न कोई पिता है, न माता है, न बन्धु है, न मित्र है – ऐसी अवस्था में आप पहुँच जाओ तो अपने चिदानंदस्वरूप का ज्ञान हो जाये। वही आपका वास्तविक स्वरूप है। अगर आप अपने उस शिवस्वरूप में तीन मिनट के लिए भी विश्रांति पा लो तो फिर देवता लोग भी आपका दीदार करके अपना भाग्य बना लेंगे। आप वह चिदघन चैतन्य आत्मा हो।

कहाँ तो आकाश से भी सूक्ष्म और व्यापक आपका चैतन्यस्वरूप और कहाँ अपने को शरीर मानकर उसके सुख-दुःख, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि में उलझी रहने वाली आपकी स्थूल बुद्धि। कई जन्मों से अपने को माई-भाई, अच्छा-बुरा, पापी-धर्मात्मा, सुखी-दुःखी आदि मानकर स्वयं को ही सताते आये हो। ʹयह चाहिए….. वह चाहिए… यह समस्या है अतः इसको रिझाऊँ… इसको ठीक करूँ…. डॉक्टर बन जाऊँ…. इंजीनियर बन जाऊँ….ʹ लेकिन ये सब हो भी गये तो आखिर क्या ? अंत में जब मौत आएगी तब ये सब एक झटके में ही छूट जायेंगे।

ʹमैं गरीब हूँ…. धनवान हो जाऊँ…ʹ चलो, बन गये करोड़पति। अरे! हो गये भूपति, तो क्या हो गया काम पूरा ? ʹअब हम करोड़पति हैं… पाँच-पचीस आदमी हमारी इज्जत करते हैं…ʹ यदि ऐसा करके सुखी होना चाहते हो तो यह अहंकार का सुख है। इज्जत देने वाले भी मरने वाले हैं और जिस शरीर को इज्जत मिल रही है वह भी मरने वाला है। इससे आपको क्या मिला ? आपकी तो भ्रांति दृढ़ हुई कि ʹये मेरी इज्जत करते हैं।ʹ शरीर तो जड़ है। शरीर को तो पता ही नहीं है कि क्या इज्जत और क्या बेइज्जती ? आप इज्जत-बेइज्जत से परे हो किन्तु भ्रान्ति से मान लेते हो कि ʹमेरी इज्जत हुई या मेरी बेइज्जती हुई।ʹ जब तक अपने शुद्ध स्वरूप को नहीं जान  पाये, तब तक ʹमैं-मेरे की भ्रान्ति नहीं मिटती।ʹ

श्रीमद् भागवत के छठवें स्कन्ध के 14वें अध्याय में एक प्रसंग आता हैः

शूरसेन देश के चक्रवर्ती सम्राट चित्रकेतु अनेक सुख-सुविधाओं, साधन-सम्पत्तियों, दास-दासियों से सम्पन्न थे एवं उनकी बहुत सी सुन्दर रानियाँ थीं। पृथ्वी का सारा सुख-वैभव उनके अधिकार में था। इतना सब होने पर भी वे भीतर से सुखी एवं शांत न थे।

सुविधा होना अलग बात है, सुख होना अलग बात है। धन होना अलग बात है और तृप्ति होना अलग बात है। किसी के पास धन हो सकता है, सुविधाएं हो सकती हैं लेकिन वह भीतर से सुखी भी हो, यह जरूरी नहीं है।

चित्रकेतु के पास भी बहुत सारी सम्पदा और सुविधाएँ थीं, अनेको रानियाँ थीं फिर भी सदैव चिंतित रहते थे क्योंकि उन्हें कोई पुत्र न था। पुत्र के अभाव में सारी सुविधाएँ उन्हें बेकार लग रही थीं।

एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अंगिरा ऋषि स्वच्छन्दरूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल में पहुँच गये। राजा द्वारा आतिथ्य सत्कार किये जाने के बाद ऋषि अंगिरा ने पूछाः “राजन् ! तुम्हारे मुँह पर किसी आंतरिक चिन्ता के लक्षण दृष्टिगोचर हो रहे हैं। तुम्हारी उदासी का क्या कारण है ?”

चित्रकेतु ने कहाः “भगवन् ! मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिए लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। परन्तु सन्तान न होने के कारण मुझे इन सुख-भोगों से तनिक भी शांति नहीं मिल रही है। अब आप ही कृपा करें। मुझे संतान देकर मेरा दुःख दूर करें।”

चित्रकेतु की  प्रार्थना से संतुष्ट होकर सर्वसमर्थ अंगिरा ऋषि ने ʹत्वष्टाʹ देवता के योग्य चरू का निर्माण करके उससे देवता का यजन किया एवं चित्रकेतु से यज्ञ करवाया। यज्ञ का अवशेष प्रसाद चित्रकेतु की सबसे बड़ी रानी कृतद्युति को दिया। महारानी कृतद्युति को गर्भ रह गया। समय पाकर उनके गर्भ से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ। पूरे राजमहल में आनंदोत्सव मनाया गया। राजकुमार के जन्म का समाचार पाकर शूरसेन देश की प्रजा भी अत्यन्त आनंदित हो उठी।

संसार का ऐसा कोई सुख नहीं, जिसके पीछे दुःख न लगा हुआ हो। संसार का ऐसा कोई लाभ नहीं, जिसके पीछे हानि न लगी हुई हो। संसार का ऐसा कोई संयोग नहीं, जिसके पीछे वियोग न जुड़ा हुआ हो। एकमात्र भगवान ही ऐसे सुखस्वरूप हैं कि जिनको प्राप्त करके सदा के लिए दु-खों का अंत हो जाता है। बाकी तो प्रत्येक सुख के पीछे दुःख लगा ही रहता है।

यह संसार का अटल नियम है कि जिससे आप अत्यंत प्रीति करोगे, वही आपको आखिर में रूलायेगा। आप यदि चाहो कि ʹजैसा प्रेमभरा व्यवहार पत्नी आज करती है, वैसा ही सदा करती रहे….ʹ तो यह असंभव है। ऐसे ही पत्नी यदि पति से चाहे तो यह भी असंभव है। कोई व्यक्ति, कोई वस्तु, कोई परिस्थिति, कोई भाव और गुण सदा एक जैसे नहीं रह सकते – यह संसार का नियम है।

परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है। सागर से लहरें उठती हैं और समाप्त हो जाती है। यदि आप लहरों को सदा बनाये रखना चाहो या सदा उनका एक-सा प्रवाह चाहो तो यह असंभव है। हवा का रुख यदि पूर्व की ओर होगा तो लहरें पूर्व की ओर चलेंगी और यदि पश्चिम की ओर होगा तो पश्चिम की ओर दौड़ती दिखेंगी। जिस ओर भी हवा का रुख होगा, उसी ओर लहरें दौड़ेंगी। ऐसे ही व्यक्ति का जैसा स्वभाव और उसके गुण रहेंगे, वैसा ही उसका धर्म रहेगा।

न कोई किसी को सुख देता है, न कोई किसी को दुःख देता है। मनुष्य अपनी ही कल्पना से सुखी-दुःखी होता रहता है।

काहू न कोउ सुख दुःख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।

मनुष्य अपने कर्मों का फल ही सुख-दुःख के रूप में भोगता है। अतः उसे चाहिए कि वह कर्म करने में सावधान और भोगने में प्रसन्न रहे। कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख तो मिलेगा ही, लेकिन उसमें सुखी-दुःखी होना-न-होना यह हमारे हाथ की बात है।

सुख-दुः की चोटें जीवन में, आती हैं, आकर जाती हैं।

ज्ञानी के हृदय में क्षोभ नहीं, मूरख को नाच नचाती हैं।।

सुख भी आया, दुःख भी आया। लाभ भी आया, हानि भी आयी। जीवन आया तो मरण भी आया। ज्ञानी वही है, बुद्धिमान वही है, गुरुभक्त वही है, जो सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, निंदा-प्रशंसा आदि सब प्रसंगों में समभाव रहता है क्योंकि संसार में तो ये आते और जाते ही रहेंगे।

जहाँ बजती है शहनाई, वहाँ मातम भी होते हैं…..

ऐसा ही हुआ चित्रकेतु के राजमहल में। जिस रानी से पुत्र उत्पन्न हुआ, उस रानी के प्रति राजा का मोह बढ़ गया। बड़ी उम्र में बेटा हुआ तो बेटे में भी आसक्ति बढ़ गयी।

अन्य रानियों को महसूस हुआ किः ʹराजा अब बड़ी रानी से ज्यादा प्रेम करने लगे हैं और हमारे प्रति राजा का प्रेम कम हो गया है।ʹ अतः उनमें बड़ी रानी के प्रति बहुत द्वेष उत्पन्न हो गया। द्वेष के कारण उनकी बुद्धि मारी गयी और उनके चित्त में क्रूरता छा गयी। अतः उन्होंने द्वेषवश नन्हें से राजकुमार को विष दे दिया।

सगे-सम्बन्धी स्वार्थ के हैं। स्वार्थ का संसार है।।

तुच्छ स्वार्थ के लिए रानियों ने राजा की परवाह न की, बड़ी रानी की चिंता न की, यहाँ तक कि उस नन्हें निर्दोष राजकुमार की भी परवाह न की और उसे जहर देकर मार डाला।

राजकुमार को मरा हुआ देखकर पूरा राजमहल शोक में डूब गया। राजा चित्रकेतु मूर्च्छित हो गये। लोग प्रयत्न करके राजा को ज्यों-ही होश में लाते, त्यों ही वे ʹहाय… मेरा इकलौता बेटा !ʹ कहकर फिर से बेहोश हो जाते।

महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद ने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं। तब वे दोनों वहाँ आये एवं चित्रकेतु को समझाने लगेः “राजन् ! जिसके लिए तुम इतना शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म औऱ पहले के जन्मों में तुम्हारा कौन था ? तुम उसके कौन थे ? फिर अगले जन्मों में भी उसके साथ तुम्हारे क्या संबंध रहेंगे ?

इस पर जरा विचार करो।

राजन् ! हम तुम और हम लोगों के साथ इस नश्वर जगत में जितने भी प्राणी विद्यमान हैं, वे सब अपने जन्म के पहले नहीं थे और मृत्यु के पश्चात नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उऩका वास्तविक अस्तित्व नहीं है क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक-सी रहती है।

वयं च त्वं च ये चेमे तुल्यकालाश्चराचराः।

जन्ममृत्योर्यथा पश्चात प्राङनैवमधुनापि भोः।।

(श्रीमद् भागवतः 6.15.5)

इस प्रकार महर्षि अंगिरा एवं देवर्षि नारद ने अनेक युक्तियों से राजा को समझाया एवं कहाः “राजन् ! तुम मोह के वशीभूत न होओ क्योंकि मोह ही सर्व व्याधियों का मूल है। तुम स्वयं अनुभव कर रही हो कि पुत्रवानों को कितना दुःख होता है। अतः अब तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शांत करो, स्वस्थ करो और उस मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करके परम शांतिस्वरूप परमात्मा में स्थिर हो जाओ।”

उसके बाद देवर्षि ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को शोकाकुल स्वजनों के समक्ष प्रत्यक्ष बुलाकर कहाः “जीवात्मन् ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे माता-पिता एवं स्वजन तुम्हारे वियोग से अत्यंत दुःखी हो रहे हैं, अतः तुम अपने मृत शरीर में वापस आ जाओ और शेष आयु अपने स्वजनों के साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिता के दिये हुए भोगों को भोगो और राजसिंहासन पर बैठो।”

जीवात्मा ने कहाः “देवर्षि। मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूँ। कौन किसका बेटा और कौन किसका पिता ? जब तक जिसका जिस वस्तु से संबंध रहता है, तभी तक उसको उस वस्तु से ममता रहती है। जीव नित्य और अहंकाररहित है। वह गर्भ में आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है। उसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है न अप्रिय, न कोई अपना है न पराया।”

यह कहकर जीवात्मा पुनः चला गया।

जीवात्मा की ये बातें सुनकर सभी स्वजन विस्मित हो उठे एवं उनका रहा-सहा मोह भी जाता रहा। राजा चित्रकेतु की बुद्धि में वैराग्य जाग उठा। उन्होंने सोचा कि ʹमेरा बेटा…. मेरा बेटा…ʹ करके मैं अकारण ही मोह कर रहा था। ʹमेरा महल… मेरी रानियाँ… मेरा राज्य….ʹ तो कहता हूँ लेकिन ये सब कब तक मेरे रहेंगे ? जिस चैतन्य परमात्मा की सत्ता से ʹमेरा-मेराʹ कह रहा हूँ, वह परमात्मा ही वास्तव में मेरा है, वही सदा मेरे साथ रहता है। बाकी के ये सब तो दो दिन के रैन बसेरे हैं।

अंगिरा ऋषि और नारदजी के उपदेश से राजा का मोह भंग हो गया। देवर्षि नारद ने राजा चित्रकेतु को सात दिन के अनुष्ठान की विधि बतायी। चित्रकेतु के सत्कर्मों के फलस्वरूप एवं संत-दर्शन के पुण्य के कारण उनका विवेक जाग उठा। उन्होंने देवर्षि नारद के द्वारा बतायी गयी विधि से सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता से अनुष्ठान किया। उस अनुष्ठान के फलस्वरूप उन्हें विद्याधरों का अखंड आधिपत्य प्राप्त हो गये एवं कुछ ही दिनों में भगवद् दर्शन भी हो गये। अनेक स्तुतियों से राजा ने भगवान की प्रार्थना की। भगवान प्रसन्न हो गये। उन्होंने चित्रकेतु को आशीर्वाद तो दिया ही, साथ ही एक दिव्य विमान भी दिया जो सर्वत्र गति कर सकता था।

विचरण करते-करते राजा एक बार शिवलोक में गये। वहाँ भगवान शिव, पार्वती जी को गोद में बिठाकर ऋषियों को तत्त्वज्ञान का उपदेश दे रहे थे किः “वास्तविक तत्त्व आत्मा है, ब्रह्म है। हम सब उसी में रमण करते हैं। प्राणिमात्र का स्वरूप वही है लेकिन जो उसे नहीं जानते हैं वे इन्द्रियों में, मन में, मिथ्या संसार में रमण करते हैं। हालाँकि रमण करने की सत्ता भी तो उसी चैतन्यस्वरूप की है और वही शुद्ध ब्रह्म है। उसी को साक्षी, द्रष्टा, चिदघन चैतन्य आदि जो कहते है, बाकी तो अपना-आपा है। अपना जो नित्य अनुभव है, जो अपरोक्ष अनुभव है, बस वही वह सत्ता है। यह ʹमैं-मेरा… तू-तेरा…ʹ आदि प्रत्यक्ष है, स्वर्गादि परोक्ष हैं परन्तु अपना जो आत्मस्वरूप है वह अपरोक्ष है। उसे जानने के लिए आँख, कान आदि इन्द्रियों की जरूरत नहीं पड़ती है। वह स्वयंप्रकाश, स्वसंवेद्य है। ऐसा जो जानता है वही मुझ शिव को ठीक से जानता है।”

इस प्रकार शिवजी अति गूढ़ ज्ञान का वर्णन कर रहे थे। राजा होने के कारण चित्रकेतु के मन में निर्णय करने की आदत गहरी घुसी थी कि ʹयह ठीक है और वह ठीक नहीं है…. यह अच्छा है और वह बुरा है… ऐसा होना चाहिए और वैसा नहीं होना चाहिए…ʹ आदत तो सदैव साथ रहती है। राजा यदि बुद्धि को ब्रह्म-परमात्मा में लगाते तो बुद्धि शुद्ध हो जाती, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया था इसलिए वे सोचने लगेः ʹशिवजी होकर भी अपनी स्त्री में इतनी आसक्ति रखते हैं ! बातें तो ब्रह्मज्ञान की सुनाते हैं लेकिन स्त्री का आसक्ति नहीं छोड़ पाते हैं। शिवजी को ऐसा रहना ठीक नहीं हैʹ यह सोचकर उन्होंने शिवजी को कुछ भला-बुरा सुना दिया।

भगवान सांबसदाशिव तो गुणातीत, देशातीत, कालातीत, आकाशस्वरूप चैतन्य पद में स्थित थे, परन्तु राजा के द्वारा किया गया शिवजी का यह अपमान माता पार्वती जी से सहन नहीं हुआ। पार्वती जी ने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोध से कहाः “जान पड़ता है कि ब्रह्माजी, भृगु, नारद आदि, उनके पुत्र सनकादि, महर्षि कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्म का रहस्य नहीं जानते, तभी वे धर्म-मर्यादा का  उल्लंघन करने वाले भगवान शिव को इस काम से नहीं रोकते।”

माता पार्वती ने सोचाः ʹब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते हैं, उन्हीं मंगलों को मंगल बनाने वाले साक्षात् जगदगुरु भगवान का और उनके अऩुयायी महात्माओं का इस अधम क्षत्रिय ने तिरस्कार किया है और शासन करने की चेष्टा की है। इसलिए यह ढीठ सर्वथा दण्ड का घमण्ड है। जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं, भगवान श्रीहरि के उन चरणकमलों में यह मूर्ख रहने योग्य नहीं है।ʹ

उन्होंने चित्रकेतु को संबोधन कर कहाः “हे दुर्मते ! तुम पापमय असुर योनि में जाओ। ऐसा होन से बेटा ! तुम फिर कभी किसी महापुरुष का अपमान नहीं कर सकोगे।”

जब पार्वती जी ने इस प्रकार चित्रकेतु को शाप दिया तब वे विमान से उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगेः “चित्रकेतु ने कहाः “माता-पार्वती जी ! मैं बड़ी प्रसन्नता से दोनों हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ, क्योंकि देवता लोग मनुष्यों को जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलने वाले फल की पूर्व सूचनामात्र होती है।

देवी ! यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसार चक्र में भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा एवं  सर्वत्र सुख-दुःख भोगता रहता है।

माता जी ! सुख और दुःख को देने वाली न तो अपनी आत्मा है और न कोई अन्य। जो अज्ञानी हैं, वे ही अपने को अथवा दूसरों को सुख-दुःख का कर्त्ता मानते हैं।

यह जगत सत्त्व-रज-तम आदि गुणों का स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप क्या अनुग्रह ? क्या स्वर्ग क्या नरक ? क्या सुख क्या दुःख ? एकमात्र परिपूर्णतम भगवन ही बिना किसी की सहायता के अपनी आत्मस्वरूपिणी माया के द्वारा समस्त प्राणियों की तथा उनके बन्धन मोक्ष और सुख-दुःख की रचना करते हैं। माता जी ! भगवान श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मल से रहित हैं। उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना-पराया नहीं है। जब सुख में उनका राग नहीं है, तब उनमें राग जन्य क्रोध हो ही कैसे सकता है ? तथापि उनकी माया-शक्ति के कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियों के सुख-दुःख, हित-अहित, बन्धन-मोक्ष, जन्म-मरण और आवागमन के कारण बनते हैं। मैं शाप से मुक्त होने के लिए आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिए क्षमा करें।

तब भगवान शंकर ने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदों के सामने ही भगवती पार्वती जी से यह बात कही।

भगवान शंकर ने कहाः “सुन्दरी ! दिव्यलीलाविहारी भगवान के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासों की महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली।

जो लोग भगवान के शरणागत होते हैं, वे किसी से भी नहीं डरते क्योंकि उऩ्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकों में भी एक वस्तु के केवल भगवान के ही दर्शन होते हैं।

जीवों को भगवान की लीला से ही देह का संयोग होने के कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं। जैसे स्वप्न में भेद-भ्रम, सुख-दुःख आदि की प्रतीति होती है और जाग्रत अवस्था में भ्रमवश रस्सी में ही सर्पबुद्धि होती है, वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मा में देवता, मनुष्य आदि भेद तथा गुण-दोष आदि की कल्पना कर लेता है।

जिनके पास ज्ञान और वैराग्य बल है और जो भगवान वासुदेव के चरणों में भक्तिभाव रखते हैं उनके लिए इस जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें।

भगवान को न कोई प्रिय है और न अप्रिय। उनका न कोई अपना है न पराया। वे सभी प्राणियों की आत्मा हैं, इसलिए सभी प्राणियों के प्रियतम हैं। प्रिये ! यह परम भाग्यवान चित्रकेतु उन्हीं का प्रिय अनुचर, शांत एवं समदर्शी है और मैं भी भगवान श्रीहरि का ही प्रिय हूँ।

इसलिए तुम भगवान के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं करना चाहिए।”

ये ही विद्याधर चित्रकेतु दानव योनि का आश्रय लेकर त्वष्टा के दक्षिणाग्नि से पैदा हुए, वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी वे भगवद् स्वरूप के ज्ञान एवं भक्ति से परिपूर्ण ही रहे।

शरीर चाहे पशु का मिले या असुर का, चाहे किसी भी योनि में जन्म लेना पड़े लेकिन हमारे मन से भगवद् भक्ति नहीं जानी चाहिए। भगवान की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ एवं सदा सुखदायी है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000, पृष्ठ संख्या 9-14, अंक 86

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