गुरु से अपनी गलतियों की माफी माँगते बुल्लेशाहजी के जज्बात-ए-दिल (भाग-2)

गुरु से अपनी गलतियों की माफी माँगते बुल्लेशाहजी के जज्बात-ए-दिल (भाग-2)


कल हमने सुना कि कैसे इनायत शाह बुल्लेशाह से बिना बात किए ही अपने कुटीर की तरफ चल देते हैं । बुल्लेशाह भी रोता हुआ गुरु के कुटीर के सामने जा खड़ा होता है । बुल्लेशाह की एक-2 धड़कन अपनी नादानी को कोस रही थी । बिल्कुल हिम्मत नहीं थी गुरुदेव के करीब जाने की, मगर एक हौंसला बार-बार उसकी पीठ थपथपा कर क़दमों को आगे बढ़ा रहा था कि रहमत का तेरी मेरे गुनाहों को नाज है । बंदा हूं जानता हूं तू बंदा नवाज है । इन्हीं मिली-जुली और रंग-बिरंगी भावनाओं को संजो कर बुल्लेशाह इनायत शाह की कुटिया में दाखिल हुआ । प्रणाम कर उनके सामने चुप-चाप से सिमट कर बैठ गया, अब तो इनायत ने अपनी नाराजगी बिल्कुल साफ तौर पर जाहिर की । बुल्लेशाह को आया देखकर एकदम निगाहें फेर लीं । इस वक़्त उनके नयन-नक्ष निहायत किसी गहरी सोच के सांचे में ढले हुए थे । बुल्लेशाह आहिस्ते से मिमियाती आवाज़ में बोला, गुस्ताखी माफ़ कर दो गुरु जी ! आईंदा ख्याल रहेगा परन्तु गुरु जी का तख्त अडोल रहा । कोई जवाब नहीं आया, निगाहें अब भी किसी अतल गहराई को टटोलती रहीं । यह गहराई बुल्लेशाह के जज्बात-ए-दिल की ही थी, मानों इनायत की रूहानी नज़र इस गहराई की ईमानदारी परख रही हो । बुल्लेशाह समझ गया इसलिए उसने सच्चे दिल से इजहार की आवाज़ उठाई, गुरु जी ! अब मैं वाकिफ हो गया हूं कि आपके आश्रम की तामीर फकत मौहब्बत की इंटों से हुई हैं । यह आशिकी की दुनिया है, यह सबसे ऊंचा मुकाम आपके पाक कदमों में है । यहां गुरूर से तनते नहीं हैं सिर्फ सिजदे में गिरते हैं, अपनी हस्ती की मोहर को गाढ़ा नहीं करते, उसे फीका करते-करते पोंछ डालते हैं । ईमान से गुरु जी आईंदा इसी सबक की बुनियाद पर चलूंगा । बस एक बार, एक बार माफ़ कर दो , सारी बेरुखी और नाराजगी दर किनार कर बस एक बार माफ़ कर दो । संसारियों की दृष्टि से यह कैसे अजीब रिश्ता है इस दुनिया का, इधर बुल्लेशाह फिर से गलती ना करने की कसमें खाए जा रहा है, नाक रगड़ कर मिन्नतें कर रहा है और उधर हुजूर इनायत अखड अदा में तख्त पर चढ़ कर बैठे हैं । अपनी हेकड़ी में एक लफ्ज़ नहीं बोल रहे, अजी यह शिष्य है या बंधुआ मजदूरी, ये गुरु हैं या तानाशाह । संसारी ऐसे सोच सकता है, मगर ज़रा सोचिए सागर के खारेपन में आखिर ऐसी कौन सी कशिश होती है जो गंगा की मीठी धाराएं उसमें समाने को बेकरार रहती हैं । क्यूं बदहवास होकर उसकी ओर दौड़ती हैं अपना वजूद उसमें खोने के लिए । खुद को बूंद-बूंद निचोड़ कर उसमें लुटाने के लिए जैसा एक शायर ने भी कहा कि उसके खारेपन की भी कोई कशिश होगी जरूर वरना क्यूं सागर में यूं जाके गंगा मिली । आज बुल्लेशाह के जज्बात ऐसी मीठी गंगा हैं और इनायत की बेरुखी सागर का खारापन । यह बेरुखी इतनी खरी क्यूं है इसमें कशिश कैसी है यह खुद इनायत शाह ने अपने लफ़्ज़ों में बयान किया । बुल्लेशाह हम खफा इतने नहीं जितने कि तेरे लिए फिक्रमंद हैं तेरा अहंकार करना हमें नाराज नहीं चिंताग्रस्त कर देता है। अब तो इनायत शाह के माथे पर लकीरें भी उभर आई थी अपने शाह जी से निकलती इतनी संजीदगी की लू बुल्लेशाह ने पहली मर्तबा महसूस की थी वह कटघरे में खड़े किसी गुनहगार की तरह इनायत को निहारता रहा । इनायत शाह ने फिर कहा कि हम क्यूं चाहते हैं कि हमारे साधक पर गुरूर के बदनुमा दाग ना पड़ें, गुमान की काली स्याही उसे बदसूरत ना करे । क्या पता है तुझे दरअसल बुल्ले वह खुदा हमावस्त है अर्थात ईश्वर से पृथक कुछ भी नहीं । कुल कायनात में उसका नूर जज़्ब है और उसके नूर में कुल कायनात, उससे जुदा कुछ भी नहीं । यह तो फख्त इंसान की अज्ञानता है जो वह खुद को इस इलाही वजूद से जुदा समझता है उसकी बेखुदी और बेखबरी की दीवार ही मैं और तू में फर्क पैदा करती है । बुल्ले हमारी तमन्ना है कि हमारे समस्त साधक इस अहंकार की दीवार को निस्ता नावूद कर डालें । ब्रह्मज्ञान की बुनियाद पर मैं से तू तक का सफ़र तय करें । अपनी हस्ती को खत्म करते-करते उस अद्वैत ईश्वर से अभेदता प्राप्त करें, मगर बुल्ले गौर कर ! गुरुर की गढ़त इस दीवार को और पुख्ता बना देती है मैं को तू से और दूर कर देती है इसलिए जब यह गर्त तुझे नापाक करने लगी तो हम फिक्रमंद हो गए । तुझे इस कुफ्र से आगाह करने के लिए ही हमें बेरुखी के नाकाब से पोश होना पड़ा । यही है गुरु के खारेपन की कशिश, उनकी बेरुखी भी, साधक की खैर और बेहतरी के लिए उनका डांटना , खफा होना, सजा देना सब कुछ । वे साधक को इसलिए मिटाना नहीं सिखाते, इसलिए मिटना नहीं सिखाते कि उसे एक बेजुबान नुमाइंदा बना कर उस पर अपनी सल्तनत कायम कर सकें बल्कि इसलिए वे साधक को मिटना सिखाते हैं ताकि उसकी रूह इलाही सुरूर में डूब सके । इसी रूहानी राज से पर्दा उठाकर इनायत खामोश हो गए लेकिन इस वक़्त बुल्लेशाह में अलग-2 जज्बातों के तेज तर्रार उफान सबल हो उठे । एक तरफ गुरु की सुल्तानी ऊंचाई जांच कर गदगदता का ख्याल और दूसरी तरफ अपने नीच गुमान को याद कर गमगीनी का अहसास । तौबा और अफसोस के भाव, मलाल से सना, खुद के खिलाफ गुस्सा भी । गुरुजी मैं बेहद बेहूदा, बदसलूक और वाहियात किस्म का व्यक्ति हूं । गुस्ताख हूं जो अपने प्यारे शाह जी पर फिक्र मंदी का बोझ डाला । मेरे हबीब, मेरे गुरुदेव कसम है आपको परवरदिगार की अगर आज के बाद इस बेगैरत, जूतीखोर शिष्य ने आपकी नाफरमानी की या अहंकार से अकड़ कर बेवफ़ाई की तो आप इसे मनमर्जी सजा दोगे मगर अपनी पेशानी पर परेशानी की एक लकीर नहीं आने दोगे । प्रार्थना कुबूल करो गुरुजी आप मुझे मार लेना, जूते की नोक पर रखकर लताड़ देना, अपनी एडी से मसल कर खाक में दफना देना, मगर अपनी लाठी से मेरे मगरुर सिर को फोड़ना, मेरी बददिमाग शेखीखोर को सख्त से सख्त सबक सिखाना और तब तक जब तक उसका मकबरा ना तैयार हो जाए । मगर ख्वाब में भी मेरी वजह से खुद को तकलीफ मत होने देना, मेरे मौला अपने नूरानी चेहरे पर किसी परेशानी, किसी संजीदगी का आलम मत छाने देना मेरे कारण । तेरी आवाज़ में जो कहीं कमी आती है देख मेरी।आंखों में नमी आ जाती है, तेरी पेशानी पर जब कभी शिकन छाती है मेरी रूह को गमों की लकीरें छेद जाती हैं । हे मेरे रब, हे गुरुदेव हो नाराज कभी तो नाराजगी जाहिर कर देना, डांटना, मारना चाहे मुझे खत्म कर देना । परेशान हो जाओ तुम बस ऐसी सजा मत देना, तेरा गमगीन चेहरा मैं बर्दाश्त ना कर पाऊंगा । जो तू फ़िक्र में डूबा, सही मान मैं मार जाऊंगा । इसके बाद ना जाने कब तक बुल्लेशाह अपने गुरुदेव की गोद में सिर रखकर रोता ही रहा । अपनी गीली आहों और आंसुओं से उनका दामन भिगोता रहा, उधर इनायत की ममता भी पुरजोर हो उठी, दुलार भरा हाथ सहला-सहला कर प्यार लुटाने लगे । कौन कहता है कि जज़्बात महज इंसानी कौम की कमजोरी है और इसलिए सदगुरु कभी जज्बाती नहीं होते, कौन कहता है ? अरे जो एकाध नहीं समस्त इंसानी रिश्तों का दर्द अपने सीने में जज्ब किए रहते हैं जरा सोचो ऐसे सदगुरु, वह इतने रूखे-सूखे कैसे हो सकते हैं । समस्त कायनात का प्यार, समस्त कायनात की मोहब्बत एक सदगुरु के हृदय में होती है आज इनायत शाह की आंखें भी नम थी । आज गुरु के अश्रु भी कातिर होकर बुल्लेशाह के सिर पर हाथ फेरे जा रहे थे, उसकी उलझी लटें सुलझा रहे थे गुरूर के चक्कर में बुल्लेशाह उन्हें कई दिनों से अपनी मोहब्बत का प्रसाद चढ़ाना भूल गया था, इसलिए आज वे बेहद भूखे थे । बुल्लेशाह के दीवानगी भरे जज्बातों का तबीयत से भोग लगा रहे थे । उसकी अाहों को पूरी दिलचस्पी से पी रहे थे, लूट भी रहे थे और लुटा भी रहे थे यह कैसा आली और रूहानी रिश्ता है गुरु और शिष्य का ।

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