अस्थिर व नाशवान के झोंकों में कर सकते हो सहज योग

अस्थिर व नाशवान के झोंकों में कर सकते हो सहज योग


वैराग्य शतक के 37वें श्लोक का अर्थ हैः ‘हे बुद्धिमानो ! शरीरधारी प्राणियों के सुखभोग मेघों के विस्तार के बीच चमकने वाली बिजली के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झोंकों से कम्पित कमल के पत्ते पर पड़े हुए जलबिंदु के समान नाशवान हैं। जवानी की उमंगे और वासनाएँ भी अत्यंत अस्थिर हैं । ऐसा विचार कर बुद्धि को शीघ्र धैर्य और चित्त की स्थिरता की सिद्धि से सहज प्राप्त होने वाले योग अर्थात् ब्रह्मचिंतन में लगाओ ।’

भर्तृहरि जी महाराज समझा रहे हैं कि संसार और संसार के सारे पदार्थ नाशवान और असार हैं । पाँच तत्त्वों से बनी हुई काया पाँच तत्त्वों में ही लीन हो जायेगी । जिस तरह समुद्र में बुदबुदे उठते और मिट जाते है, उसी तरह शरीर बनते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह सांसारिक विषय-भोग तथा आयु अस्थिर और क्षणभंगुर हैं, उसी तरह जवानी भी क्षणभंगुर है । यह शरीर तभी तक सुंदर और मनोहर लगता है जब तक बुढ़ापा नहीं आता ।

श्रीमद्भगवद्गीता (18.38) में भी आता हैः

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यतदग्रेऽमृतोपमम् ।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।।

इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने से जो सुखाभास होता है वह पहले (भोगकाल में) तो अमृत के समान प्रतीत होता है पर परिणाम जहर के तुल्य होता है ।

स्वामी शिवानंद जी कहते है- “जैसे छोटे-छोटे अज्ञानी बालकों को एक ही प्रकार की मिठाई में प्रतिदिन आनंद मिलता है, वे उससे ऊबते नहीं, क्यों ? क्योंकि थोड़ी देर के लिए उनका मुँह मीठा हो जाता है । उसी तरह मनुष्य भी वही वस्त्र, वही अलंकार, वही भोग इनमें उलझा रहता है, उनसे ऊबता नहीं । रोज-रोज़ उन्हीं विषय-सुखों में लिपटा रहता है तथा क्षणिक सुखाभास देने वाले विषय-भोगों में लीन होकर सत्पथ से विचलित हो जाता है । वासना ही है जिससे मनुष्य को पुनर्जन्म आदि वेदनाओं को सहन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । जो शरीर हड्डी, मांस, रक्त आदि से बना है, जो नाशवान है उससे कौन सा सुख भोगा जा सकता है ? इस शरीर के साथ मलवत् व्यवहार करना चाहिए । (अज्ञान दशा में) इस शरीर को सजाने-सँवारने से क्या लाभ ? कोरे अज्ञान के वश लोग ऐसा करते हैं । ‘इस संसार में कोई वस्तु मेरी नहीं है । यह शरीर भी मेरा नहीं है ।’ ऐसे विचारों को मन में पल्लवित करना चाहिए । यही बुद्धिमानी है ।”

नश्वर संसार की असारता का दर्शन कराने वाली एवं परम सार अपने आत्मा-परमात्मा को पाने के पथ का मार्गदर्शन करने वाली पूज्य बापू जी की अमृतवाणी में आता हैः

पानी केरा बुलबुला. यह मानव की जात ।

देखत ही छुप जात है, ज्यों तारा प्रभात ।।

जैसे प्रभात में तारे देखते ही देखते छुप जाते हैं, वैसे ही पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर यह मनुष्य जन्म कब कहाँ पूरा हो जाय, कोई पता नहीं । इसलिए जगत की भोग-वासना और सुविधाओं की चिंता न करके जगदीश्वर में मन  की वृत्ति लगानी चाहिए । साधक को चाहिए कि वह अपने-आपका मित्र बन जाय । अगर साधक परमात्मप्राप्ति के लिए सजग रह के आध्यात्मिक यात्रा करता रहता है तो वह अपने-आपका मित्र है और अगर वह अनात्म पदार्थों में, संसार के क्षणभंगुर भोगों में ही अपना समय बरबाद कर देता है तो वह अपने-आपका शत्रु हो जाता है ।

उच्च कोटि का साधक जानता है कि

चातक मीन पतंग जब पिया बिन नहीं रह पाय ।

साध्य को पाये बिना साधक क्यों रह जाय ।।

सारा संसार मिथ्या और असार है । जो सार है उसमें बुद्धि टिकेगी तो कल्याण हो जायेगा । सबमें छुपा हुआ परमेश्वर एक है या कुछ नहीं है ? ‘कुछ नहीं है…’ ऐसा जो कह रहा है वही (कुछ नहीं रहने पर भी उस निःशेषता के साक्षीरूप में) शेष है, उसी एक अद्वैत आत्मा में अपनी बुद्धि को लगाओ । बुद्धि को आत्मविषयिणी बना लो ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2019, पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 313

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