संत श्री आसाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से
दो प्रकार की शक्तियाँ होती हैं- द्रव्यशक्ति और भावशक्ति। द्रव्यशक्ति और भावशक्ति से ही संस्कार बनते हैं… द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार। इन दो शक्तियों के आधार पर ही सबका जीवन चलता है।
अन्न, जल, फल आदि जो द्रव्य हम खाते हैं, उनसे हमारे शरीर को पुष्टि मिलती है। ऋतु के अनुसार हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं और ऋतु के विपरीत कुछ खाते हैं तो बीमार होते हैं। स्वास्थ्य के अनुकूल हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं, स्वास्थ्य के प्रतिकूल कुछ खाते हैं तो बीमार पड़ते हैं। इसी प्रकार समय के अनुकूल हम कोई चीज खाते हैं तो स्वस्थ रहते हैं किन्तु समय के प्रतिकूल, देर रात्रि से या प्रदोषकाल में कुछ खाते हैं तो बीमार होते हैं। इस द्रव्य शक्ति का प्राकृतिक संबंध हमारे शरीर के साथ है। द्रव्य-शक्ति का सदुपयोग करने से हमारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
द्रव्य शक्ति से ऊँची है भाव शक्ति। भाव के द्वारा जो अपने को जैसा मानता है वैसा ही बन जाता है। भावशक्ति बड़ी गजब की है। भावशक्ति से ही स्त्री-पुरुष बनते हैं, भावशक्ति से ही पापी-पुण्यात्मा बनते हैं। इसी शक्ति से हम अपने को सुखी-दुःखी मानते हैं। भावशक्ति से ही हम अपने को तुच्छ या महान मानते हैं। इसीलिए भावशक्ति का ठीक-ठीक विकास करना चाहिए। सदैव उत्तम भाव करें, मन में कभी हीन या दुःखद भाव न आने दें।
द्रव्यशक्ति की तो कहीं कमी नहीं, खान-पान की चीजें तो सभी देशों में उपलब्ध हैं लेकिन आज विश्व में भावशक्ति की बहुत कमी पड़ रही है। एक आदमी दूसरे आदमी का शोषण करके सुखी होना चाहता है, एक गाँव दूसरे गाँव का गला घोंटकर सुखी होना चाहता है, एक प्रांत दूसरे प्रांत का शोषण करके सुखी होना चाहता है, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को गुलाम बनाकर सुखी होना चाहता है। यह सब आत्मीयतापूर्ण भावशक्ति के अभाव का ही परिणाम है।
शेर ने हाथी के मस्तक का खून पिया है फिर भी जब जंगल में जाता है तो पीछे मुड़-मुड़ कर देखता है कि ʹकोई मुझे खा न जाये ! कोई मुझे मार न डाले !ʹ अरे कमबख्त ! तूने तो हाथियों को मारा है, तुझे कौन मारने को आ सकता है ? ….लेकिन उसकी हिंसा-प्रवृत्ति ही उसको डराती है। ऐसे ही शोषण करने वाले व्यक्ति अपने-आपको ही शोषित करते रहते हैं।
हराम की कमाई करने वालों के बेटे-बेटियाँ एवं परिवारवालों की मति भी वैसी ही हो जाती है। नाहक का धन बहुत-बहुत तो दस साल तक टिकता है, फिर तो उसी प्रकार स्वाहा हो जाता है जैसे रुई के गोदाम में आग लगने पर पूरी रूई स्वाहा हो जाती है। इसीलिए शोषण करके, दगाबाजी-धोखाधड़ी करके धन का ढेर करने वाले लोग जीवन में दुःखी पाये जाते हैं और जीवन के अंत में देखो तो ठनठनपाल… जबकि हक की कमाई करने वालों के बेटे बेटियाँ और परिवारवाले भी सुखी रहते हैं। सबकी भलाई सोचकर आजीविका कमाने वाले एवं आत्मा-परमात्मा की ओर चलनेवाले आप भी सुखी होते हैं और उनके सम्पर्क में आने वाले भी खुशहाल होने लगते हैं।
भोग-वासना और बाह्य आडम्बर इन्सान को भीतर से खोखला कर देते हैं। आप मन-इन्द्रियों को जैसा पोषण देंगे वैसे ही वे बन जायेंगे। आप इन्द्रियों को जैसा बनाना चाहते हैं, वैसा ही उन्हें पोषण दीजिये। यह है द्रव्यसंस्कार।
अगर आप इन्द्रियों को हल्का दृश्य दिखाओगे तो इन्द्रियाँ उऩ्हीं के अधीन हो जायेंगी। मन को अगर नशीली चीजों की आदत डालोगे तो उसी तरफ उसका झुकाव हो जायेगा। यह है द्रव्य संस्कार।
भावसंस्कार कैसे डालना ? इसका ज्ञान सत्संग और सत्शास्त्र से मिलता है। इसलिए रोटी नहीं मिले तो चिंता की बात नहीं लेकिन सत्संग रोज मिलना चाहिए। सत्यस्वरूप ईश्वर का जप और ध्यान रोज होना चाहिए। साधना के अनुकूल रोज पवित्र आहार लेना चाहिए। यह है भावसंस्कार।
आप जो द्रव्य खाते हैं एवं जो भाव करते हैं उनमें भी आत्मज्ञान के संस्कार भरे दें। द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार दोनों में आत्मज्ञान का सिंचन, सत्य का सिंचन कर दें तो अंत में दोनों का फल सत्यस्वरूप ईश्वर की प्राप्ति हो जायेगी।
द्रव्य संस्कार और भावसंस्कार दोनों पवित्र होंगे तो पवित्र सुख मिलेगा। यह पवित्र सुख परम पवित्र परमात्मा से मिला देगा। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अपवित्र सुखाभास मिलेगा और देर-सबेर नरकों के स्वरूप में वह चैतन्य प्रगट होगा।
ʹʹबाबाजी ! सर्वत्र एवं सब में भगवान हैं तो फिर ʹयह पवित्र यह अपवित्र… यह करो यह न करो….ʹ ऐसा क्यों ?
जो आया सो खा लिया, जैसा मन में आया वैसा कर लिया तो फिर जैसा होगा वैसा ही परिणाम आयेगा। यदि आप वास्तविक सुख, पवित्र सुख चाहते हो तो सिद्धान्त के अनुसार वहीं चलना पड़ेगा जहाँ वास्तविक सुख होगा।
ʹजो आये सो करो….ʹ तो पाप करो, कोई बात नहीं। फिर भगवान नरक के रूप में, परेशानी के रूप में मिलेंगे। जब परेशानी आ जाये तो बोलना किः ʹभगवान परेशानी के रूप में आये हैं।ʹ संतोष मान लेना। पुण्य करोगे तो भगवान सुख के रूप में मिलेंगे, स्वर्ग के रूप में मिलेंगे। आप किसी को सतायेंगे तो भगवान दुश्मन के रूप में प्रगट होंगे और आप किसी को ईमानदारी से स्नेह करोगे तो भगवान मित्र के रूप में प्रगट होंगे। लेकिन अगर ऐसी नजर बनी रही कि ʹदुश्मन के रूप में भी मेरा भगवान हैʹ तो दुश्मन हट जायेगा और भगवान रह जायेंगे। आपका भावसंस्कार बन जायेगा, कल्याण हो जायेगा। अन्यथा, दुश्मन के प्रति द्वेष होगा और मित्र के प्रति राग होगा तो फँसोगे।
करणी आपो आपनी के नेड़े के दूर।
अपनी ही करनी से इन्सान सुख के निकट या दूर होता है। अतः बुरे संस्कारों, बुरे कर्मों से बचो। भारत की दिव्य संस्कृति के दिव्य संस्कारों से आप भी सम्पन्न बनो और दूसरों को भी सम्पन्न करो। द्रव्यशक्ति के साथ-साथ अपनी भावशक्ति को इतना ऊँचा बना लो कि इस जगत के भोग तो क्या, स्वर्ग के सुखभोग भी आपको आकर्षित न कर सकें। स्वर्ग की अप्सरा का भोग भी भारत के अर्जुन के आगे तुच्छ था तो इस जगत की प्लास्टिक की पट्टियाँ (फिल्मों) का भोग क्या चीज है ?
इस लोक और परलोक के सुख से भी बढ़कर जो आत्मसुख है, उसको पाने में ही जो अपनी द्रव्यशक्ति एवं भावशक्ति का उपयोग करता है उसी का जीवन धन्य है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल 2000, पृष्ठ संख्या 17-19 अंक 88
ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ